।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.17 II Additional II
।। अध्याय 13.17 II विशेष II
।। सत्य का स्वरूप ।। विशेष 13.17 ।।
महाभारत में अज्ञेय या ब्रह्म के स्वरूप को सत्य भी बताया है। सत्य के लक्षण बताते हुए कहा है कि सत्य वही है कि जो अव्यय है अर्थात जिस का कभी नाश नही होता, जो नित्य है अर्थात सदा सर्वदा बना रहता है, और अविकारी है अर्थात जिस का स्वरूप कभी बदलता नहीं।
आंखों देखी या कानो सुनी या स्पर्श, गंध एवम स्वाद से किसी का ज्ञान हो वो इंद्रियाओ से प्राप्त तथ्य मन द्वारा, बुद्धि द्वारा समझा ज्ञान है। यह आज है तो कल बदल सकता है। इसलिये सत्य का ज्ञान नही हो सकता। इंद्रियों, मन और बुद्धि से ग्रहण किए गए ज्ञान में समय, स्थान, स्थिति, मानसिक विकास आदि आदि की सीमाएं होती है, यह सीमाएं काल के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। हम ने जिसे बचपन में देखा हो, तो उस की जो छवि हमारे मन में अंकित रहती है, वह कुछ समय के बाद उस से मिलने पर बदल जाती है। इस को काल कृत सत्य कहते है।
सोने का आभूषण आज देखा वो आज सत्य है, कल उस को गला कर दूसरा बना दिया तो वो सत्य है। किंतु आभूषण में सोना दीर्घ कालीन कालकृत सत्य है। इसलिये मिथ्या या नाशवान शब्द का प्रयोग इन के लिये किया जाता है।
इस काल कृत सत्य को हम विभिन्न नामो से व्यक्त रूप में सत्य प्रतिपादित करते रहते है किंतु यह कोई भी तत्व अपने आप मे नित्य नही है। विभिन्न नाम रूप के सत्य के मूल तत्व को यदि हम खोजते जाएंगे तो हम उस परमतत्व तक पहुँच जाएंगे जो अव्यक्त एवम नित्य है, जिस से इन सब व्यक्त विभिन्न स्वरुप का निर्माण हुआ है। इसलिये परमात्मा को सभी व्यक्त पदार्थो में अव्यक्त माना गया है, चाहे वो चर हो या अचर। चाहे वो ज्ञान इंद्रियाओ से पता लगाया जा सके या नही। यह सभी तत्व का उद्गम, विकास, एवम नाश होता रहेगा किन्तु वो परमतत्व की सत्य स्वरूप के बना रहेगा।
जिसे सच्चे ब्रह्म स्वरूप का पता करना हो उस के लिये यह कथा है जो छान्दोग्य उपनिषद में वर्णित है।
नारद ऋषि सनत्कुमार अर्थात स्कंद के यहाँ जा कर कहने लगे, कि मुझे आत्मज्ञान बतलाओ, तब सनत्कुमार बोले कि “पहले बतलाओ, तुम ने क्या सीखा है, फिर बतलाता हूँ।”
इस पर नारद ऋषि ने कहा कि ” मैंने इतिहास-पुराण रूपी पांचवे वेद सहित ऋग्वेद, प्रभृति समग्र वेद, व्याकरण, गणित, तर्क शास्त्र, कालशास्त्र, नीति शास्त्र, सभी वेदांग, धर्म शास्त्र, भूत विद्या, क्षेत्र विद्या, नक्षत्र विद्या और सर्पदेवजन विद्या प्रभृति सब कुछ का अध्ययन किया है, परंतु जब इससे आत्मज्ञान नही हुआ, तब अब तुम्हारे यहां आया हूँ।’
इस को सनत्कुमार ने यह उत्तर दिया, कि ” तूने जो कुछ सीखा , वह तो सारा नाम रूपात्मक है; सच्चा ब्रह्म इस नाम ब्रह्म से बहुत आगे है।” और फिर नारद को क्रमशः इस प्रकार पहचान करा दी, की नाम-रूप से अर्थात सांख्यों की अव्यक्त प्रकृति से अथवा वाणी, आशा, संकल्प, मन, बुद्धि (ज्ञान) और प्राण से भी परे एवम इन से बढ़ चढ़ कर जो है जो है वही परमात्मारूपी अमृत तत्व है।
