।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.18 II Additional II
।। अध्याय 13.18 II विशेष II
।। ब्रह्म और वेदांत दर्शन ।। विशेष – गीता 13.18 ।।
संपूर्ण रचना का कोई न कोई आधार अवश्य होता है, किंतु उस आधार का भी कोई आधार है या नही, इस के लिए ब्रह्म की सरंचना की गई। जिस का कोई आधार न हो, जो स्वयं प्रकाशमान हो, जिस से समस्त सृष्टि की रचना की गई हो। हम ऋग्वेद के नासदिये सूक्त और आधुनिक युग के गॉड पार्टिकल एवम हिंग्स बैंग के सिद्धांत को आगे पढ़ेंगे, किंतु वेद ब्रह्म के विषय में क्या कहते, पढ़ते है। ऋषि की कल्पना कहती है, ” जब सत – असत कुछ भी न था, चारो ओर अंधकार छाया हुआ था, सूर्य, चांद, तारे पृथ्वी और जल भी न था, तो व्योम के उस पार क्या था ? क्या वो जब नितांत अकेला था, तो उस के चारो और क्या अंधकार था? फिर भी वह था कहां ?” यही एकमेव प्रकाशवान ब्रह्म की आधार माना गया, जिस से समस्त सृष्टि की रचना हुई और जिस का कोई आधार नहीं है। यही ज्ञान है, जिस को जानने के बाद ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एकस्वरूप हो जाते है और कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता। माना गया है कि सृष्टि की रचना ब्रह्म के एक से अनेक होने संकल्प – विकल्प से हुई है।
ब्रह्म (संस्कृत : ब्रह्मन्) हिन्दू (वेद परम्परा, वेदान्त और उपनिषद) दर्शन में इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है। वो दुनिया की आत्मा है। वो विश्व का कारण है, जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है , जिसमें विश्व आधारित होता है और अन्त में जिसमें विलीन हो जाता है। वो एक और अद्वितीय है। वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश-स्त्रोत की तरह रोशन है। वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।
मनुष्य का जन्म होता है तो जन्म क्षण में ही उसके हृदय में चैतन्य मन से होते हुऐ अवचेतन मन से होते हुऐ अंतर्मन से होते हुऐ मन से होते हुए मस्तिष्क में चेतना प्रवेश करती हैं वही आत्मा है और ये आत्मा किसी मनुष्य की मृत्यु हुई थी तो उसकी चेतना अर्थात आत्मा अपने मन से होते हुऐ अंतर्मन से होते हुए अवचेतन मन से होते हुऐ चैतन्य मन से होते हुऐ दूसरे शरीर में अवचेतन मन से होते हुऐ अंतर्मन से होते हुऐ मन से होते हुए मस्तिष्क में पहुंचती है यही क्रम हर जन्म में होता है ।
जब मनुष्य जागता है तो उसके ह्रदय से ऊर्जाओं का विखण्डन होते जाता है सबसे पहले ह्रदय में प्राण शक्ति जिसे ब्रह्म कहते है उसे अव्याकृत ब्रह्म अर्थात सचेता ऊर्जा बनती है वह सचेता ऊर्जा से नाद ब्रह्म बनता है अर्थात अंतर्मन का निर्माण होता है जिसे ध्वनि उत्पन्न होती है फिर उसे व्याकृत ब्रह्म बनता है मस्तिष्क में चेतना उत्पन्न हो जाती है फिर उस चेतना से पंचमहाभूत बनते है जिसे ज्योति स्वरूप ब्रह्म कहते है सम्पूर्ण शरीर के होने का एहसास होता है फिर मनुष्य कर्म क्रिया प्रतिक्रिया करता है संसार में। अगर सोता है तो मनुष्य ज्योति स्वरूप ब्रह्म चेतना अर्थात व्याकृत ब्रह्म मे समा जाता है फिर वह नाद ब्रह्म में समा जाता है फिर वह नाद ब्रह्म अव्याकृत ब्रह्म समा जाता है वह अव्याकृत ब्रह्म प्राण ऊर्जा अर्थात ब्रह्म में समा जाता है इसलिए मनुष्य ही ब्रह्म है।
ब्रह्म को मन से जानने कि कोशिश करने पर मनुष्य योग माया वश उसे परम् ब्रह्म की परिकल्पना करता है और संसार में खोजता है तो अपर ब्रह्म जो प्राचीन प्रार्थना स्थल की मूर्ति है उसे माया वश ब्रह्म समझ लेता है अगर कहा जाऐ तो ब्रह्म को जाने की कोशिश करने पर मनुष्य माया वश उसे परमात्मा समझ लेता है।
ब्रह्म जब मनुष्य गहरी निद्रा में रहता है तो वह निर्गुण व निराकार ब्रह्म में समा जाऐ रहता है और जब जागता है तो वह सगुण साकार ब्रह्म में होता है अर्थात यह विश्व ही सगुण साकार ब्रह्म है । अर्थात सृष्टि में जड़ – चेतन स्वरूप में वह व्यक्त ब्रह्म है और आत्मा के स्वरूप में अव्यक्त ब्रह्म है। व्यक्त ब्रह्म भी स्थूल, सूक्ष्म और अदृश्य स्वरूप में है, जो आंखों से दिखे वह स्थूल, जो आंखों से नही दिखे किंतु है, जैसे जीवाणु सूक्ष्म एवम जो नही दिखे पर महसूस हो, जैसे वायु, आकाश आदि अदृश्य स्वरूप में व्यक्त ब्रह्म है, ऐसा जानो।
ब्रह्म मनुष्य है सभी मनुष्य उस ब्रह्म के प्रतिबिम्ब अर्थात आत्मा है सम्पूर्ण विश्व ही ब्रह्म है जो शून्य है वह ब्रह्म है मनुष्य इस विश्व की जितना कल्पना करता है वह ब्रह्म है । ब्रह्म स्वयं की भाव इच्छा सोच विचार है । ब्रह्म सब कुछ है और जो नहीं है वह ब्रह्म है ।
श्री कृष्ण चरितामृतम की यह पंक्तियां ब्रह्म के स्वरूप को उजागर करती है।
परस्पर जुड़े हुए तारों में से किसी एक पर भी स्वर लहरी का उदय हो जाए तो अन्य तार भी झंकृत हो ही उठते हैं …..ऐसे ही वात्सल्यमयी स्नेह से सनी प्रेमिन गोपियों के हृदय तन्तु पर श्रीकृष्ण, और उनकी लीलाएँ झंकृत हो उठीं हैं । तात ! पहले स्वर मात्र था ……..फिर संगीत प्रकट होनें लगा ……अब तो तालबन्ध में इन गोपियों के आगे कन्हैया नाचता है…….और ये आभीर कन्याएं नचाती हैं……..
