।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.17 II
।। अध्याय 13.17 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.17॥
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥
“avibhaktaḿ ca bhūteṣu,
vibhaktam iva ca sthitam..।
bhūta-bhartṛ ca taj jñeyaḿ,
grasiṣṇu prabhaviṣṇu ca”..।।
भावार्थ:
वह परमात्मा सभी प्राणीयों में अलग-अलग स्थित होते हुए भी एक रूप में ही स्थित रहता है, यद्यपि वही समस्त प्राणीयों को ब्रह्मा-रूप से उत्पन्न करने वाला है, विष्णु-रूप से पालन करने वाला है और रुद्र-रूप से संहार करने वाला है। (१७)
Meaning:
And undivided, yet it exists as though divided in all beings. That, which is to be known, is the nourisher of beings. It is the devourer, and it is the creator also.
Explanation:
Shri Krishna continues to elaborate upon the topic of jneyam, that which is to be known, which is brahman, the eternal essence. Here he further describes the distortion created by upaadhis or conditionings in our understanding of the eternal essence. He begins by asserting that the eternal essence is undivided, it is unbroken and continuous. It cannot be chopped up into pieces. But due to the effect of space as an upaadhi, it appears as if the eternal essence exists differently in various beings.
God may appear to be divided amongst the objects of His creation, but since He is all that exists, He remains undivided as well. For example, space may seem to be divided amongst the objects that it contains. Yet, all objects are within the one entity called space, which manifested at the beginning of creation. Again, the reflection of the sun in puddles of water appears divided, and yet the sun remains indivisible.
Just as the ocean throws up waves and then absorbs them back into itself, similarly God creates the world, maintains it, and then absorbs it back into Himself. Therefore, He may be equally seen as the Creator, the Maintainer, and the Destroyer of everything.
We can go back to the example of the clay pot and space. If we have a hundred pots on the floor, it appears as though the space in the room is divided into a hundred “pot- spaces”, due to the boundary created by the wall of each pot. But in reality, space can never be divided or chopped up. Or we can also look at the example of electricity, which looks like it functions differently in each appliance, but is really one continuous circuit that begins at the power plant. If our senses cannot access upaadhis such as pots or appliances, they mistakenly assume that subtle things such as space and electricity are absent. Similarly, the body of a living entity serves as an upaadhi where we can feel the presence of the eternal essence.
So if there is only one continuous and undivided eternal essence, how do we account for all of the creation, sustenance, and destruction of names and forms in the universe? Shri Krishna says that ultimately, it is the eternal essence that provides the foundation for the lifecycle of the universe. Waves are created, sustained and dissolved back into the ocean. If we pay attention to the waves, we lose sight of the ocean that is one undivided foundation which is behind all of the waves. We come back to the same point again: the eternal essence provides existence, the “is-ness”, to all names and forms in the universe.
Now, if the eternal essence cannot be comprehended by the senses, is it dark and empty like a black hole? This is clarified in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
