।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.24 II
।। अध्याय 13.24 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.24॥
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥
“ya evaḿ vetti puruṣaḿ,
prakṛtiḿ ca guṇaiḥ saha..।
sarvathā vartamāno ‘pi,
na sa bhūyo ‘bhijāyate”..।।
भावार्थ:
जो मनुष्य इस प्रकार जीव को प्रकृति के गुणों के साथ ही जानता है वह वर्तमान में किसी भी परिस्थिति में स्थित होने पर भी सभी प्रकार से मुक्त रहता है और वह फिर से जन्म को प्राप्त नही होता है। (२४)
Meaning:
He who thus knows Purusha and Prakriti, along with the gunaas, no matter what his conduct, is never born again.
Explanation:
Here Krishna points out the clear knowledge about Prakr̥ti and Puruṣa will give a person will a great relief from the burden of samsāra. A life which appeared a struggle till now; a life which is very big drag, which is full of cares and worries, that life becomes a very very great relief, if I have made this discriminative knowledge and I have learned to claim I am Puruṣa and all the attributes belong to Prakr̥ti.
Ignorance has led the soul into its present predicament. Having forgotten its spiritual identity as a tiny fragment of God, it has fallen into material consciousness. Therefore, knowledge is vital for resurrecting itself from its present position. The Śhwetāśhvatar Upaniṣhad states exactly the same thing:
“There are three entities in creation—the ever-changing material nature, the unchangeable souls, and the Master of both, who is the Supreme Lord. Ignorance of these entities is the cause of bondage of the soul, while knowledge of them helps it cut asunder the fetters of Maya.”
To better understand this shloka, let us quickly take a look at the theory of karma. It says that each of us comes with three types of karmas, which are unfulfilled desires that become seeds of future actions. Total karmas or “sanchita” karmas are the entire stock of our karmas. Present life karmas or “prarabdha” karmas are those karmas that are activated in our present life. Expected karmas or “agaami” karmas are those karmas that will be generated due to the results of actions in the present life. These karmas get added to our sanchita karmas, our stock of karmas.
As an illustration, consider this. The arrows in an archer’s quiver are sanchita karmas, the arrows that have left his bow are prarabdha karmas, and the arrows that are loaded on the bow are agaami karmas. The Vedas assert that so long as an individual maintains a stock of karmas, he has to take on a body to exhaust those karmas. In each birth, a portion of the stock of karmas is allocated to the individual so that he can exhaust them. By generating further selfish desires, the individual adds to his stock of karmas, and the cycle of birth goes on indefinitely.
Shri Krishna says that the one who has properly understood the relationship between Purusha and Prakriti, one who has understood the identification of the eternal essence with Prakriti due to ignorance and the consequent rushing after the gunaas, is never born again. This means that his stock of karmas is destroyed, just like a spark of fire destroys dry hay. He does not generate any further selfish desires, because he is no longer fascinated by the play of the three gunaas. Why does this happen? When one realizes that selfish desire is created by ignorance of one’s true nature, it wipes out any notion of selfishness completely. There is no longer an urge to come into contact with Prakriti.
Now, this person still has to deal with his prarabdha. His present life karmas continue to be active until his body drops off, after which he does not have to take any further births. The word “api” in the shloka indicates that the individual can continue to perform his duties even if he has realized his true nature as the eternal essence, just like king Janaka continued to rule his kingdom even though he had achieved liberation.
