।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.14 II
।। अध्याय 13.14 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.14॥
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥
“sarvataḥ pāṇi- pādaḿ,
tat sarvato ‘kṣi- śiro- mukham..।।
sarvataḥ śrutimal loke,
sarvam āvṛtya tiṣṭhati”..।।
भावार्थ:
वह परमात्मा सभी ओर से हाथ-पाँव वाला है, वह सभी ओर से आँखें, सिर तथा मुख वाला है, वह सभी ओर सुनने वाला है और वही संसार में सभी वस्तुओं में व्याप्त होकर स्थित है। (१४)
Meaning:
With hands and legs everywhere, with eyes, heads and mouths everywhere, with ears everywhere, it is established in all the worlds, pervading all.
Explanation:
In the Upaniṣads, Brahman is revealed as the ultimate substance out of which the whole creation is made up. Therefore, Brahman is defined as the basic stuff of the universe; basic essence of the universe; the ultimate content of this universe. And all the sciences are also trying to find out only the ultimate substance, out of which the world is made.
Once upon a time, they were talking about a few elements. 110 or 120, they said the whole universe is permutation combination of these few elements only. Thereafter they want to find out whether there is some fundamental truth or substance out of which the elements themselves are made and they arrived at the molecules, whose combinations are the elements. And thereafter they said, all the molecules are nothing but the combination of atom; and the whole universe is atoms in motion. What type of atom; invisible atoms in motions, creates an experience of a visible universe. Atom is invisible, but when all of them join together, it creates a visible tangible universe. And they thought that atom was the fundamental substance. In fact, the very word atom means that which cannot be further divided at all. Atom was thought to be the ultimate substance; and thereafter the scientists broke the atom into sub-atomic particles and therefore they said that there is only particles as the ultimate stuff. The particles are invisible but when they join together, create an appearance of a tangible universe. Then the particles also, they tried to divide further, and they said energy, the intangible energy is the ultimate stuff of the universe. Thus, they are going deeper and deeper and deeper, and their aim is what, to find out, what is the basic, ultimate substance.
God is kartumakartuṁ anyathā karatuṁ samarthaḥ. “He can do the possible, the impossible, and the reverse of the possible.” For that all-powerful God, to say that He cannot have hands and feet, is placing a constraint upon Him. However, God’s limbs and senses are divine, while ours are material. The difference between the material and the transcendental is that while we are limited to one set of senses, God possesses unlimited hands and legs, eyes, and ears. While our senses exist in one place, God’s senses are everywhere. Hence, God sees everything that happens in the world, and hears everything that is ever said. This is possible because, just as He is all-pervading in creation, His eyes and ears are also ubiquitous. The Chhāndogya Upaniṣhad states: sarvaṁ khalvidaṁ brahma (3.14.1) “Everywhere is Brahman.” Hence, He accepts food offerings made to Him anywhere in the universe; He hears the prayers of His devotees, wherever they may be; and He is the Witness of all that occurs in the three worlds. If millions of devotees venerate Him at the same time, He has no problem in accepting the prayers of all of them.
How does a child come to learn about electricity? The teacher does not directly tell him that “electricity is defined as a form of energy resulting from the existence of charged particles such as electrons or protons”. The teacher uses what the child already knows and imparts the knowledge to him step by step. So, the teacher may first say that to the child: wherever you see bright light in a bulb, that is electricity. Once the child has grasped this concept, then the teacher may say: wherever you see wires connected, that is electricity. Slowly, as the child is able to understand the nuances of atoms and electrons, the teacher then reveals to him the technical definition.
Shri Krishna uses a similar process to gently reveal the nature of brahman, the eternal essence, also known as “jnyeyam” or the knowable, to us. Now, it is quite easy for us to see action and sentience – the power to experience things – in living creatures everywhere. So Shri Krishna says that wherever we see action in living beings, symbolically represented by the phrase “hands and legs”, we should recognize the presence of the eternal essence. Furthermore, wherever we see sentience in living beings, symbolically represented by the phrase “eyes, heads, mouths and ears”, we should recognize the presence of the eternal essence.
