।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.21 II Additional II
।। अध्याय 13.21 II विशेष II
ll सांख्य सिंद्धान्त में अनुसार प्रकृति का एक संक्षिप्त अध्ययन भी जरूरी है, जिस से हम प्रकृति एवम पुरुष को समझ सकते है। विशेष -भाग २, 13.21 ।।
सृष्टि के आरम्भ काल मे अव्यक्त और निर्गुण परब्रह्म जिस देशकाल आदि नाम रूपात्मक शक्ति से व्यक्त, अर्थात सृष्टि हुआ देख पड़ता है, उसी को वेदान्त शास्त्र में माया कहते है। क्योंकि पहले कुछ न कुछ कर्म अर्थात व्यापार हुए बिना अव्यक्त का व्यक्त होना अथवा निर्गुण का सगुण होना संभव नही था, इसलिये परमात्मा ने अपनी माया से प्रकृति को उत्पन्न होना बताया।
अक्षर परब्रह्म से पंचमहाभूतादि विविध सृष्टि निर्माण होने की जो क्रिया है उसे कर्म भी कहते है। कर्म अर्थात व्यापार या क्रिया चाहे वह मनुष्य कृत हो, सृष्टि के अन्य पदार्थो की क्रिया हो अथवा मूल सृष्टि के उत्पन्न होने की हो।
क्रिया से पदार्थ का मूल द्रव्य नही बदलता केवल नाम बदलता है जैसे मिट्टी से घड़ा या सूत से वस्त्र। इसलिये इस को नाम रूप भी कहते है। अतः माया, कर्म या नामरूप एक ही प्रक्रिया के तीन नाम है।
सांख्य वादी प्रकृति एवम पुरुष को अनादि एवम स्वतंत्र मानते है किंतु कर्मात्मक माया स्वतंत्र नही है क्यों यह प्रति क्षण बदलती रहती है। नित्य परमेश्वर ने नाम रूपात्मक, विनाशी एवम जड़ सृष्टि कब और क्यों उत्पन्न की? यह विषय ऋग्वेद के अनुसार मनुष्य, देवताओ एवम वेदों के लिये भी अगम्य है। अतएव इतना मान कर के आगे चलना पड़ता है कि जब से हम देखते आये है तब से निर्गुण ब्रह्म के साथ ही नाम रूपात्मक विनाशी कर्म अथवा सगुण माया हमे दृष्टिगोचर होती आई है। इसलिये वेदान्त कहते है कि मायात्मक कर्म अनादि है। माया भी परब्रह्म से उत्पन्न है इसलिये प्रकृति अर्थात माया और पुरुष दोनों अनादि है।
ऐसा कहा जाता है कि प्रकृति से अहंकार उत्पन्न होता है, यह अहंकार पंच तन्मात्राए शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध , एक मन, पांच ज्ञानेद्रियां और पांच कर्मेंद्रिया पांच महाभूतो के साथ स्थूल शरीर में उत्पन्न होती है। जीव इसी को अपना समझ लेता है। संसार में पैदा होते ही, बालक जब अपनी मां और घर वालो से मिलता है, वहां से ही मेरा – तेरा का राग – द्वेष जीवन पर्यंत ले कर शरीर के नष्ट होने तक ले कर चलता है। भूख प्यास एवम जीवन की आवश्यकताओं में सुख और विलासिता को खोजता है और कामना एवम इच्छाओं से सुख और दुख को भोगता है। जबकि यह समस्त क्रियाएं प्रकृति ही करती है, वह माया में भ्रमित हो कर, यह समझता है, कि वह कर रहा है।
प्रत्येक पुरुष और प्रकृति का जब संयोग होता है, तब प्रकृति अपने गुणों का जाला उस पुरुष के सामने फैलाती है और पुरुष उस का उपभोग करता रहता है। ऐसा होते होते जिस पुरुष के चारो ओर प्रकृति के खेल सात्विक हो जाते है तो उसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है और उस के लिये प्रकृति के खेल बन्द हो जाते है। वह अपने मूल की प्राप्त हो जाता है किंतु जैसे कुम्हार का चक्कर घड़ा बन जाने के बाद निकाल लेने से चलता रहता है वैसे ही यह सात्विक मनुष्य कैवल्य पद की प्राप्ति के बाद शरीर कुछ समय तक बना रहता है। देह एवम इन्द्रियरूपी विकार उस मनुष्य को मृत्यु तक नही छोड़ते। किन्तु उस के ज्ञान के कारण की वह प्रकृति से भिन्न है वह अपना समय निर्लिप्त भाव से उदासीन हो कर व्यतीत करता है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता विशेष भाग 2 – 13.21 ll
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