Shri Krishna concludes the topic of Purusha and Prakriti with this shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
यहाँ कृष्ण प्रकृति और पुरुष के बारे में स्पष्ट ज्ञान की ओर इशारा करते हैं जो व्यक्ति को संसार के बोझ से बहुत राहत देगा। एक ऐसा जीवन जो अब तक एक संघर्ष प्रतीत होता था; एक ऐसा जीवन जो बहुत बड़ा बोझ है, जो चिंताओं और परेशानियों से भरा है, वह जीवन एक बहुत बड़ी राहत बन जाता है, अगर मैंने यह विवेकपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है और मैंने यह दावा करना सीख लिया है कि मैं पुरुष हूँ और सभी गुण प्रकृति के हैं।
स्वामी विवेकानंद जी ने प्रकृति की माया को एक स्वप्न्न की भांति कहा है। जिस प्रकार आप गहरी निंद्रा में कोई स्वप्न्न देख रहे होते है तो उस मे होने वाली हर घटना में आप अपनी पूर्ण कामनाओं, भावनाओ एवम ज्ञानेंद्रियों से जुड़ जाते है एवम उस मे हो रही प्रत्येक घटना को अपने साथ घटित मानते है। इसलिये स्वप्न देखते हुए हँसना, रोना, हाथ पांव चलाना या चिल्लाना शुरू रहता है। किंतु जैसे ही हमारा स्वप्न टूटता है हम उस मे होने वाली हर घटना से मुक्त हो जाते है।
वह परमात्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, अविनाशी तथा प्रकृति से सर्वथा अतीत है- इस बात को संशय रहित यथार्थ समझ लेना एवम एकीभाव से उस सच्चिदानंदघन में नित्य स्थित हो जाना ही पुरुष को तत्व से जानना है।
उस पुरुष को जो मनुष्य उपर्युक्त प्रकार से अर्थात् साक्षात् आत्मभाव से कि यही मैं हूँ इस प्रकार जानता है और उपर्युक्त अविद्यारूप प्रकृति को भी, अपने विकार रूप गुणों के सहित, विद्याद्वारा निवृत्त की हुई – अभाव को प्राप्त की हुई जानता है। वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी, इस विद्वत्शरीर के नाश होने पर फिर दूसरे शरीरमें जन्म नहीं लेता अर्थात् दूसरे शरीरको ग्रहण नहीं करता।
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात उस का शेष जीवन निष्काम, स्थितप्रज्ञ, तत्वविद की भांति व्यतीत होता है।
यद्यपि यह बात सरल एवम उत्साह से पूर्ण लगती है किंतु यहां यह भी विकट प्रश्न है कि परमेश्वर न तो किसी का पाप लेता है और न ही पुण्य को। कर्म या माया से चक्र रहा है जिस में प्राणी अपने कर्मो के अनुसार दुख-सुख भोग रहा है। कर्म का बंधन इतना शक्ति शाली है कि किसी सुंदर स्त्री को देख कर कामना मात्र जागृत होने से या कोई वस्तु को देख कर उसे चुराने की भावना या इच्छा भी बंधन कारी कर्म है तो मनुष्य तो कर्म के प्रवाह में नदी में बहता हुआ लकड़ी का लट्ठ है जिसे सारी गति एवम दिशाएं माया रूपी नदी से मिलती है। वह यदि ज्ञान प्राप्त भी कर ले तो भी अपने पूर्व कर्मो के कारण कर्म से कैसे मुक्त हो सकता है। उस के लिये उसे जन्म लेना पड़ेगा।
यह बात नहीं क्योंकि ज्ञान से इस के समस्त कर्म क्षय हो जाते हैं ब्रह्म को जाननेवाला ब्रह्म ही हो जाता है उस के ( मोक्षमें ) तभी तक की देर है। अग्नि में तृण के अग्रभाग की भाँति उसके समस्त कर्म भस्म हो जाते हैं इत्यादि सैकड़ों श्रुतियों द्वारा विद्वान् के सब कर्मों का दाह होना कहा गया है। यहाँ गीताशास्त्र में भी यथैधांसि इत्यादि श्लोक में समस्त कर्मों का दाह कहा गया है और आगे भी कहेंगे। युक्ति से भी यही बात सिद्ध होती है क्योंकि अविद्या, कामना आदि क्लेशरूप बीजों से युक्त हुए ही कारण रूप कर्म अन्य जन्म रूप अंकुर का आरम्भ किया करते हैं। यहाँ गीताशास्त्र में भी भगवान् ने जगह जगह कहा है कि अहंकार और फलाकाङ्क्षायुक्त कर्म ही फल का आरम्भ करने वाले होते हैं अन्य नहीं। तथा जैसे अग्नि में दग्ध हुए बीज फिर नहीं उगते, वैसे ही ज्ञान से दग्ध हुए कर्मो द्वारा आत्मा पुनः शरीर,ग्रहण नहीं करता ।