Going back to the example of the child learning electricity, the child may sometimes think that the electricity in a bulb is different than the electricity in a fan, or that the bulb limits the flow of electricity to the fan. To remove any similar misconceptions about the eternal essence, Shri Krishna says that the eternal essence pervades everywhere. In other words, it is only one eternal essence that is functioning through the organs of knowledge and action of all living creatures in all of the worlds, and that one organ does not limit the functioning of the eternal essence in another organ.
An example commonly used to illustrate this notion is that of space and pot-space. The space that is in a clay pot and the space outside it is the same. But just because the walls of the pot surround it, we label the space inside as “pot-space”. The pot is a classic example of an upaadhi, something that as though limits the space in it, but does not do so in reality. Space, then, pervades all pots. Similarly, the organs of all living creatures may seem to limit the eternal essence, but not so in reality.
Having established the starting point for realizing the eternal essence, Shri Krishna goes one step further in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
उपनिषदों में ब्रह्म को परम तत्व के रूप में प्रकट किया गया है, जिससे पूरी सृष्टि बनी है। इसलिए ब्रह्म को ब्रह्मांड का मूल तत्व; ब्रह्मांड का मूल सार; इस ब्रह्मांड की परम सामग्री के रूप में परिभाषित किया गया है। और सभी विज्ञान भी केवल उस परम तत्व को खोजने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे दुनिया बनी है।
एक बार की बात है, वे कुछ तत्वों के बारे में बात कर रहे थे। 110 या 120, उन्होंने कहा कि पूरा ब्रह्मांड इन कुछ तत्वों का ही संयोजन है। उसके बाद वे यह पता लगाना चाहते थे कि क्या कोई मौलिक सत्य या पदार्थ है जिससे तत्व बने हैं और वे अणुओं तक पहुँचे, जिनके संयोजन ही तत्व हैं। और उसके बाद उन्होंने कहा, सभी अणु परमाणुओं के संयोजन के अलावा कुछ नहीं हैं; और पूरा ब्रह्मांड गतिशील परमाणुओं का है। किस प्रकार का परमाणु; गतिशील अदृश्य परमाणु, दृश्यमान ब्रह्मांड का अनुभव कराता है। परमाणु अदृश्य है, लेकिन जब वे सभी एक साथ जुड़ते हैं, तो यह दृश्यमान मूर्त ब्रह्मांड बनाता है। और उन्होंने सोचा कि परमाणु ही मौलिक पदार्थ है। वास्तव में परमाणु शब्द का अर्थ ही वह है जिसे आगे विभाजित नहीं किया जा सकता। परमाणु को अंतिम पदार्थ माना जाता था; और उसके बाद वैज्ञानिकों ने परमाणु को उप-परमाणु कणों में तोड़ दिया और इसलिए उन्होंने कहा कि केवल कण ही अंतिम पदार्थ हैं। कण अदृश्य हैं, लेकिन जब वे एक साथ जुड़ते हैं, तो मूर्त ब्रह्मांड का आभास होता है। फिर कणों को भी, उन्होंने आगे विभाजित करने की कोशिश की, और उन्होंने कहा कि ऊर्जा, अमूर्त ऊर्जा ब्रह्मांड का अंतिम पदार्थ है। इस प्रकार वे और भी गहरे और गहरे जा रहे हैं, और उनका उद्देश्य यह पता लगाना है कि मूल, अंतिम पदार्थ क्या है।
