।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.15 II
।। अध्याय 13.15 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.15॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥
“sarvendriya- guṇābhāsaḿ,
sarvendriya- vivarjitam..।
asaktaḿ sarva- bhṛc caiva,
nirguṇaḿ guṇa- bhoktṛ ca”..।।
भावार्थ:
वह परमात्मा समस्त इन्द्रियों का मूल स्रोत है, फिर भी वह सभी इन्द्रियों से परे स्थित रहता है वह सभी का पालन-कर्ता होते हुए भी अनासक्त भाव में स्थित रहता है और वही प्रकृति के गुणों (सत, रज, तम) से परे स्थित होकर भी समस्त गुणों का भोक्ता है। (१५)
Meaning:
Illuminating the sense functions, yet devoid of the senses. Unattached, yet the supporter of all. Without qualities, and also experiencer of qualities.
Explanation:
When we teach a child about electricity, it is natural to have some doubts or questions about the nature of electricity. Similarly, when we hear a description of the eternal essence, we also will have questions and doubts. Shri Krishna now continues to proceed step by step towards explaining jneyam, the knowable which is the eternal essence, by answering three questions with respect to its relationship with the organs of sense (eyes, mouth etc) and organs of action (hands, legs etc).
First question: Can the eternal essence exist without the organs? Shri Krishna says that the eternal essence can exist without the organs of action and sense, it is “devoid of the senses”, just like electricity can exist without the bulb. Organs of sense and action are one of the means by which the eternal essence expresses itself. It has the power to adapt itself to any form of expression, any upaadhi, just like electricity can power a heater as well as an air conditioner.
Then, can the organs of sense and action exist without the eternal essence? The answer is no, since the eternal essence is “sarvabhrit”, the supporter of all upaadhis in the form of “is-ness” or existence. In any language including English, we cannot say something exists without using the word “is” in some shape or form. The “is-ness” of everything is provided by the eternal essence, like the water provides “is-ness” to the wave. But the eternal essence always remains “asakta” or detached from the upaadhis, just like a movie screen remains detached from the movie.
Now, we know from earlier chapters that the senses are made up of the three qualities or gunaas : sattva, rajas and tamas. They go out into the world to chase sense objects, which are also made up of the very same gunaas. “Gunaa guneshu vartante”, the qualities are playing with the qualities. How does the eternal essence fit into this play of the senses?
Shri Krishna says that even these three qualities are upaadhis, and therefore, the eternal essence is “nirgunam”, not attached to these qualities. When the senses play with their sense objects, the upaadhis of sattva, rajas and tamas are transformed into the upaadhis of joy, sorrow, delusion and so on. The mind, when it participates in this process, becomes the experiencer on account of presence of the eternal essence.
In all of these three answers, we find that the eternal essence is always unattached, whether it is to the organs of sense and actions, to their sense objects or to the three qualities. But when the eternal essence takes on the conditioning or the upaadhi of the organs, it as though moves, and it as though supports their existence. Also, when the eternal essence takes on the upaadhis of the three gunaas, it as though becomes the experiencer. The key here is the phrase “as though” since this addition or superimposition of upaadhis is only due to ignorance.
Further, Shree Krishna states that He is the sustainer of creation, and yet detached from it. In His form as Lord Vishnu, God maintains the entire creation. He sits in the hearts of all living beings, notes their karmas, and gives the results. Under Lord Vishnu’s dominion, Brahma manipulates the laws of material science to ensure that the universe functions stably. Also, under Lord Vishnu’s dominion, the celestial gods arrange to provide the air, earth, water, rain, etc. that are necessary for our survival. Hence, God is the Sustainer of all. Yet, He is complete in Himself and is, thus, detached from everyone. The Vedas mention Him as ātmārām, meaning “one who rejoices in the self and has no need of anything external.”
The material energy is subservient to God, and it works for His pleasure by serving Him. He is thus the enjoyer of the three guṇas (modes of material nature). At the same time, He is also nirguṇa (beyond the three guṇas), because these guṇas are material, while God is divine.