अज्ञानता आत्मा को दुर्दशा की ओर ले जाती है। भगवान के अणु अंश के रूप में अपनी दिव्य पहचान को भूल कर यह भौतिक चेतना में डूब जाती है। इसलिए अपनी वर्तमान स्थिति से अपना पुनरूत्थान करने के लिए इसका प्रबुद्ध होना आवश्यक है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी ऐसा वर्णन किया गया है कि सृष्टि में तीन तत्त्व हैं:
संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः। अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावात् ज्ञात्वा देवम् मुच्यते सर्वपाशैः।।(श्वेताश्वतरोपनिषद्-1.8)
“सृष्टि में तीन तत्त्व विद्यमान हैं। सदैव परिवर्तनशील प्राकृतिक ऊर्जा, अपरिवर्तनशील आत्मा और दोनों का स्वामी परमात्मा। इन तत्त्वों की अज्ञानता जीवात्मा के बंधन का कारण है जबकि इनका ज्ञान माया की बेड़ियों को काट कर उससे अलग करने में सहायता करता है।”
श्रीकृष्ण जिस ज्ञान के संबंध में चर्चा कर रहे हैं वह कोई कोरा पुस्तकीय ज्ञान नहीं है बल्कि साधित ज्ञान है। इस ज्ञान का बोध तभी होता है जब हम पहले इन तीन तत्त्वों का सैद्धान्तिक ज्ञान अपने गुरु और धर्म ग्रंथों से प्राप्त कर लें और तत्पश्चात आध्यात्मिक क्रियाओं में संलग्न हों।
पुनः यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि बुद्धि जब माया एवम कर्म से प्रभावित है एवम ज्ञान कैसे होगा। फिर हो भी गया तो ज्ञान की अग्नि क्या उन कर्मो को भी दग्ध कर देगी जिन का फलारम्भ ही नही हुआ है।
ऐसा कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि वे प्रारब्ध कर्म छोड़े हुए बाण की भाँति फल देने के लिये प्रवृत्त हो चुके हैं, इसलिये ( उन का फल अवश्य होता है, पर अन्य का नहीं )। जैसे पहले लक्ष्य का वेध करने के लिये धनुष से छोड़ा हुआ बाण, लक्ष्यवेध हो जाने के पश्चात् ही आरम्भ हुए वेगका नाश होने पर गिर कर ही शान्त होता है, वैसे ही शरीर का आरम्भ करने वाले प्रारब्ध कर्म भी, शरीर स्थिति रूप प्रयोजन के निवृत्त हो जाने पर भी, जबतक संस्कारों का वेग क्षय नहीं हो जाता, तब तक पहले की भाँति बर्तते ही रहते हैं। वही बाण, जिस का प्रवृत्ति के लिये वेग आरम्भ नहीं हुआ है – जो छोड़ा नहीं गया है यदि धनुष पर चढ़ा भी लिया गया हो तो भी उसको रोका जा सकता है। वैसे ही जिन कर्मों के फलका आरम्भ नहीं हुआ है, वे अपने आश्रय में स्थित हुए ही ज्ञानद्वारा निर्बीज किये जा सकते हैं। अतः इस विद्वत्शरीर के गिरने के पीछे वह फिर उत्पन्न नहीं होता यह कहना उचित ही है।
जो साधक इस तरह पुरुष को देह से, प्रकृति से पर अर्थात् सम्बन्ध रहित जान लेता है तथा विकार, कार्य, करण, विषय आदि रूप से जो कुछ भी संसार दीखता है, वह सब प्रकृति और उस के गुणों का कार्य है – ऐसा यथार्थ रूप से जान लेता है, वह फिर वर्ण, आश्रम, परिस्थिति आदि के अनुसार प्राप्त कर्तव्य कर्म को करता हुआ भी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता। कार्य, प्रकृति, माया अनादि माने गए है, कोई भी कर्म बिना फल के नही होता, यही कार्य – करण का स्वरूप भी है, यही कर्म विपाक का नियम भी है। इसलिए कर्म से निर्लिप्त होने का अर्थ ही है, उस के प्रति निष्काम होना। जब कर्म के फल के प्रति आसक्ति नहीं होगी तो वह फल भी पुरुष को फलित भी नही होगा।
पूर्वश्लोक में भगवान् ने जन्म रहित होने में अर्थात मोक्ष के लिये प्रकृति पुरुष को ज्ञान यानि यथार्थ जानना कारण बताया। अब यह जिज्ञासा होती है कि क्या जन्म मरण से रहित होने का उस बुद्धि द्वारा जो स्वयं कर्मो से ग्रसित है, और भी कोई उपाय है इस पर भगवान् आगे के दो श्लोकों में चार साधन जो बताते हैं, उन्हें पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 13.24।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)