श्रीमद्भागवतम् में ऐसा वर्णन है; द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च। वासुदेवात्परो ब्रह्मन्न चान्योऽर्थोऽस्ति तत्त्वतः।।(श्रीमद्भागवतम्-2.5.14)
“सृष्टि के विभिन्न पहलू-काल, कर्म, जीवों की प्रकृति और सृष्टि के सभी भौतिक पदार्थ सब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं। सृष्टि में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनसे विलग हो।”
भगवान अपनी सृष्टि के पदार्थों के बीच विभाजित प्रतीत होते हैं लेकिन फिर भी वे सभी के अस्तित्त्वों में स्थित हैं और उसी प्रकार से वे अविभाजित रहते हैं। उदाहरणार्थ अंतरिक्ष अपने में निहित पदार्थों में विभाजित प्रतीत होता है किन्तु एक ही सत्ता के भीतर सभी पदार्थों को अंतरिक्ष कहते हैं जो कि सृष्टि के आरम्भ में प्रकट हुआ। पुनः जल में सूर्य का प्रतिबिंब अस्थिर दिखाई देता है और जबकि सूर्य अविभाजित रहता है। जैसे समुद्र से लहरें निकलती हैं और फिर उसी में वापस विलीन हो जाती हैं। इस प्रकार से भगवान संसार की रचना करते हैं, उस का पालन करते हैं और बाद में उसको अपने में वापस लीन कर लेते हैं। इसलिए वे समान रूप से सबके सृजक, पालन कर्ता और संहारक के रूप में दिखाई देते हैं।
प्रस्तुत श्लोक इस बात की पुष्टि करता है बाहर जन्म और भीतर जागृति, बाहर पालन और भीतर योगक्षेम का निर्वाह, बाहर शरीर मे परिवर्तन और भीतर सर्वस्व का विलय अर्थात भूतों की उत्पत्ति के कारणों का लय और उस लय के साथ ही अपने स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। यह सब उसी ब्रह्म के लक्षण है।
ज्ञेय को समझने के लिए क्षेत्र की सीमाएं से परे हम ने क्षेत्रज्ञ को पढ़ा। अब उस के स्वरूप का अध्ययन करते है। क्षेत्रज्ञ अपरिवर्तन शील है, वह विभिन्न स्वरूप में, समय और स्थान के अनुसार दिखता है, किंतु वह एक ही है। ध्यान दीजिए, जो बचपन में आप थे, वही युवा में है, वही वृद्ध अवस्था में होंगे। तीनों अवस्था में जो मैं है, वह नही बदलता। जो एक पशु में, एक व्यक्ति में, महिला में, डॉक्टर में, शिक्षक में, व्यापारी में, भिक्षुक में दिखता है, वह आकार, स्वभाव, कार्य, कर्म, अवस्था में भिन्न भिन्न दिखता है, वह आत्मस्वरूप में एक ही है। जो विष्णु, शिव, ब्रह्मा, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा में अलग अलग शक्ति और कार्य में सृष्टि की रचना, पालन और संहार करता अलग अलग हमे हमारी श्रद्धा, विश्वास और प्रेम से अलग अलग दिखता है, वह अलग अलग होते हुए भी एक है।
वह ज्ञेय प्रत्येक शरीर में आकाश के समान अविभक्त और एक है। तो भी समस्त प्राणियों में विभक्त हुआ सा स्थित है क्योंकि उस की प्रतीति शरीरों में ही हो रही है।
गीता में अद्वेत सिंद्धान्त ही प्रतिपाद्य है, कि नाना रूपात्मक माया भ्रम है और उस मे रहने वाला ब्रह्म ही सत्य है। ” अविभक्तत्वम वीभक्तेषु ” अर्थात नानात्व में एकत्व देखना सात्विक ज्ञान का लक्षण है।
अविभक्तम में इंद्रियां हमे किसी वस्तु का ज्ञान कराती हैं, किन्तु उस के गुण एवम उपयोग का ज्ञान मन करता है। मिट्टी गीली-सूखी या अन्य प्रकार की हो सकती है किंतु इस को मन अपने ज्ञान एवम संस्कार के संग्रह से यह ज्ञात करता है कि गीली मिट्टी का कौन से प्रकार है एवम उस का क्या रूप, रंग, गन्ध,आकार एवम उपयोगिता आदि क्या है जिस से वह उसे अलग अलग नाम देती है। यही मिट्टी एक तत्व का विभक्त रूप है। इंद्रियां को इस का ज्ञान नही है, उपयोगिता का तो बिल्कुल भी नही। अतः यह मन मे जो तत्व विवेचन करता है वो ब्रह्म ही है।
यही तत्व जब विभिन्न जीव के रूप हमारे सामने होता है तो हम उस जीव की संरचना से उसे विभक्त कर पशु, पक्षी एवम मनुष्य यहां तक कि मनुष्य में भी विभक्त कर के विभिन्न नाम देते है, किन्तु सभी मे ब्रह्म तत्व एक ही है।
अतः ज्ञान वही है जो हमे विभक्त में अविभक्त तत्व का बोध कराए। कोई भी गुण ले, उस के नाम अनेक हो सकते है, उन में परिवर्तन भी होता रहेगा। इंद्रियां अपनी सीमितता के कारण उस को परिवर्तित रूप में ही देख सकती है, किन्तु मन-बुद्धि ज्ञान से ही उस के मूल तत्व को पहचान सकते है। जैसे सोना एवम उस के विभिन्न आभूषण में मूल तत्व सोना को पहचानना।
