।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.16 II
।। अध्याय 13.16 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.16॥
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥
“bahir antaś ca bhūtānām,
acaraḿ caram eva ca..।
sūkṣmatvāt tad avijñeyaḿ,
dūra- sthaḿ cāntike ca tat”..।।
भावार्थ:
वह परमात्मा चर-अचर सभी प्राणीयों के अन्दर और बाहर भी स्थित है, उसे अति-सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा नही जाना जा सकता है, वह अत्यन्त दूर स्थित होने पर भी सभी प्राणीयों के अत्यन्त पास भी वही स्थित है। (१६)
Meaning:
Existing outside and inside all beings, moving as well as non-moving. It is very subtle, so it is beyond comprehension. It is distant, yet it is near.
Explanation:
There is a Vedic Mantra that describes God in practically the same manner as Shree Krishna has described here:
tad ejati tan naijati taddūre tadvantike । tad antar asya sarvasya tadusarvasyāsya bāhyataḥ ।। (Īśhopaniṣhad mantra 5)
“The Supreme Brahman does not walk, and yet He walks; He is far, but He is also near. He exists inside everything, but He is also outside everything.”
Previously in verse 13.3, Shree Krishna said that to know God is true knowledge. However, here He states that the Supreme Entity is incomprehensible. This again seems to be a contradiction, but what He means is that God is not knowable by the senses, mind, and intellect. The intellect is made from the material energy, so it cannot reach God who is Divine. However, if God Himself bestows His grace upon someone, that fortunate soul can come to know Him.
As Shri Krishna lists the indicators of the eternal essence, we may be tempted to start looking for it with our eyes, just like we look for a lost object in the house. However, we need to continuously remind ourselves that the eternal essence is neither an object nor a concept that can be grasped by the mind. Shri Krishna uses the Upanishadic style of describing the eterna essence through contradictions and paradoxes in this sequence of shlokas, and especially in the current shloka.
The first contradiction mentioned is that the eternal essence is both inside and outside all inert and living entities. This point cautions us against conceptualizing the eternal essence as limited by space, as if it is only available in one location and not the other. A somewhat crude analogy is mobile phone signals, which are essentially radio waves. Radio waves are all- pervasive, and they penetrate all solid objects, enabling us to make phone calls from inside as well as outside buildings.
The second contradiction is that the eternal essence is to be known as the ultimate knowledge, yet it is beyond comprehension, due to its subtle nature. Using the radio waves analogy, we can say that none of our senses can detect radio waves. But if we know how to build a device that can access radio waves, we can harness their power to our advantage. Similarly, the eternal essence remains beyond the comprehension of those who have not purified their mind. But for those who have purified their mind and followed a systematic method of enquiry under the guidance of scriptures and a teacher, it is ever accessible.
This leads us to the third contradiction. For those who have enquired about the nature of the eternal essence systematically, it is immediately available at all times as the self, the “I” within us. But for those who are ignorant, it is far away. Shankaracharya says that it is unattainable even in millions of years for such people. Whenever we focus on names and forms, we lose sight of the self. But when we remove the upaadhis of names and forms, we come back to the self, the “I”, that is behind all the names and forms, just like the movie screen.
Note that any time we use analogies such as radio waves, we are trying to conceptualize the eternal essence which is beyond all conception. We need to consider such analogies as helpful pointers, and nothing more.
।। हिंदी समीक्षा ।।
जैसाकि श्रीकृष्ण ने यहाँ वर्णन किया है उसी प्रकार से एक वैदिक मंत्र में भी भगवान के एक विशिष्ट रूप का वर्णन इस प्रकार से किया गया है
तदेजति तन्नैजति तद्रे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ।। (ईशोपनिषद मंत्र-5)
“परम ब्रह्म चल नहीं सकता फिर भी दौड़ता है। वह दूर है लेकिन वह निकट भी है। वह सभी के भीतर स्थित है लेकिन वह सबके बाहर भी स्थित है।” इस अध्याय के तीसरे श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह कहा था कि भगवान को जानना ही वास्तविक ज्ञान है। किन्तु यहाँ वे कहते हैं कि परमात्मा समझ से परे है। यहाँ पुनः विरोधाभास प्रतीत होता है लेकिन उनके कथन का अर्थ यह है कि भगवान को इन्द्रियों, मन और बुद्धि द्वारा नहीं जाना जा सकता। परन्तु यदि भगवान किसी पर अपनी कृपा करते हैं तब वह भाग्यशाली आत्मा उसे जान सकती है।
सम्पूर्ण सृष्टि की रचना प्रकृति- पुरुष द्वारा मानी गयी है। प्रकृति के अष्टधा तत्व पंच महाभूत एवम मन, बुद्धि एवम अहंकार से समस्त प्राणी विभिन्न गुण धर्म से बने है, गीता का मानना के प्रकृति के त्रियामी गुण सत-रज-तम चेतन स्वरूप में अलग अलग मात्रा में विद्यमान है। प्रकृति परमब्रह्म से ही उत्पन्न है इसलिये क्षेत्रज्ञ तत्व सभी चर- अचर प्राणियों में विद्यमान है। इसे हम इस प्रकार भी सरल भाषा में कह सकते है कि क्षेत्र नाशवान है, वह काल के अनुसार बनता और मिटता रहता है, किंतु क्षेत्रज्ञ उस की चर और अचर दोनो अवस्था में बना रहता है। वह तब भी था, जब शरीर नही था, वह तब भी है, जब शरीर अर्थात क्षेत्र है और वह तब भी रहेगा जब क्षेत्र अर्थात शरीर नही रहेगा।
जिस प्रकार समुद्र में बर्फ का पहाड़ तैरता है उस को देखते हुए यही कहा जाता है समुद्र चारो ओर है, वह बर्फ के पहाड़ के बाहर और अंदर अपने जल तत्व से व्याप्त है।
जिस प्रकार, जहाँ रेडियो है वहाँ ध्वनि तरंगों का अस्तित्व स्पष्ट ज्ञात होता है, परन्तु जहाँ रेडियो नहीं है, वहाँ उन तरंगों का अभाव नहीं कहा जा सकता। वह चर है और अचर भी जो अपनी स्वेच्छा से विचरण करता रहता है, वह चर प्राणी है, तथा गतिहीन वस्तु अचर वर्ग में आती है। इस वाक्य का अर्थ इस प्रकार भी किया जाता है कि आत्मतत्त्व अचर होते हुये भी चर है इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा सर्वव्यापी होने से स्वस्वरूप की दृष्टि से अचर है, परन्तु वही आत्मा गतिमान् उपाधियों से अवच्छिन्नसा होकर चरवत् प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ, किसी गतिमान वाहन में कोई व्यक्ति स्वयं अपने स्थान पर बैठा हुआ (अचर) ही मीलों लम्बी यात्रा तय कर लेता है इस प्रकार, हमारे व्यक्तित्व का सारभूत तत्त्व एक, सनातन व परिपूर्ण है जो अन्तर्बाह्य सर्वत्र व्याप्त है। उसके बिना कोई भी क्रिया संभव नहीं है, इसलिये वह सभी क्रियाओं में विद्यमान है। वह सत्स्वरूप से सर्वत्र ही स्थित है।
अचर वस्तु की गति, आकार, स्थान, परिवर्तन आदि अनेक गुण है, उन्हें जो निर्धारित करता है, इसलिये उस मे यह परम तत्व माना गया है।
परमात्मा के अव्यक्त स्वरूप तीन प्रकार से वर्णित किया गया है, अर्थात सगुण, सगुण- निर्गुण और अंत मे केवल निर्गुण। इन तीनो में से जो सगुण- निर्गुण अर्थात उभयात्मक रूप है, वह सगुण से निर्गुण में अथवा अज्ञेय में जाने की सीढ़ी या साधन है। क्योंकि पहले सगुण रूप का ज्ञान होने पर ही, एक एक गुण धीरे धीरे त्याग करने से, निर्गुण स्वरूप का अनुभव हो सकता है और इसी रीति से ब्रह्म प्रतीक की चढ़ती हुई उपासना उपनिषदों में बतलाई गई है।
एक ही परमेश्वर के परस्पर विरोधी दो स्वरूप सगुण और निर्गुण कैसे हो सकते है? माना जाता है जब अव्यक्त परमेश्वर व्यक्त रूप या इन्द्रिय गोचर रूप धारण करता है तो यह उस की माया है।
यही चित्त स्वरूपी ब्रह्म जब माया में प्रतिबिम्ब होता है तब सत्व-रज-तम गुणमयी प्रकृति का निर्माण होता है। आगे माया के माया एवम अविद्या दो भाग किये गए। यह माया सत्व गुण से युक्त है तो व्यक्त ईश्वर है और रज या तम गुण से युक्त है तो अविद्या है। यह अविद्या ही जीव है जो जब तक रज- तम गुण से मुक्त नहीं होता, तब तक व्यक्त ईश्वर नही है। माया से समस्त अष्टधा प्रकृति अर्थात समस्त विभूतियां उत्पन्न हुई है और अविद्या से जीव इस अष्टधा प्रकृति में मोहित है, इसलिये अज्ञान में है।