ईश्वर कर्तुमकर्तुम अन्यथा कर्तुम समर्थः है। “वह संभव, असंभव और संभव से विपरीत भी कर सकता है।” उस सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए, यह कहना कि उसके हाथ और पैर नहीं हो सकते, उस पर एक बंधन डालना है। हालाँकि, ईश्वर के अंग और इंद्रियाँ दिव्य हैं, जबकि हमारी भौतिक हैं। भौतिक और पारलौकिक के बीच का अंतर यह है कि जहाँ हम एक ही इंद्रियों तक सीमित हैं, वहीं ईश्वर के पास असीमित हाथ और पैर, आँखें और कान हैं। जबकि हमारी इंद्रियाँ एक ही स्थान पर मौजूद हैं, ईश्वर की इंद्रियाँ हर जगह हैं। इसलिए, ईश्वर दुनिया में होने वाली हर चीज़ को देखता है, और जो कुछ भी कहा जाता है, उसे सुनता है। यह इसलिए संभव है क्योंकि, जैसे वह सृष्टि में सर्वव्यापी है, वैसे ही उसकी आँखें और कान भी सर्वव्यापी हैं। छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है: सर्वं खल्विदं ब्रह्म (3.14.1) “सर्वत्र ब्रह्म है।” इसलिए, वे ब्रह्मांड में कहीं भी उन्हें अर्पित किए गए प्रसाद को स्वीकार करते हैं; वे अपने भक्तों की प्रार्थनाएँ सुनते हैं, चाहे वे कहीं भी हों; और वे तीनों लोकों में होने वाली सभी घटनाओं के साक्षी हैं। यदि लाखों भक्त एक ही समय में उनकी पूजा करते हैं, तो उन्हें उन सभी की प्रार्थनाएँ स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं होती।
जिस का वर्णन नहीं किया जा सकता, जो सर्वव्याप्त है, ऐसे ज्ञेय का शब्दो में वर्णन करना अत्यंत कठिन है, क्योंकि हम प्राकृतिक प्राणी है और हमारी देखने, समझने, ग्रहण करने, समझने की क्षमता और किसी भी कर्म को करने की क्षमता हमारे 24 तत्व के शरीर तक ही सीमित है, इसलिए अद्वैत तो समझने के लिए द्वैत का सहारा लिया जाता है। जैसे शून्य को समझाने के लिए एक गोला या बिंदी का प्रयोग किया जाता है। जीव के पास एक जड़ शरीर है, किंतु जो प्रत्येक जड़ शरीर में व्याप्त है, एवम जो प्रत्येक प्रकृति और कण कण में व्याप्त है, उसे समझने के लिए यह श्लोक उस का द्वैत स्वरूप में वर्णन इस संपूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु और क्रिया में उस की उपस्थिति दर्ज करता है और घोषणा करता है कि उस के अतिरिक्त कुछ भी नही है। आप कल्पना भी करते है, यह समझने या पढ़ने का प्रयत्न करते है, वह और कोई नही ज्ञेय द्वारा ही संपन्न होता है।
समस्त प्राणियों की इन्द्रियादि उपाधियों द्वारा उस ज्ञेय के अस्तित्व का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं, वह ज्ञेय सब ओर हाथ पैर वाला है अर्थात् उस के हाथ पैर सर्वत्र फैले हुए हैं। सब प्राणियों की इन्द्रियरूप उपाधियों द्वारा क्षेत्रज्ञ का अस्तित्व प्रकट होता है। क्षेत्र रूप उपाधि के कारण ही वह ज्ञेय क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। क्षेत्र रूप उपाधि हाथ, पैर आदि भेद से अनेक प्रकार विभक्त है। वास्तव में, क्षेत्र की उपाधियों के भेद से किये हुए समस्त भेद क्षेत्रज्ञ में मिथ्या ही हैं, अतः उन को हटा कर ज्ञेय का स्वरूप वह न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है ऐसे बतलाया गया है तथा ज्ञेय का अस्तित्व समझाने के लिये उपाधिकृत मिथ्यारूप को भी उस के धर्म की भाँति कल्पना कर के उस को सब ओर से हाथ पैर वाला है इत्यादि प्रकार से बतलाया जाता है। सम्प्रदाय परम्परा को जानने वालों का भी यही कहना है कि अध्यारोप और अपवाद द्वारा प्रपञ्च रहित परमात्मा की व्याख्या की जाती है। सर्वत्र अर्थात् सब शरीरों के अंगरूप से स्थित हाथ, पैर आदि इन्द्रियाँ, ज्ञेय शक्ति की सत्ता से ही स्वकार्य में समर्थ हो रही हैं, अतः ये सब ज्ञेय की सत्ता के चिह्न होने के कारण उपचार से ज्ञेय के ( धर्म ) कहे जाते हैं। ऐसे ही और सब की भी व्याख्या कर लेनी चाहिये।
