।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.13 II
।। अध्याय 13.13 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.13॥
ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥
“jñeyaḿ yat tat pravakṣyāmi,
yaj jñātvāmṛtam aśnute..।
anādi mat- paraḿ brahma,
na sat tan nāsad ucyate”..।।
भावार्थ:
हे अर्जुन! जो जानने योग्य है अब मैं उसके विषय में बतलाऊँगा जिसे जानकर मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य अमृत-तत्व को प्राप्त होता है, जिसका जन्म कभी नही होता है जो कि मेरे अधीन रहने वाला है वह न तो कर्ता है और न ही कारण है, उसे परम-ब्रह्म (परमात्मा) कहा जाता है। (१३)
Meaning:
I will describe that which is to be known, by realizing which, immortality is attained. The supreme brahman is without beginning, said to be neither manifest nor unmanifest.
Explanation:
In the beginning of this chapter, Shri Krishna set out to explain what is kshetra or the field, and what is kshetrajnya or the knower of the field. He then set to list out various aspects of the field, which are also known as upaadhis or conditionings. This list included upaadhis such as the intellect, the mind, the five elements and so on. Shri Krishna also asserted there is only one knower of the field that is limited or conditioned by all of these upaadhis. He then gave us twenty attributes that we should cultivate in order to reduce the importance we give to these upaadhis, so that we can slowly uncover and get to the kshetrajnya, the knower of the field.
After assuming that we have cultivated these twenty qualities, and consequently learned how to reduce the importance of the field in our lives, Shri Krishna now gets to the main topic of this chapter. Out of 6 topics, Shri Krishna has cleared three Kṣetraṁ, kṣētrajña and Jñānam. Now in remaing three topics Jñēyam; prakr̥ti and puruṣaḥ, he is explaning Jneyem (ज्ञेय) in verses 13 to 19. Krishna says that this subject matter, everybody has to necessarily know Because this is the one which solves the fundamental problem of every human being and which every human being is struggling to solve.
Fundamental problem is the fear of mortality is there all the time, right from birth itself i.e. the sense of insecurity. Every single person wants freedom from mortality and the fear of it. Therefore, Krishna says yat jñātva, knowing which alone, one attains immortality, and freedom from the sense of insecurity.
What is that jneyam to be known by all? Krishna says: Param Brahma, that ultimate thing to be known is called Brahman. The word Brahman means the infinite one; Satyam, Jñānam, anantham, Brahma, we saw in Taittariya. Infinite means that which is free from threefold limitations; one limitation is called space-wise limitation; another limitation is called timewise limitation; another is called attribute-wise limitation. Space-wise limitation is when I am here; unfortunately, I cannot be elsewhere.
Shree Krishna says that Brahman is beyond the relative terms of existence and non-existence. The Brahman, in Its formless and attributeless aspect, is the object of worship of the jñānīs. In Its personal form, as Bhagavān, states: brahmaṇo hi pratiṣhṭhāham “I am the basis of the formless Brahman.” Thus, the formless Brahman and the personal form of God are both two aspects of the Supreme Entity. Both exist everywhere, and hence they both can be called all- pervading. Referring to These, Shree Krishna reveals the contradictory qualities that manifest in God.
Brahman has no form, it has no attribute, it has no time. Since therefore it is not a concept to be conceived. And therefore, Krishna is bringing in the essence of the Upaniṣads. From 13th onwards, we get Upaniṣad says. Brahman does not have śabda, sparśa, rūpa, rasa and gandha. So, no form, colour, taste or touch and therefore you cannot see it; hear it, smell it, taste it or touch it and you are supposed to know that Brahman.
In the description of Brahma. Anadi mat; that which does not have ādhi. ādhi means beginning means both spacial and timewise and therefore it is anantham; the limitless one. And na sat tat na asat uchayate. Because the entire universe you experience is nothing but a flow of cause and effect. Yesterday is the cause for today’s condition. Today is the cause for tomorrow’s condition. The entire creation I experience is nothing but cause- effect- flow. And Krishna says Brahman is beyond cause and effect. That means it is beyond time. Because cause and effect wherever they exist, there Time is there.