Let us now recap Shri Krishna’s explanation so far. In the last shloka, he said that the eternal essence is that which has hands, legs, eyes, mouth etc. In this shloka, he says that the eternal essence is that which has hands, legs, eyes, mouth etc as upaadhis or conditionings. In other words, he first said that the organs exist, and now he negates them by making them upaadhis. This process of assertion and negation is a technique known as “adhyaaropa apavaada”, a step by step means of getting closer and closer to the eternal essence.
।। हिंदी समीक्षा ।।
परमात्मा निर्गुणाकार, अव्यक्त, सूक्ष्म, अनादि एवम नित्य है, यही क्षेत्रज्ञ का भी स्वरूप है इसलिये जो सर्वव्याप्त तो है किंतु अव्यक्त है तो उस को समझने का प्रथम आधार तो क्षेत्र ही है।
मनुष्य जिस को नही जानता यदि उस के आकार, क्षमता, कार्य पद्धिति का वर्णन करना पड़े तो उस को प्रथम हम जो जानते है उस से तुलनात्मक करते है। मनुष्य की अपनी सीमाएं है, उस के परमात्मा का अर्थ उस की सीमाओं से परे ही होगा, किंतु उस को व्यक्त करने के लिए उस के पास वही साधन होंगे जिन्हें वह जानता है। अध्याय दशम में परमात्मा का वर्णन हम ने विभूतियों से पढ़ा, अध्याय ग्यारह में परमात्मा विराट विश्व रूप दर्शन में हम दिखाया गया। इसी पर हम ने पूर्व श्लोक में ईश्वर के अनंत, अनादि स्वरूप में हजारों हाथ, पैर, मुख वाले स्वरूप को समझा। क्योंकि हम समस्त क्रिया, विचार, चिंतन, मनन इंद्रियों, मन और बुद्धि से करते है, इसलिए परमात्मा का स्वरूप भी अलौकिक इंद्रियों, मन और बुद्धि के अनुसार असीमित रूप में देखते है।
इसलिये पूर्व श्लोक में हम ने हमारे दो आंखों, दो कानो, दो हाथों, दो पैरों एवम एक मुह एवम नाक से तुलना के रूप में उसे अनन्त आखों, कानो, हाथों, पैरों , मुह एवम नाक वाला बताया जिस से वो कभी भी, कंही भी, कुछ भी कार्य करने में समर्थ है। यह प्राथमिक क्षेत्रज्ञ का ज्ञान एक सदाहरण मानव से परमात्मा ने शुरू किया, क्योंकि मनुष्य अपने से ज्यादा या श्रेष्ठ में अधिक क्षमता या साधन देखता है।
परमात्मा कालातीत है, इसलिए भूत, भविष्य और वर्तमान का काल विभाजन उस को बांध नही सकता। उस की इंद्रियां सीमा रहित और जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति में सक्रिय रहती है।
मनुष्य के ज्ञान का विकास ही उस के परमात्मा के ज्ञान का विकास है। क्योंकि जो अनन्त है, निगुणाकार है आदि को जानने के लिये साधन यह क्षेत्र अर्थात कर्म-ज्ञान इंद्रियां, मन, बुद्धि ही प्राथमिक है, और जब इस की सीमा पार हो जाएगी तो हम चेतन्य को समझ सकते है।