“बृज” शब्द आज सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड में गूँज रहा है…….विदुर जी ! बृज का अर्थ होता है…….बृ , मानें ब्रह्म और र , मानें रज…….ये ब्रह्म का रज है …….बृज ।
ब्रह्म नाचता है यहाँ ……ब्रह्म उन्मुक्त खेलता है यहाँ…….ब्रह्म चुराता है यहाँ…….ब्रह्म छेड़ता है यहाँ……किसे ? विदुर जी नें हँसते हुए पूछा । उद्धव ! किसी और की वस्तु चुराता है …..किसी और को छेड़ता है ?
नही……..ये लीला स्वयं के लिये है……और स्वयं से है ।
न बृज अलग है ब्रह्म से……..न गोपियाँ अलग हैं …………
ये तो इतनी निर्दोष लीला है ……जैसे – छोटा सा बालक अपने प्रतिबिम्ब से खेलता है……ऐसे ही ये सब ब्रह्म की बिम्ब ही तो हैं ।
लीला है ये …….उस लीला धारी की………और लीला का कोई उद्देश्य नही होता तात ! बस अपनें आनन्द की अभिव्यक्ति ही मात्र है ये ।
वो आनन्द रूप है……..उसका स्वरूप आनन्द है ……..उसके परिकर आनन्द हैं …….वो आनन्द से ही निर्मित है ………..आहा !
“परब्रह्म” का शाब्दिक अर्थ है ‘सर्वोच्च ब्रह्म’ – वह ब्रह्म जो सभी वर्णनों और संकल्पनाओं से भी परे है। अद्वैत वेदान्त का निर्गुण ब्रह्म भी परब्रह्म है। वैष्णव और शैव सम्प्रदायों में भी क्रमशः विष्णु तथा शिव को परब्रह्म माना गया है।
वास्तव में केवल इतनी परिभाषा ही सम्भव हो सकती हे क्योंकि समस्त जगत ब्रह्म के अंतर्गत माना गया हे मन विचार बुद्धि आदि ! उत्तम से अतिउत्तम विचार, भाव, वेद, शास्त्र मंत्र, तन्त्र, आधुनिक विज्ञान, ज्योतिष आदि किसी भी माध्यम से उसकी परिभाषा नहीं हो सकती! वह गुणातीत, भावातीत, माया, प्रक्रति और ब्रह्म से परे और परम है। वह एक ही है दो या अनेक नहीं है। मनीषियों ने कहा है कि ब्रह्म से भी परे एक सत्ता है जिसे वाणी के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। वह सनातन है, सर्वव्यापक है, सत्य है, परम है। वह समस्त जीव निर्जीव समस्त अस्तित्व का एकमात्र परम कारण सर्वसमर्थ सर्वज्ञानी है। वह वाणी और बुद्धि का विषय नहीं है उपनिषदों ने कहा है कि समस्त जगत ब्रह्म पर टिका हे और ब्रह्म परब्रह्म पर टिका है।
ब्रह्म का वो रूप है, जो निर्गुण और अनन्त गुणों वाला भी है। वेदों में उसे नेति -नेति (ऐसा भी नहीं -ऐसा भी नही) कहा है। यद्यपि “नेति-नेति” कर के इस के गुणों का खण्डन किया गया है, पर ये असल में अनन्त सत्य, अनन्त चित और अनन्त आनन्द है। अद्वैत वेदान्त में उसे ही परमात्मा कहा गया है, ब्रह्म ही सत्य है, बाकि सब मिथ्या है। वह ब्रह्म ही जगत का नियन्ता है। परन्तु अद्वैत वेदांत का एक मत है इसी प्रकार वेदांत के अनेक मत है जिनमें आपसी विरोधाभास है परंतु अन्य पांच दर्शन शास्त्रों मेंं कोई विरोधाभास नहीं | वहींं अद्वैत मत जिसका एक प्रचलित श्लोक नीचे दिया गया है।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रम्हैव नापरः (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या (झूठ) है।)
अपरब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जिसमें अनन्त शुभ गुण हैं। वो पूजा का विषय है, इसलिये उसे ही ईश्वर माना जाता है। अद्वैत वेदान्त के मुताबिक ब्रह्म को जब इंसान मन और बुद्धि से जानने की कोशिश करता है, तो ब्रह्म माया की वजह से ईश्वर हो जाता है।
।। हरि ॐ तत् सत् ।। गीता विशेष 13.18 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)