।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.24 II Additional II
।। अध्याय 13.24 II विशेष II
ll सांख्य सिंद्धान्त में अनुसार प्रकृति का एक संक्षिप्त अध्ययन भी जरूरी है, जिस से हम प्रकृति एवम पुरुष को समझ सकते है। विशेष -भाग 3, 13.24 ।।
वेदांती मानते है कि विनाशी प्रकृति अथवा कर्मात्मक माया स्वतंत्र नहीं है; किंतु एक नित्य, सर्वव्यापी और निर्गुण ही मनुष्य की दुर्बल इंद्रियों को सगुण माया बन कर दिखती है। किंतु यह प्रश्न यह भी है कि यह सगुण नाम रूपों का दृश्य निर्गुण ब्रह्म से पहले पहल किस क्रम से, कब और क्यों दिखने लगा? ऋग्वेद के नासदिए सूक्त में जैसा वर्णन है, उस के अनुसार इस का उत्तर देवताओं या वेदों में भी कहीं भी उपलब्ध नहीं है।
इस प्रश्न को अनुत्तरित हम पुनः परमात्मा के कथन (गीता 7.14) यह मेरी ही माया है से करते है कि माया अर्थात प्रकृति और पुरुष दोनों ही अनादि है। इंद्रियों के अज्ञान से मूल ब्रह्म में कल्पित किए हुए नामरूप को ही श्रुति और स्मृति ग्रंथो में सर्वज्ञ ईश्वर की माया, शक्ति अथवा प्रकृति कहते है; ये नामरूप सर्वज्ञ परमेश्वर के आधारभूत से जान पड़ते हैं, परंतु जड़ होने के कारण यह नही कह सकते कि ये परब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न, और यह जड़ सृष्टि के विस्तार के मूल है।
इस माया के योग से ही यह सृष्टि परमेश्वर निमित्त देख पा रहे है, इसलिए माया चाहे कितनी भी विनाशी हो, तथापि दृश्य सृष्टि की उत्पत्ति के लिए अति आवश्यक है। इसलिए इसी को उपनिषदों में अव्यक्त, आकाश, अक्षर इत्यादि का नाम दिया। गीता में भी इसे दृष्टा, उपदृष्टा, अनुमंता, भर्ता, और भोक्ता भी कहा है।
इसलिए सांख्य योगी प्रकृति को स्वतंत्र और अनादि कहते हैं और पुरुष को भी स्वतंत्र और अनादि मानते है। वे द्वैत पर विश्वास रखते है। किंतु वेदांती कहते हैं कि इस प्रकृति और पुरुष दोनों यद्यपि अनादि और अनंत है, तो भी ज्ञानी पुरुष ने अपनी बुद्धि से निश्चित किया की संसार के समस्त व्यापार का मूलभूत जो इस सृष्टि उत्पत्ति काल का कर्म या माया है, ब्रह्म की ही कोई अतक्यर लीला है। किंतु यह लीला, नामरूप अथवा मायात्मक कर्म कब उत्पन्न हुआ। इसलिए कर्म सृष्टि का जब भी करना हो तो ज्ञानी लोग परतंत्र और विनाशी माया एवम उस के साथ तद्गभुत कर्म जो अनादि है, विचार करना चाहिए।
क्योंकि कर्मो के फल भी होते है, जो मनुष्य को नियम के तहत ही प्राप्त होते है, इन्हे कर्म विपाक कहा गया है। इस का पहला नियम यही है कि जहां एक बार कर्म का आरंभ हुआ कि फिर उस का व्यापार अखंड जारी रहता है, और जब ब्रह्मा का दिन समाप्त होने पर सृष्टि का संहार होता है, तब भी यह कर्म बीजरूप में बना रहता है एवम फिर जब सृष्टि का आरंभ होने लगता है, तब उसी कर्म बीज से फिर अंकुर फूटने लगते है।
पूर्व की सृष्टि में प्रत्येक प्राणी जो जो भी कर्म किए होंगे, ठीक वही कर्म उस की इच्छा हो या न हो, फिर फिर यथा पूर्व प्राप्त होते है। कर्म की गति अत्यंत कठिन है, इतना ही कर्म का बंधन भी बड़ा कठिन है, कर्म किसी से भी नही छूटता और कर्म किसी को भी नही छोड़ता। वायु भी कर्म की गति से चलती है, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी कर्म की गति से घूमते है, और ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी सगुण देव कर्म की गति से बंधे हैं।
सगुण का अर्थ नामरूपात्मक और नामरूपात्मक का अर्थ है कर्म या कर्म का परिणाम। आधुनिक अधिभौतिक विज्ञान भी मानता है कि कर्म का कोई भी नाश नहीं होता, जो शक्ति आज किसी एक नाम रूप में दिखती है, वही शक्ति उस नाम रूप के नाश होने पर दूसरे नाम रूप में प्रगट हो जाती है। आध्यात्मिक दृष्टि से इस नाम रूपात्मक परंपरा को जन्म मरण का चक्र संसार कहते है, और इन नाम रूप की आधार शक्ति को समिष्ट रूप से ब्रह्म और व्यष्टि रूप से जीवात्मा कहा गया।