We now see why it is so difficult to understand the eternal essence. It is not like any object or form that can be described in words. It is also not an abstract concept that can be explained through logic, or by comparing it to something else or by combining one concept with another. In earlier chapters we saw how such situations can be handled with negation. If we want to instruct someone on how to select a maroon shirt, we tell them ignore all of the other colours of shirts. The one that is left will be the maroon shirt. Similarly, the eternal essence cannot be comprehended by our mind and senses because it is beyond the mind and senses. It can only be attained through negating everything that is not the eternal essence – by negating the upaadhis or fields.
Now, in the upcoming shlokas, Shri Krishna proceeds step by step to negate the upaadhis of the eternal essence, starting with the most visible ones.
।। हिंदी समीक्षा ।।
छः विषयों में से श्री कृष्ण ने तीन विषयों क्षेत्रं, क्षेत्रज्ञ और ज्ञानम् को स्पष्ट कर दिया है। अब शेष तीन विषयों ज्ञेयम्, प्रकृति और पुरुष में वे श्लोक 13 से 19 में ज्ञेयम् की व्याख्या कर रहे हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि यह विषय प्रत्येक व्यक्ति को अवश्य जानना चाहिए, क्योंकि यही वह विषय है जो प्रत्येक मनुष्य की मूल समस्या का समाधान करता है और जिसे हल करने के लिए प्रत्येक मनुष्य संघर्ष कर रहा है। ज्ञेय को ज्ञानी ही जान सकता है और पूर्व में बताए 20 गुणों को आत्मसात करने वाला ज्ञानी है अन्यथा अज्ञानी ही कहा जायेगा अर्थात मात्र कथन या पुस्तक की जानकारी ज्ञान नहीं हो सकती।
व्यवहार में ज्ञान को हम पढ़ते जरूर है किंतु ज्ञान को आत्मसात नहीं करते क्योंकि हमे यह संसार त्यागने का भय लग जाता है। प्रकृति का मोह हमे प्रकृति से अलग नहीं होने देता और यह मोह और भय हमे ज्ञान नहीं होने देता।
मूल समस्या यह है कि जीव को अपने जीवन से प्रेम योगमाया करा देती है और वह अपने प्रकृति के जीवन को से मान कर अज्ञान में सुख और दुख खोजता है। उसे मृत्यु का भय हमेशा बना रहता है, जन्म से ही यानी असुरक्षा की भावना। हर व्यक्ति मृत्यु और उस के भय से मुक्ति चाहता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं यत् ज्ञात्वा, जिसे जानने मात्र से ही व्यक्ति अमरत्व और असुरक्षा की भावना से मुक्ति प्राप्त कर सकता है, वही ज्ञेय है।
ज्ञान योग में हम ने पढ़ा था कि परमतत्व अनुभव का विषय है जिसे किसी ज्ञानी गुरु से अभ्यास द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। यही ज्ञेय अब परमात्मा द्वारा बताया जा रहा है जिस का अभ्यास हमे करना चाहिए।
वह ज्ञेय क्या है जिसे सभी को जानना चाहिए? कृष्ण कहते हैं: परम ब्रह्म, वह परम वस्तु जिसे जानना चाहिए उसे ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म शब्द का अर्थ है अनंत; सत्यम, ज्ञानम, अनंतम, ब्रह्म, हमने तैत्तिरीय में देखा। अनंत का अर्थ है वह जो तीन गुण सीमाओं से मुक्त है; एक सीमा को स्थान-वार सीमा कहा जाता है; दूसरी सीमा को समय-वार सीमा कहा जाता है; तीसरी को गुण-वार सीमा कहा जाता है। स्थान-वार सीमा तब होती है, जब मैं यहाँ होता हूँ, दुर्भाग्य से मैं कहीं और नहीं हो सकता।