प्राकृतिक पुरुष रूपी सांख्योक्त द्वेत के परे क्या है – इस का निर्णय करने के लिये, केवल दृष्टा और दृश्य सृष्टि के द्वेत भेद पर ठहर जाना उचित नही है, किन्तु इस बात का भी सूक्ष्म विचार करना चाहिये, की दृष्टा पुरुष को बाह्य सृष्टि का जो ज्ञान होता है उस का स्वरूप क्या है, वह ज्ञान किस से होता है, और किस का होता है। बाह्य सृष्टि के पदार्थ मनुष्य को नेत्रों से जैसे दिखाई देते है, वैसे तो पशुओं को भी दिखाई देता है। परंतु मनुष्य में विशेषता है, कि आंख, कान इत्यादि ज्ञानेंद्रियों से उस के मन पर जो संस्कार हुआ करते है उन का एकीकरण करने की शक्ति उस मे है और इसलिये बाह्य सृष्टि के पदार्थ मात्र का ज्ञान उस को हुआ करता है जिस एकीकरण शक्ति का फल जो क्षेत्र एवम क्षेत्रज्ञ का विचार करवाता है वो विशेषता मन एवम बुद्धि से परे है जिसे हम आत्मा को शक्ति भी है।
व्यवहार में हम किसी वस्तु को समान रूप से इंद्रियों से देखते है, किंतु उस वस्तु का ज्ञान अनुभव, मन, बुद्धि, मनस्थिति पर निर्भर करता है। एक बालक, आदिवासी, कुशल व्यक्ति, स्त्री और अनासक्त व्यक्ति द्वारा किसी कार को देखने पर उस पर विचार उस के ज्ञान और उपयोगिता पर निर्भर करता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने ज्ञान के अनुसार उस वस्तु को देखता है, परमात्मा के लिए इंद्रियों और उस के विषय कदाचिक्त कहा गया है, परमात्मा के नित्य, अचल तथा कूटस्थ होने से सब इंद्रियां विषय उस की सत्ता के आधीन है। इस लिए जो सब गुणों को भोगता हुआ भी प्राकृतिक गुणों सत – रज – तम गुणों से अतीत, असंगत भी है।
वह ज्ञेय समस्त इन्द्रियों के गुणों से अवभासित ( प्रतीत ) होने वाला है। यहाँ श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रियाँ, वाक् आदि कर्मेन्द्रियाँ तथा मन और बुद्धि ये दोनों अन्तःकरण – इन सब का सर्व इन्द्रियों के नाम से ग्रहण है क्योंकि अन्तःकरण भी ज्ञेय की उपाधि के रूप में अन्य इन्द्रियों के समान ही है, बल्कि श्रोत्रादि का भी उपाधित्व अन्तःकरण रूप उपाधि के द्वारा ही है। इसलिये यह अभिप्राय है कि उपाधिरूप अन्तःकरण और बाह्यकरण, इन सभी इन्द्रियों के गुण जो निश्चय, संकल्प, श्रवण और भाषण आदि हैं, उनके द्वारा वह ज्ञेय प्रतिभासित होता है अर्थात् उन इन्द्रियों की क्रिया से वह क्रियावान्सा दिखलायी देता है। ध्यान करता हुआ सा, चेष्टा करता हुआ सा इस श्रुति से भी यही सिद्ध होता है।
इस प्रकार परमात्मा की प्राप्ति के समस्त कार्य इस इंद्रियाओ से हो रहे है एवम परमात्मा भी जो कार्य करता है, उस का भी बोध भी इन इंद्रियाओ से ही हो रहा है, तो फिर उस ज्ञेय को स्वयं क्रिया करनेवाला ही क्यों नहीं मान लिया जाता इस पर कहते हैं – वह ज्ञेय समस्त इन्द्रियों से रहित है अर्थात् सब करणों से रहित है। इसलिये वह इन्द्रियों के व्यापार से ( वास्तवमें ) व्यापार वाला नहीं होता। यह जो मन्त्र है कि वह ( ईश्वर ) बिना पैर और हाथ के चलता और ग्रहण करता है, बिना चक्षु के देखता और बिना कानों के सुनता है सो इस अभिप्राय को दिखाने के लिये है कि वह ज्ञेय समस्त इन्द्रिय रूप उपाधियों के गुणों की अनुरूपता प्राप्त करने में समर्थ है, उसे साक्षात् गमनादि क्रियाओँ से युक्त बतलानेके लिये यह मन्त्र नहीं है। उस मन्त्र का अर्थ है वह ज्ञेय समस्त इन्द्रियों से रहित है, इसलिये संग रहित है अर्थात् सब प्रकार के सम्बन्धों से रहित है। यद्यपि यह बात है तो भी वह ज्ञेय सब को धारण करने वाला है। सत्बुद्धि सर्वत्र व्याप्त है, अतः सत् ही,सबका अधिष्ठान है। मृगतृष्णिकादि मिथ्या पदार्थ भी बिना अधिष्ठान के नहीं होते, इसलिये वह ज्ञेय सब का धारण करने वाला है। उस ज्ञेय की सत्ता को बतलाने वाला यह दूसरा साधन भी है। वह ज्ञेय निर्गुण यानी सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों से अतीत है तो भी गुणों का भोक्ता है अर्थात् वह ज्ञेय सुख दुःख और मोह के रूप में परिणत हुए तीनों गुणों का शब्दादि द्वारा भोग करने वाला – उन्हें उपलब्ध करने वाला है।
चेतना पदार्थ का भाग, उत्पाद या गुण नहीं है। चेतना एक स्वतंत्र इकाई है, जो पदार्थ में व्याप्त है और उसे जीवंत करती है। चेतना पदार्थ या शरीर के आयामों से परे जाती है। शरीर के नष्ट हो जाने पर भी चेतना जीवित रहती है। यह चेतना पहचान में नहीं आती, इसलिए नहीं कि वह वहाँ नहीं है, बल्कि इसलिए कि उसे प्रकट करने के लिए कोई शरीर- माध्यम नहीं है। जैसे कि यदि आप इस बिंदु पर प्रकाश नहीं देखते हैं, तो इसका कारण यह नहीं है कि यहाँ प्रकाश अनुपस्थित है; बल्कि इसका कारण यह है कि यहाँ कोई प्रकट करने वाला माध्यम नहीं है। जिस क्षण मैं हाथ यहाँ रखता हूँ, प्रकाश जो पहले प्रकट नहीं था, वह हाथ के माध्यम से प्रकट हो जाता है। इसलिए हाथ प्रकाश का उत्पादक नहीं है, बल्कि हाथ वह माध्यम है जो प्रकाश को प्रकट करता है। इसी प्रकार, बची हुई चेतना को पहचाना नहीं जा सकता क्योंकि प्रकट करने वाला माध्यम वहाँ नहीं है।
चेतना से संबंधित इन सभी पांच सिद्धांतों को अस्तित्व सिद्धांत पर भी लागू किया जाना चाहिए। बड़े अक्षर E यानी existence के साथ अस्तित्व, क्योंकि वेदांत के अनुसार, अस्तित्व और चेतना एक ही हैं। सत् एवं चित्, चित् एवं सत् और इसलिए चेतना पर लागू सभी पांच सिद्धांतों को अस्तित्व पर भी लागू करना होगा। पांच सिद्धांत क्या हैं? अगर हम सिद्धांतों की गणना करें तो उन्हें आत्मसात करने में बहुत समय लगेगा। सिद्धांत क्रमांक 1. अस्तित्व शरीर या किसी वस्तु का हिस्सा, उत्पाद या गुण नहीं है। अस्तित्व क्या है? वेदांत कहता है कि अस्तित्व किसी शरीर का हिस्सा, उत्पाद या गुण नहीं है। फिर दूसरा सिद्धांत क्या है, अस्तित्व एक स्वतंत्र इकाई है। वेदांत के अनुसार, अस्तित्व परम पदार्थ स्वतंत्र इकाई है, जो शरीर में व्याप्त है और शरीर को अस्तित्वमान बनाती है। अस्तित्व शरीर में व्याप्त है और शरीर को अस्तित्ववान बनाता है। और तीसरा सिद्धांत क्या है? शरीर में व्याप्त यह अस्तित्व शरीर की परिधि या आयामों से परे फैला हुआ है; जैसे मेरे शरीर पर पड़ने वाला प्रकाश केवल मेरे शरीर पर नहीं है, प्रकाश मेरे