इस संसार मे मनुष्य मात्र का नैतिक कर्तव्य यही है, कि वह किसी प्रकार के क्षणिक सुख में न फस कर वर्तमान एवम भावी मनुष्य जाति के चिरकालिक कल्याण की अर्थात अमृतत्व के लिये भौगोलिक सुविधाओ का उपयोग करे।
ऐसे ही जब हम कर्म करते हुए किसी वस्तु का संग्रह करते है तो उस का उपयोग आने वाली पीढ़ी भी कर सके, यह ध्यान रखते हुए करते है।
यह प्रवृत्ति का उद्गम इस नाशवान शरीर मे कौन करता है, क्योंकि यह शरीर यदि सत्य है तो चिरकाल की प्रवृति कैसे जन्म लेगी। अतः यह माना गया है कि यह ही वो सूक्ष्म तत्व के जो ज्ञेय कहलाता है जो हमे चिरकाल अर्थात अमृतत्व की ओर प्रेरित करता है।
वह सत्स्वरूप से सर्वत्र ही स्थित है। तब फिर क्या कारण है कि हम उसे इन्द्रियों द्वारा नहीं देख सकते या मन और बुद्धि से अनुभव नहीं कर पाते भगवान् कहते हैं कि वह अत्यन्त सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है। गुणवान् वस्तु स्थूल होती है। जिस वस्तु में अधिक गुण होते हैं वह उतनी ही अधिक स्थूल होती है और एकाधिक इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण की जा सकती है। जैसे पृथ्वी का ज्ञान पाँचों इन्द्रियों के द्वारा होता है। जबकि वायु का केवल श्रोत्र और स्पर्शेन्द्रिय से। अत पृथ्वी स्थूलतम तत्त्व है और आकाश में केवल शब्द गुण होने से वह सूक्ष्मतम है। कार्य की अपेक्षा कारण सदैव सूक्ष्म होता है। आकाश तत्त्व सृष्ट वस्तु होने से उसका भी कारण होना आवश्यक है। आकाश का भी कारण वह नित्य अधिष्ठान ब्रह्म है जिससे पंच महाभूतों की उत्पत्ति होती है। स्वाभविक ही है कि वह ब्रह्म आकाश से भी सूक्ष्म होने के कारण हमारे उपलब्ध प्रमाणों के द्वारा दृश्य रूप में नहीं जाना जा सकता है वह अविज्ञेय है।
गुण बोधक विशेषणों से निर्गुण रूप का वर्णन करना असंभव है, अतएव परस्पर विरोधी विशेषणों से ही उस का वर्णन करना पड़ता है। इस का कारण यह है कि जब हम किसी वस्तु के सम्बन्ध में दूर या सत शब्द का उपयोग करते है तब हमें किसी अन्य वस्तु के समीप या असत होने का भी अप्रत्यक्ष रूप से बोध हो जाता है। किंतु यदि एक ब्रह्म सर्वव्यापी है तो परमेश्वर को दूर या सत कह कर समीप या असत किसे कहे। इसलिये ब्रह्म के लिये सत-असत एवम दूर भी नही-समीप भी नही जैसे वाक्यों का प्रयोग किया जाता है।
जो कुछ निर्गुण सर्वव्यापी सर्वदा निरपेक्ष और स्वतंत्र बचा है वह ब्रह्म है। जो कुछ है वह सब ब्रह्म ही है, इसलिये दूर वही, समीप भी वही, सत भी वही और असत भी वही है।
शंकराचार्य जी ने अपने मत में कहा है कि यद्यपि वह आत्मरूप से ज्ञेय है, तो भी सूक्ष्म होने के कारण अज्ञानियों के लिये अविज्ञेय ही है। ज्ञानी पुरुषों के लिये तो यह सब कुछ आत्मा ही है यह सब कुछ ब्रह्म ही है इत्यादि प्रमाणों से वह सदा ही प्रत्यक्ष रहता है। वह ज्ञेय अज्ञात होने के कारण और हजारों करोड़ों वर्षों तक भी प्राप्त न हो सकने के कारण अज्ञानियों के लिये बहुत दूर है, किंतु ज्ञानियों का तो वह आत्मा ही है अतः उनके निकट ही है।
वस्तुत: यह क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ विभाग में क्षेत्र को समझना, जानना और उस सीखना अपेक्षाकृत सरल है, क्योंकि वह प्रकृति का ही व्यक्त और अव्यक्त हिस्सा है एवम विज्ञान में हम उसे प्रमाणित भी कर सकते है, किंतु नित्य, अविनाशी, अकर्ता, साक्षी परब्रह्म को बताना हो तो यह कठिनता आना स्वावभिक ही है। जगत का नानात्त्व भ्रांतिकारक है और वह एक स्व तत्व ही सत्य है। अतः नाना रूपात्मक माया से भ्रम की ही उत्पत्ति होती है और उस में अविभक्त से रहने वाला ब्रह्म ही सत्य है। गीता में अठाहर्वे अध्याय में इस बात को अविभक्तम विभत्केषु के माध्यम से कही गई है, अर्थात नानात्व में एक ही तत्व देखना ही वास्तविक सात्विक ज्ञान ब्रह्म है। इसलिए शब्दो से जब ब्रह्म को व्यक्त किया जाता है,तो विरोधाभास जगत के ज्ञान से अनुसार लगता है।
“जो दूर होने पर भी समीप है” ईशावास्य एवम मुण्डकोपनिषद से लिया हुआ है। अविभक्तम विभत्केषु को हम अगले श्लोक में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 13.16।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)