अतः हम यह मान कर चलते है कि आत्मा अर्थात शक्ति न तो जन्म धारण करती है और न ही मृत्यु को प्राप्त होती है, वह तो नित्य और साक्षी है किंतु नाम रूप कर्म बंधन के कारण कर्मफलो को भोगते हुए, जन्म मरण को प्राप्त होती है।
यह कर्म फल पीढ़ीदर भी चल सकता है। वंश परंपरागत रोग इस का प्रमाण है। कर्म के फल को प्राप्त होना और भोगना ही कर्मवाद कहलाता है।
क्योंकि सारी सृष्टि ईश्वर की इच्छा से चल रही है, इसलिए प्रत्येक कर्म के फल निश्चित परमात्मा द्वारा किए हुए है, बुरे कर्म का बुरा फल और अच्छे कर्म का अच्छा फल। परमात्मा इन कर्म फलों के प्रति उदासीन है और प्रकृति ही इस का संचालन करती है। परमात्मा न तो किसी के पाप को लेता है और न ही किसी के पुण्य का भागीदार बनता है।
क्योंकि नाम रूपात्मक कर्म अर्थात सृष्टि शास्त्र के नियम तथा बन्धन सदृढ़ एवम सर्वव्यापी है, कि इस के मूल में अति भौतिकवादी किसी जीवात्मा को भी नही मानते और उन के अनुसार यह सृष्टि चक्र मनुष्य को जिस और ले जाए, उसे विवश हो कर वह कार्य करना पड़ता है। मनुष्य इच्छा न होते हुए भी पाप कर लेता है, तो इस का कारण यह उस के पूर्व के संचित कर्म के फल ही होंगे। क्योंकि वह जब कर्मो के लिए विवश है, तो उस की स्थिति नदी में बहते लकड़ी के लठ्ठ के समान हैं, को नदी की धारा में बहता है। अतः अतिभौतिकवाद के अनुसार उस मनुष्य को वासना स्वतंत्रता, इच्छा स्वतंत्रता या प्रवृति स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होती, तो उस का मोक्ष कैसा?
जैसी करनी वैसी भरनी, इस नियम से सात्विक, राजसी और तामसी तीन प्रकार के कर्मो के विभाग किए गए। जिस से मनुष्य पाप कर्मों से बचे और अच्छे कर्मों को करता हुआ सुख भोगे। इसी प्रकार कर्म का फल भी तुरंत नही मिलता अतः कुछ कर्मो का फल तुरंत मिलता है उसे क्रियमाण कर्म भी कहते हैं और उस में कुछ कर्म संचित हो कर बाद में, या अगले जन्मों में प्राप्त होते है। अगले जन्म में जिन कर्मो का फल मिलना शुरू हो जाता है उन्हे प्रारब्ध कहते है। इन प्रारब्ध का दूसरा नाम आरब्ध कर्म भी है। जो प्रारब्ध नहीं है उसे अनारब्ध कर्म कहते है। कर्मो का वर्गीकरण कितना भी कर ले किंतु उन को भोगे बिना मुक्ति नहीं और कर्मो के फलों से को कर्म होते है, उस के फल को भी भोगना ही है तो मुक्ति या मोक्ष किसे कहेंगे।
मुक्ति के लिए कर्म के चार विभाग किए गए, नित्य, नैमित्तिक, काम्य एवम निषिद्ध। नित्य कर्मों से मुक्ति नहीं क्योंकि यह प्रकृति या जड़ शरीर के कर्म है, नैमित्तिक कर्म भी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु होते है, किंतु काम्य कर्म या निषिद्ध कर्म आसक्ति और अहम भाव से प्रेरित कर्म होने से बंधनकारी होते है। मुक्ति या मोक्ष का अर्थ ही है, अहम और आसक्ति से मुक्ति, जिस से कर्म का चक्र नही रुकता किंतु कर्म के फल निष्काम होने से संचित या फलित नही होते। और मनुष्य अपनी आयु के अनुसार कर्म करता हुआ भी मुक्त हो जाता है। परंतु कैसे? इस के गीता का अध्ययन करते रहना पढ़ेगा, क्योंकि कर्म चक्र से मुक्ति के लिए, इस से बाहर आना आवश्यक। ज्ञान के अध्ययन में ब्रह्म, प्रकृति और योगमाया को भगवान अत्यंत गहन स्वरूप में समझाते भी है किंतु यह बिना ईश्वर की कृपा, अभ्यास और वैराग्य के समझ में आना संभव नही।
गीता का यह प्रभाग श्लोक 19 से श्लोक 24 तक सांख्य योग के न केवल पुरुष एवम प्रकृति का ही, वर्णन नही करता, अपितु सगुण भाव से प्रकृति में परमात्मा के स्वरूप को भी स्पष्ट करता है। जो सगुण उपासक है, वह प्रकृति में ब्रह्म तत्व को पूजता है और फिर ज्ञान प्राप्त करके परमात्मा को प्राप्त होता है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता विशेष भाग 3 – 13.24 ll
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