परमात्मा ज्ञेय के प्रति उत्सुकता बढाने के कहते है कि जो जानने योग्य है उस को भली प्रकार यथार्थ रूप से कहूँगा। जिस जानने योग्य परमात्मा के स्वरूप को जानकर ( मनुष्य ) अमृत को अर्थात् अमरभाव को लाभ कर लेता है, फिर नहीं मरता। वह ज्ञेय अनादि मत् है अर्थात अर्जुन को उपदेश देने के लिए गीता से नही उपजा। जिस की आदि (प्रारंभ) हो वह आदि मत् और जो आदि मत् न हो वह अनादिमत् कहलाता है। वह कौन है वही परम निरतिशय ब्रह्म जो कि इस प्रकरण में ज्ञेय रूप से वर्णित है। ब्रह्म के वर्णन में, अनादि मत स्थानिक और समय दोनों ही दृष्टि से और इसलिए यह अनंतम् है, असीम है। क्योंकि आप जिस संपूर्ण ब्रह्मांड का अनुभव करते हैं, वह कारण और प्रभाव के प्रवाह के अलावा और कुछ नहीं है। कल आज की स्थिति का कारण है। आज कल की स्थिति का कारण है और कृष्ण कहते हैं कि ब्रह्म कारण और प्रभाव से परे है। इस का मतलब है कि यह समय से परे है, क्योंकि कारण और प्रभाव जहाँ भी मौजूद हैं, वहाँ समय है।
परब्रह्म को ज्ञेय इस लिये भी कहते है कि ज्ञान के अतिरिक्त अन्य किसी उपाय से इस को प्राप्त नही किया जा सकता एवम जिस का ज्ञान हो जाने के बाद अन्य कोई भी कार्य या जानना शेष नही रहता, अर्थात जो इस को जानता है वो उसी के साथ तदरूप हो जाता है।
ज्ञेयम् (अवश्य जानने योग्य) कहने का तात्पर्य है कि संसार में जितने भी विषय, पदार्थ, विद्याएँ, कलाएँ आदि हैं। वे सभी अवश्य जानने योग्य नहीं हैं। जानने योग्य तो एक परमात्मा ही है। कारण कि सांसारिक विषयों को कितना ही जान लें, तो भी जानना बाकी ही रहेगा। सांसारिक विषयों की जानकारी से जन्म मरण भी नहीं मिटेगा। परन्तु परमात्मा को तत्त्व से ठीक जान लेने पर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहेगा और जन्म मरण भी मिट जायगा। अतः संसार में परमात्मा के सिवाय जानने योग्य दूसरा कोई है ही नहीं।
श्रीमद्भागवत जो शुकदेव जी ने परीक्षित की सुनाई थी वो तत्वविद द्वारा सुनने के लिये समर्पित भक्त को दिया ज्ञान था जिस से परीक्षित मृत्यु के भय से मुक्त हो गए। आज न तो वैसे प्रवक्ता है और न ही श्रोता। भागवत में धूम धाम, स्वांग एवम नृत्य आदि द्वारा अज्ञान को ही बढ़ाया जा रहा है, इसलिये भागवत सुनने वाला कोई भी श्रोता ज्ञेय को जान कर अमृतत्व को प्राप्त नही कर सका।
ज्ञेय पद सच्चिदानंदघन निर्गुण एवम सगुण ब्रह्म का वाचक है। निर्गुण एवम सगुण होने कारण सत एवम असत दोनों ही नही है। इस को जानने वाला परब्रह्म परमात्मा के ज्ञान से सदा के लिये जन्म मरण रूप संसार बंधन से मुक्त हो कर परमानंद स्वरूप परब्रह्म को प्राप्त कर के परमगति पाता है।
परमानन्द सब जीवो का सत्य है, केवल उस को अज्ञान कर के और अज्ञान द्वारा उस अमृत रूप को अहम त्वमरूप प्रपंच के रूप में अन्यथा ग्रहण करके ही एक मात्र जीव को कर्तृत्व, भोक्तत्व तथा जन्म मरण रूप दुखो की प्राप्ति हो रही है। यदि देहाभिमान को त्याग कर ज्ञान से इस को ग्रहण करे तो हमे निश्चय ही अमृतत्व की प्राप्ति होगी और हम जीवन मरण, व्याधि, जरा आदि प्रकृति के दुख है उन से मुक्त हो जाएंगे।
आत्मा एवम परमात्मा का जन्म नहीं है इसलिये इसको अनादि अर्थात नित्य कहा गया है।