जिस प्रकार सूर्य अपनी अनन्त रश्मि को विकीर्ण कर के सभी ओर व्याप्त है, उसी प्रकार परमात्मा भी अपने सर्वव्यापी रूप में आदि शिक्षक ब्रह्मा से प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी में आत्म रूप में स्थित है। इसलिए परमात्मा अनन्त सिर, हाथ, पावँ और नेत्रों द्वारा व्याप्त है। नेत्र जो भी देखते है, वह सूर्य की रोशनी का ही प्रतिबिंब होता है। नेत्र में रोशनी नहीं होती।
समस्त जीव को परमात्मा का स्वरूप कहा गया है, ऐसे ही भगवान् के सब जगह ही हाथ और पैर हैं अतः भक्त भक्ति से जहाँ कहीं जो कुछ भी भगवान् के हाथों में देना चाहता है, अर्पण करना चाहता है, उस को ग्रहण करने के लिये उसी जगह भगवान् के हाथ मौजूद हैं। भक्त बाहर से अर्पण करना चाहे अथवा मन से, पूर्व में देना चाहे अथवा पश्चिम में, उत्तर में देना चाहे अथवा दक्षिण में, उसे ग्रहण करनेके लिये वहीं भगवान् के हाथ मौजूद हैं। ऐसे ही भक्त जल में, स्थल में, अग्नि में, जहाँ कहीं जिस किसी भी संकट में पड़ने पर भगवान् को पुकारता है, उस की रक्षा करने के लिये वहाँ ही भगवान् के हाथ तैयार हैं अर्थात् भगवान् वहाँ ही अपने हाथों से उस की रक्षा करते हैं।
परमात्मा की सर्वव्यापकता जीव की सर्वव्यापकता से भिन्न है, जीव परमात्मा का ही स्वरूप है किंतु परमात्मा नहीं। अतः सर्वव्यापकता परमात्मा में है जीव में नही। किंतु जब जीव प्रकृति से मुक्त हो कर अपने ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त हो जाता है, तो यह ब्रह्म से भिन्न नहीं होता। जीव जब तक अपने अहम और आसक्ति से प्रकृति से बंधा रहता है और अपने कर्म फलों को भोगता है, वह ज्ञेय तत्व से भिन्न होता है।
क्षेत्र के वर्णन में हम ने 24 तत्व को पढ़ा। इन 24 तत्व में इन्द्रिय, मन, बुद्धि एवम उस के बाद कामनाओं से युक्त अहंकार भी जाना। यही चेतन तत्व शरीर मे भोक्ता है। जो मेरा-तेरा करता रहता है। किंतु जब हम प्रगाढ़ निंद्रा में होते है तो शरीर की समस्त क्रियाएं शांत हो जाती है, उस समय हमें अपने स्थान, काम, वासना यहां तक की स्वांस का आना जाना भी ज्ञात नहीं होता तो भी उस क्षेत्र का जीव रहता है। जो जगने पर पुनः सक्रिय हो जाता है, यह जीव चेतन्य है, नित्य है, व्यक्त एवम अक्षर है एवम क्षेत्र के चेतन द्वारा किये हर कार्य का साक्षी है। यह जीव चेतन के प्रत्येक कर्म, कामना, अहम से बंधा है इसलिए जब तक चेतन निष्काम हो चेतन्य नही होता यह भी बंधन मुक्त नहीं होता और जन्म- मरण में अपने कर्मो को भोक्ता है। अतः जीव अर्थात आत्मा परमात्मा का स्वरूप होते हुए भी परमात्मा नही है।
सांख्य योग जीव तक विवेचना करता है किंतु वेदान्त एवम गीता का कहना है कि यह सब जीव एक ही परमात्मा के स्वरूप है इसलिये अंत मे इनको परमात्मा में ही विलीन होना है। इसलिये परमात्मा ही वो सूक्ष्म तत्व है जिस से यह यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड रचा गया है एवम जो समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त है। अचिन्त्य और अक्षर परब्रह्म- जिसे की क्षेत्रज्ञ अथवा परमात्मा भी कहते है, इस का जो वर्णन किया गया है वो आठवें अध्याय में अक्षर ब्रह्म से वर्णन के समान है।