शरीर से परे फैला हुआ है। इसी तरह, अस्तित्व शरीर की सीमाओं तक सीमित नहीं है। तो चौथा सिद्धांत क्या है? यह अस्तित्व शरीर की मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है। जैसे शरीर पर पड़ने वाला प्रकाश मेरे हाथ हटा लेने पर भी जीवित रहेगा। लेकिन कोई परावर्तक माध्यम नहीं है। यही कारण है कि अंतरिक्ष यात्रा में, जब वे हमारे वायुमंडल से आगे जाते हैं, तो आपको शाश्वत अंधकार मिलेगा। दिन-रात का कोई विभाजन नहीं है। हम पृथ्वी पर दिन इसलिए रख पाते हैं क्योंकि पृथ्वी का वायुमंडल है जो सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने में सक्षम है; इसीलिए हम नीली छतरी देख रहे हैं। नीली छतरी कुछ और नहीं बल्कि धूल के कणों द्वारा बिखरी हुई सूर्य की रोशनी का नीला रंग है। यह धूल का कण है, जो सूर्य के प्रकाश के नीले रंग को बिखेरता है। आप वायुमंडल से परे जाते हैं जहाँ धूल का कण परावर्तित करने के लिए नहीं होता, आप जो अनुभव करेंगे वह शाश्वत अंधकार है. यहाँ तक कि जब आप सूर्य को देखते हैं, सूर्य और आपके बीच, आप अंतरिक्ष में, अंतरिक्ष यात्रा में, कुछ भी नहीं है, कोई वायुमंडल नहीं है, केवल अंधकार. इसलिए अगर कोई पूछे क्या वहाँ सूर्य का प्रकाश है, तो क्या जवाब देना चाहिए? यह है, लेकिन पहचानने योग्य अस्तित्व नहीं है। ऐसा ही अस्तित्व है। इसलिए वेदांत कहता है कि अस्तित्व शरीर के पतन के बाद भी जीवित रहता है।
और पाँचवाँ और अंतिम सिद्धांत बिंदु यह है कि जीवित अस्तित्व पहचाने जाने योग्य नहीं है क्योंकि कोई अभिव्यक्त करने वाला, प्रतिबिंबित करने वाला माध्यम नहीं है। इसलिए जहाँ भी प्रतिबिंबित करने वाले माध्यम हैं, वहाँ आपको अस्तित्व का एहसास होगा। जहाँ भी प्रतिबिंबित करने वाले माध्यम नहीं हैं; वहाँ अस्तित्व होगा, लेकिन आप पहचान नहीं पाएँगे और वह अस्तित्व ही चेतना है। वह अस्तित्व चेतना ही ब्रह्म है और वह ब्रह्म अर्जुन तुम हो। तत् त्वम् असि।
सभी इंद्रियाओ के गुणों के द्वारा जिस का आभास हो उसे ही सर्वइन्द्रीयगुणाभासम कहते है। इंद्रियाओ की वृत्तियां ही इंद्रियाओ के गुण होते है।
वह ज्ञेय स्वरूप सर्वव्यापी परमात्मा वास्तव में आसक्ति के दोषों से सर्वथा रहित है तो भी प्रकृति के सम्बंध से सब का धारण पोषण करनेवाला है, यही उस की अलौकिकता है।
श्रोत्र एवम त्वक आदि इंद्रियां और शब्द स्पर्श आदि उन के विषय जाग्रत में है, स्वप्न में नही मन-बुद्धि आदि अन्तःकरण और निश्चय-संकल्पादि उन के विषय जाग्रत -स्वप्न में है, परंतु सुषुप्ति नहीं। ज्ञेय ही जाग्रत, स्वप्न एवम सुषुप्ति तीनो अवस्था मे है।