इंद्रियाओ को नाम रूप के अतिरिक्त और किसी का भी प्रत्यक्ष ज्ञान नही होता है, तो भी इस अनित्य नाम रूप के आच्छादन से ढका हुआ लेकिन आंखों से न देख पढ़ने अर्थात कुछ न कुछ अव्यक्त नित्य द्रव्य रहना ही चाहिये; और इसी कारण सारी सृष्टि का ज्ञान हमे एकता से होता है। जो कुछ ज्ञान होता है, सो आत्मा को ही होता है, इसलिये आत्मा ही ज्ञाता यानि जानने वाला हुआ। और इस ज्ञाता को नाम रूपात्मक सृष्टि का ही ज्ञान होता है; अतः नाम रूपात्मक बाह्य सृष्टि ज्ञान हुआ और इन नाम रूपात्मक सृष्टि के मूल में जो कुछ वस्तुतत्व है , वो ज्ञेय है। इसी वर्गीकरण को मान कर भगवदगीता ने शरीर को क्षेत्र, ज्ञाता को क्षेत्रज्ञ आत्मा और ज्ञेय को इन्द्रियातीत नित्य परब्रह्म कहा है और फिर आगे ज्ञान के तीन भेद करके कहा है कि भिन्नता या नानात्व से जो सृष्टि ज्ञान होता है वह राजस है, तथा इस नानात्व का जो ज्ञान एकत्वरूप से रूप से होता है वो सात्विक ज्ञान है।
अतः गाय, घोड़े आदि प्रभृति को हम देखते है वो ज्ञान तो है ही, किन्तु यह प्राकृतिक ज्ञान है, आत्मा का नहीं। इसलिये अनित्य है।
इसलिए गीता में सर्वप्रथम क्षेत्र को बताया गया, फिर ज्ञान के 20 तत्व को बताया गया। ज्ञान के बीस तत्व के पश्चात क्षेत्र से तुलनात्मक ज्ञेय शब्द को परिभाषित करने के लिए पांच श्लोक में ज्ञेय को स्पष्ट करते हुए यह भी बताया गया, कि परब्रह्म क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ के ज्ञेय तत्व से भी परे का अविभक्त तत्व है, जो सृष्टि के प्रारंभ से पहले से ही था। अतः ज्ञान बीस गुणों में निहित आमित्व, अहिसा, अनासक्ति, समबुद्धि आदि है, ज्ञान से ज्ञेय तत्व को जाना जा सकता है, जो ज्ञेय तत्व को जान सकता है, वही परब्रह्म को प्राप्त कर सकता है, परब्रह्म को जाना नहीं जा सकता, क्योंकि वहां द्वैत है ही नही।
अहम ब्रह्मास्मि का बोध हो तो भी यह माना क्या है जीव का ब्रह्म से पृथक होते समय जो प्रथम तत्व जुड़ा था, वह महंत था, जिस से उसे मैं का बोध हुआ और उस में अपने को अकेला पाया। अतः अपने लिए उस ने संकल्प लिया, जिस के विकल्प में सृष्टि की रचना हुई। अर्थात संपूर्ण सृष्टि संकल्प का विकल्प है, इस लिए इस का कोई अस्तित्व नहीं है, अतः माया और अनित्य है। अतः ब्रह्मसंथ जब अहम ब्रह्मास्मी का बोध करता है, तो उस के और परब्रह्म में यह महंत होता है। और महंत के मिटने से न बोध रहता है और न ही ब्रह्मसंथ, वहां सिर्फ परब्रह्म है। यही अद्वैत भी है।
श्री वसिष्ठजी कहते हैं–
ब्रह्म में जगत का अध्यारोप, जीव और जगत के रूप में ब्रह्म की ही अखण्ड सत्ता —
‘ रघुनन्दन ! जैसे सुषुप्ति ही स्वप्नवत प्रतीत होती है , उसी प्रकार ब्रह्म ही इस सृष्टि के रूप में प्रतीति का विषय हो रहा है । एक पुरुष की वासना-मात्र का कार्य होने से स्वप्न की सुदृढ़ प्रतीति नहीं होती है ; परन्तु यह प्रपंच समष्टि की वासना का कार्य होने के कारण इसकी सुदृढ़ एवं क्रमबद्ध प्रतीति होती है । सर्वात्मक ब्रह्म ही इस प्रपंच का अधिष्ठान है । ब्रह्म का सत्तामात्र रूप ही यह सम्पूर्ण विश्व है ।।’
‘ पंचभूतों की जो तन्मात्रायें हैं , वे ही जगत के बीज हैं । पंचमात्राओं का बीज आदि मायाशक्ति है , जिसका परमात्मा से साक्षात सम्बन्ध है तथा वही जगत की स्थिति में हेतु है । इस प्रकार वह चिन्मय , अजन्मा एवं सबका आदिभूत परमात्मा ही माया द्वारा जगत का बीज होता है । माया के हट जानेपर वही अपने विशुद्ध रूप से सदा अनुभव में आता है । इसलिए यह जगत -वैभव चिन्मय परमात्मरूप ही है ।। ‘
महाभारत में इसे ही सत्य के रूप में निरूपण किया है। इसे हम और आगे आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – विशेष 13.17 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)