अपने स्कूल का ग्रुप फ़ोटो देखो तो सभी छात्र अविभक्त रूप में छात्र है, इंद्रिया यदि छात्र को दिखाती है तो मन अपने संग्रह एवम संस्कार से उस छवि को जांच कर के बुद्धि को बताता है और बुद्धि उसे विभक्त कर के आप को, आप के दोस्तो को विभिन्न नाम रूप में पहचानती है। ज्ञान इसी को अविभक्त ब्रह्म को पहचानता है और मन एवम बुद्धि उसे विभक्त स्वरूप में विभिन्न नाम रूप में।
अतः वेदान्त शास्त्र में इंद्रियाओ से गोचर होने वाले नाम रूप तत्व को मिथ्या या नाशवान एवम मूलतत्व को सत्य माना है।
जिस प्रकार एक तरंग का दूसरी तरंग से भेद है परंतु जल से किसी का भी भेद नही, इसी प्रकार ये पृथक पृथक भूत अपने सम्बन्ध से उस परब्रह्म को किसी प्रकार विभक्त नही कर सकते। जिस प्रकार स्वप्न्न प्रपंच अपने सम्बन्ध से जाग्रत आकाश में कोई विभाग नहीं कर सकता, इसी प्रकार सब भूत अपने सम्बन्ध से उस में कोई विभाग नहीं कर सकता। अतः वह परब्रह्म वस्तु परिच्छेद से रहित कथन किया गया है।
शरीर मे यह तत्व अवस्था के साथ परिवर्तित नहीं है एवम बाल्यावस्था, युवावस्था एवम वृद्धावस्था में यह अभिन्न रूप से विद्यमान रहता है। अन्य उदाहरण में आकाश तत्व भी प्रातः, दोपहर या शाम या किसी भी पहर में आकाश ही रहता है उस के स्वरूप के परिवर्तन से आकाश नहीं परिवर्तित होता है, वैसे ही ब्रह्म भी स्थिर एवम अपरिवर्तन शील है।
जिस प्रकार मिथ्या व कल्पित सर्प दंडादि की उत्पत्ति, स्थिति व लय रज्जू के आश्रय ही सिद्ध होता है और रज्जु उन के आदि, मध्य व अंत मे ज्यों की ज्यों रहती है। इसी प्रकार भूतों के आदि, मध्य व अंत मे अचल रूप से स्थित है और भूत, भविष्य व वर्तमान त्रिकालव्यापी सिद्ध है। अतः वह काल परिच्छेद से भी रहित है।
वह ज्ञेय स्थिति काल में भूतभर्तृ – भूतों का धारण पोषण करने वाला, प्रलयकाल में ग्रसिष्णु – सब का संहार करने वाला और उत्पत्ति के समय प्रभविष्णु – सब को उत्पन्न करने वाला है, जैसे कि मिथ्याकल्पित सर्पादि के ( उत्पत्ति, स्थिति और नाश के कारण ) रज्जु आदि होते हैं। क्योंकि परमात्मा ही सब की उत्पत्ति करने वाला, सब का धारण पोषण करने वाला एवम जगत का संहार करने वाला है, इसलिये वह ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव है।
व्यवहार में कोई भी वस्तु में भेद को उस के गुण, उपयोगिता, आकार, स्थिति, स्थान, स्थिरता के अनुसार भेद रूप में समझते हुए, हमे यह बात हमेशा समझ जानी चाहिए, मूलत: इन सब में भेद क्षेत्र के अनुसार है, क्षेत्रज्ञ इन सब में विभक्त होते हुए भी अविभक्त है। क्षेत्र तत्व का आधार 24 तत्व होते है, वह प्राकृतिक नियम से भोजन ग्रहण करते है, संतानोत्पत्ति करते है, जन्म, क्षय और मृत्यु को प्राप्त होते है। किंतु उन सब में स्थित जीव एक ही ब्रह्म का विभक्त स्वरूप है, वह विभक्त होते हुए भी, पूर्ण अविभक्त ब्रह्म है। व्यक्त सृष्टि को क्षेत्र और अव्यक्त (अक्षर) सृष्टि को ब्रह्म के नाम से कहते हुए भी यद्यपि दोनो को एक ही ब्रह्म कहा गया है, तो भी वास्तविक परब्रह्म तत्व इस से भी परे अर्थात पूर्णतः अज्ञेय बताया गया है, इस को हम आगे नासदीय सुक्तो में पढ़ कर समझेंगे। यहां गीता में इसे भूतभृन्न च भूतस्थ, फिर आगे पुरुषोत्तम योग में स्पष्ट किया गया है।
ईशावास्य उपनिषद् में विभक्तम -अविभिक्तम को पूर्ण का स्वरूप देते हुए कहा गया है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
अर्थ : अर्थात वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।
अर्थात ब्रह्म विभक्त होते हुए भी, अविभक्त है। सामान्यतय: कोई भी वस्तु को हम विभक्त करते है तो मूल वस्तु का वह अंश कम हो जाता है, किंतु ब्रह्म हमेशा अंश रूप में और मूल रूप में अविभक्त अर्थात पूर्ण ही रहता है।
यहां हम ने ज्ञेय और अज्ञेय तत्त्व का आधाररूप से वर्णन पढ़ा, किंतु परब्रह्म उस से आगे है, तो वह कैसा होगा, अब आगे के श्लोक में उसका प्रकाशक रूप से वर्णन पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। 13.17।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)