सिखाने की यह विधि अद्यरोप- अपवाद न्याय है। हाथ का परिचय देना अद्यरोप कहलाता है और प्रकाश प्रकट करने के बाद हाथ को हटाना अपवाद कहलाता है। दरअसल हम ऐसा हमेशा करते हैं। मान लीजिए गुरु अपने शिष्य से कहता हूं कि कृपया मुझे थोड़ा पानी दीजिए और फिर शिष्य गुरु के लिए एक प्याला पानी लेकर आ जाते हैं और गुरु शिष्य पर क्रोधित हो जाता हूं गुरु के रूप में; उसे क्रोधित होने का विशेषाधिकार है। इसलिए वह कहता हूं: उस ने क्या मांगा था? पानी; गुरु ने शिष्य से प्याला लाने के लिए कभी नहीं कहा था। तो शिष्य प्याला क्यों लाए? तब शिष्य क्या सोचेगा कि गुरु समझदार हैं। लगता है उन्हें कोई समस्या है। वह अकेला पानी कैसे ला सकता हूं; पानी को संवाद/हस्तांतरण के लिए एक पात्र की आवश्यकता होती है। और इसलिए संवाद/लेन-देन/हस्तांतरण के लिए हम पात्र रखते हैं; तो शिष्य पात्र के साथ जल लाता है, मैं भी पात्र के साथ जल लेता हूँ, फिर जब मैं पीता हूँ, मैं क्या करता हूँ, शिष्य जानता है, गुरु जानता है, प्याला केवल जल स्थानांतरित करने के लिए उपयोग किया जाता है, मैं जल वाला भाग लेता हूँ और पात्र छोड़ देता हूँ। इसी प्रकार, शुद्ध अस्तित्व को कभी नहीं समझा जा सकता है। इसलिए आप एक वस्तु का परिचय देते हैं और वस्तु तथा अस्तित्व की सराहना करते हैं और अस्तित्व का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। आप क्या करते हैं? पात्र को हटाएँ और पात्र ही वस्तु है, नाम रूप। माइक है; माइनस माइक है, है। टेबल है। माइनस टेबल वह है: है। इसलिए, अस्तित्व को संसार के साथ समझें, आदिरूप और फिर अस्तित्व को बनाए रखते हुए, संसार को हटा दें/खारिज कर दें, इसे अपवध कहा जाता है। और इसी विधि का उपयोग भगवान कृष्ण यहाँ कर रहे हैं; सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्। यह अस्तित्व हर समय आपकी सभी इन्द्रियों के माध्यम से पहचाना जाता है। सर्व इन्द्रिय गुणः, इसका क्या अर्थ है? संचालन या प्रयोग या अनुप्रयोग। तो सर्व इन्द्रिय गुणः; व्यापारः, अनुप्रयोग, प्रयोग; आभासः का अर्थ है प्रकट। अस्तित्व प्रकट है और हर इन्द्रिय क्रिया के माध्यम से पहचाना जाता है।
कपास सभी वस्त्रों में है, किन्तु वस्त्र कपास नहीं है। तथापि कपास ही वस्त्र को धारण करने वाला होता है। इसी प्रकार आखों द्वारा कोई गोल मिट्टी की वस्तु देखते है, मन उस आकार एवम पदार्थ को आंखों से देखने के बाद उस को नाम रूप में घड़ा समझ जाता है। इसलिये जब भी इंद्रियां उस वस्तु की समान कभी भी कुछ देखती है तो उस को तुरंत नाम से पहचान लेते है। यही द्रष्टा के गुण को मन अपने संस्कारो में एकत्र कर लेता है तो हम उसे पहचानते है कि यह गीला है, पतला है, मोटा है , तरंग है आदि आदि। शरीर मे यह सब क्रिया कौन करता है, कौन मन मे संस्कार रखता है, उस को ही क्षेत्रज्ञ द्वारा इंद्रियाओ से व्यापार माना गया है। वो इंद्रियाओ, मन, बुद्धि से व्यापार करता हुआ भी इंद्रियाओ, मन बुद्धि से परे है। जब आप गीता पढ़ कर आखों से अक्षर को पहचान रहे होते है और पूर्व के संस्कारों से उस का अर्थ समझ रहे होते है तो इंद्रियाओ से व्यापार करने वाला और कोई नही क्षेत्रज्ञ ही है।