इसलिये ज्ञेय तत्व की सर्वव्यापकता का यहां समग्रता से प्रतिपादन किया गया है। अभिप्राय यह है कि आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी का कारण होने से उन को व्याप्त किये हुए स्थित है- उसी प्रकार वह ज्ञेय स्वरूप परमात्मा भी इस चराचर जीव समूह सहित समस्त जगत का कारण होने से सब को व्याप्त किये हुए स्थित है, अतः सब कुछ उसी से परिपूर्ण है।
यह श्लोक वैदिक साहित्य से परिचित विद्यार्थियों को ऋग्वेद के प्रसिद्ध पुरुषसूक्तम् का स्मरण कराता है।
ज्ञेय को परिभाषित नहीं किया जा सकता, जो सत भी है और असत भी उस को बताने के लिए, तुलनात्मक सहारा लिया जा सकता है, किंतु हर वस्तु के अपने अपने गुणधर्म होते है, इसलिए ज्ञेय को समझाने के लिए परमात्मा आगे और क्या कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।।13.14।।
अपनी बात:
वेदांत हमे बतलाता है कि वही ब्रह्म एक सत्य है और जगत मिथ्या। यह मिथ्या का अर्थ झूठ हो नही सकता क्योंकि जब ब्रह्म सत्य है तो जीव भी सत्य है और प्रकृति भी। फिर अंतर काल का है, जीव प्रकृति से काल से बंधा है इसलिए अस्थिर है, बार बार शरीर धारण करता है और क्षय हो जाता है। फिर इस संसार या प्रकृति में आता ही क्यों है, तो हम ने पढ़ा अपने कर्मो को भोगने। किंतु जब यह सृष्टि की रचना हुई होगी और के प्रकृति भी नही थी तो कर्म या कर्म बंधन भी नहीं होंगे और ब्रह्म से अनगिनत जीव भी कहां से आए होंगे। इसलिए यह सब संसार ब्रह्म के संकल्प का विकल्प अर्थात माया ही है और वास्तव में नहीं है।
जो नहीं है तो भूख – प्यास, गर्मी – सर्दी, सुख – दुख, राग – द्वेष, सत्ता, धन, मान और अहंकार कहां से आया। कुछ ज्यादा उलझ गया। कल गाड़ी के शीशे में अंगुली आ जाने से जो दर्द की अनुभूति हुई, तो समझ में यह भी आया कि समझने को हम चाहे नित्य जीव है किंतु इस शरीर से ममत्व का बंधन और सुख दुख की अनुभूति भी सत्य है। फिर देश के हंसते हंसते अपनी जान पर खेलने वाले वीर का हौसला इस दर्द की अनुभूति से भी बड़ा होगा। तभी वे दर्द सह कर भी जुल्म के आगे नहीं झुके।
यह हौसला ही जीव की पहचान का मार्ग है। पुस्तके कितनी पढ़ो, कितने भी प्रवचन सुनो, कितनी ही व्रत, यज्ञ, याग करो। किंतु ही भजन करो या माला फेरो, जब तक यह हौसला, धेय नही है, तब तक जीव प्रकृति के साथ ही बंधा है। अंगुली के दर्द से हौसले का पता चल गया कि यह जीव नित्य ब्रह्म से ज्यादा शरीर धारी मनुष्य है।
गीता के अध्ययन और बीमा पॉलिसी में यही प्रमाणिक है कि पॉलिसी वह भी ले सकते है जो आप के जीवन काल में मेच्योर्ड हो कर आप को लाभार्थी बनाए या मरने के बाद आप के परिजनों को। परिजनों को लाभ मिलता है यह प्रत्यक्ष अन्य के उदाहरण से समझते है, क्योंकि इस देख नही सकते। गीता भी शुद्ध चेतन को सद्चित्त आनंद की गारंटी जीते जी देती है और मरने के बाद मोक्ष। किंतु इस के आत्मशुद्धि की समस्त किस्तों का भुगतान करने की क्षमता होनी चाहिए और यही पर जीव अक्सर कमजोर पड़ जाता है। यहां उधारी भी नही किंतु एक मौका है कि इस जन्म में जितनी किस्ते भरी, अगले जन्म में फिर से नहीं भरनी पड़ेंगी।
अतः जब तक किस्तें पूरी न हो, जीव को प्रकृति का साथ मिलता रहे, हम सत्व गुण की ओर बढ़े तो किस्तों की राशि को दान, धर्म, कर्म और व्रत और यज्ञ से कमाते रहे। चिंता छोड़ कर आनंद से जीवन व्यतीत करे क्योंकि यात्रा बहुत लंबी है, तो यात्रा के खत्म होने की बजाए यात्रा में मिलने वाले पड़ाव का आनंद ले।
यह मेरा अपना विचार पूरा मौलिक है, आप का क्या विचार है, मुझे बताएंगे क्या?
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)