जो वस्तु कदाचित है और कदाचित नही, वह आदि-अंत के बिना केवल मध्यकालवर्ती होने से मृग तृष्णा के जल के समान आभास मात्र ही होती है। और आभास की सिद्धि किसी एक त्रिकाल अबाधित सत अधिष्ठान के आश्रय ही हो सकती है। इसप्रकार मनबुद्धि आदि अन्तःकरण, श्रोत्र-त्वक आदि बाह्यकरण और उन के विषय कदाचितक होने का आभास मात्र ही है।परंतु वह परब्रह्म तो नित्य, अचल तथा कूटस्थ होने से इन सब इंद्रियाओ व विषयो की अधिष्ठानरूप सत्ता है, जो कि जाग्रत, स्वप्न व सुषुप्ति सभी अवस्थाओं में विद्यमान है और इन इंद्रियाओ व विषयो के भाव व अभाव को अपनी सत्तामात्र से प्रकाशता है और आप इन सब से अतीत है। यह सब गुणों को भोगता हुआ भी, अर्थात सत्व, रज व तम तीनो गुण और हर्ष, शोक मोहादि इन के परिणामो की उपलब्धि का आश्रय होता हुआ भी वह परब्रह्म सब गुणों से अतीत है।
उपनिषदों में कहा गया है, जिस को हम जानने की चेष्टा कर रहे है, उस चेष्टा का स्वामी परमात्मा है। जितना हम इंद्रियों, मन, बुद्धि से सीखते है, उस को सीखने वाला और उस का स्वामी भी परमात्मा ही है। पढ़ने वाला, विषय और साधन सभी परमात्मा ही है।
इसके अलावा, श्री कृष्ण कहते हैं कि वे सृष्टि के पालनकर्ता हैं, और फिर भी उससे अलग हैं। भगवान विष्णु के रूप में, भगवान पूरी सृष्टि का पालन करते हैं। वे सभी जीवों के हृदय में बैठते हैं, उनके कर्मों को नोट करते हैं, और परिणाम देते हैं। भगवान विष्णु के प्रभुत्व के तहत, ब्रह्मा भौतिक विज्ञान के नियमों में हेरफेर करते हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ब्रह्मांड स्थिर रूप से कार्य करता है। इसके अलावा, भगवान विष्णु के प्रभुत्व के तहत, आकाशीय देवता हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक वायु, पृथ्वी, जल, वर्षा आदि प्रदान करने की व्यवस्था करते हैं। इसलिए, भगवान सभी के पालनकर्ता हैं। फिर भी, वे स्वयं में पूर्ण हैं और इस प्रकार, सभी से अलग हैं। वेदों में उनका उल्लेख आत्माराम के रूप में किया गया है, जिसका अर्थ है “वह जो स्वयं में आनंदित है और उसे किसी बाहरी चीज़ की आवश्यकता नहीं है।” भौतिक ऊर्जा भगवान के अधीन है, और यह उनकी सेवा करके उनकी खुशी के लिए काम करती है। इस प्रकार वे तीनों गुणों (भौतिक प्रकृति के स्वरूप) के भोक्ता हैं। इसके साथ ही, वे निर्गुण भी हैं (तीनों गुणों से परे), क्योंकि ये गुण भौतिक हैं, जबकि ईश्वर दिव्य है।
प्रस्तुत श्लोक “सब इंद्रियाओ के गुणों का भास होने वाला, तथापि इंद्रियाओ से विरहित” श्वेताश्वतर उपनिषद का भाग है। संक्षेप में भौतिक शरीर और अव्यक्त शरीर के मन, इंद्रियों और बुद्धि का भोक्ता और स्वामी भी है, इस जगत में को कुछ भी है, जो कुछ भी हो रहा है और जो कुछ भी होने वाला है, वह सब व्यक्त अव्यक्त परमात्मा की सत्ता एवम स्वरूप का ही एक भाग है। वह किस प्रकार सभी भूतो में व्यक्त है, इसे आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। 13.15।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)