जो वस्तु प्रमाणों द्वारा सिद्ध की जाती है उसे सत कहा गया है । क्योंकि यह संपूर्ण विश्व, प्रकृति, जीव उसी का प्रतिबिंब है, इसलिए परब्रह्म को सत कहा जा सकता है, किंतु प्रतिबिंब किसी की छवि नही हो सकती। जीव, प्रकृति और विश्व परिवर्तनशील और क्षय को प्राप्त है, इसलिए यह परब्रह्म का स्वरूप नही है, अतः यह असत भी है। सत में परब्रह्म द्वारा ही प्रमाण सिद्ध होते है, तो जो परमात्मा सभी का सिद्ध है, जो सब को जाननेवाला है, उस को कोई किस प्रकार से जान सकता है, इसलिए वह असत है। परब्रह्म आवागमन से मुक्त है, उसे वाणी से संबोधित नहीं कर सकते क्योंकि वाणी से संबोधन में जाति, गुण, क्रिया या संबंध का बोध होता है एवम द्वंद का विषय बनता है, परब्रह्म निर्द्वन्द है। यह सत भी नही और असत भी नही है। क्योंकि सत यदि कहे तो असत का अस्तित्व का बोध होता है। और असत कहते है तो यह नही कहा जा सकता की परमात्मा का कोई अस्तित्व ही नहीं है। वह अवश्य है, और वह है, इसी से सब का अस्तित्व है, इसलिए वह सत भी है और असत भी। परब्रह्म से भिन्न कुछ भी नही। परब्रह्म के सदृश्य ऐसा कुछ भी नही जिस को बता कर उस का बोध कराया जा सकता है।
ब्रह्म का कोई रूप नहीं है, उसका कोई गुण नहीं है, उसका कोई समय नहीं है। इसलिए यह कोई अवधारणा नहीं है जिसकी कल्पना की जा सके। और इसलिए, कृष्ण उपनिषदों का सार ला रहे हैं। १३वें से आगे, हमें उपनिषद सार मिलता है। उपनिषद कहता है। स्पर्शं, अशब्दं, अरूपं अव्ययं, तथा रसं नित्य अगन्धवच्चयात्। ब्रह्म में शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध नहीं है। अतः कोई रूप, रंग, स्वाद या स्पर्श नहीं है और इसलिए आप इसे देख नहीं सकते; इसे सुन नहीं सकते, इसे सूंघ नहीं सकते, इसे चख नहीं सकते या इसे छू नहीं सकते और आपसे यह अपेक्षा की जाती है कि आप उस ब्रह्म को जानें।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ब्रह्म अस्तित्व और अनस्तित्व की सापेक्षिक शर्तों से परे है। ब्रह्म अपने निराकार और निर्गुण रूप में ज्ञानियों की पूजा का विषय है। अपने साकार रूप में, जैसा कि भगवान कहते हैं: ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठिताहम् “मैं निराकार ब्रह्म का आधार हूँ।” इस प्रकार, निराकार ब्रह्म और भगवान का साकार रूप दोनों ही परम सत्ता के दो पहलू हैं। दोनों ही सर्वत्र विद्यमान हैं, और इसलिए दोनों को सर्वव्यापी कहा जा सकता है। इनका उल्लेख करते हुए, श्रीकृष्ण भगवान में प्रकट होने वाले विरोधाभासी गुणों को प्रकट करते हैं।
जैसे जल में तरंग विद्यमान तो है किंतु उस को कोई हाथ से स्पर्श नही कर सकता। क्योंकि जो स्पर्श होगा वो जल है। वैसे ही यह विश्व जो सिर्फ मायाकृत एवम अनित्य है उस परब्रह्म की जलतरंग की भांति है।
गीता के यह श्लोक उपनिषदों से लिये गए है। अतः जब किसी भी ज्ञान या वस्तु का वर्णन करना सम्भव हो तो उस मे वर्णन के विपरीत गुण विवादित हो सकता है एवम उस की सीमा भी तय हो जाती है, अतः उपनिषदों में सत-असत या परब्रह्म के वर्णन के बाद “नेति नेति” कह कर यह बता दिया गया है वो परमतत्व जितना बताया गया है उस के भी अतिरिक्त है। अर्थात यह इंद्रियाए, मन एवम बुद्धि से उस तत्व का वर्णन हो ही नही सकता क्योंकि सीमा वर्णन करने वाले की है, उस परब्रह्म तत्व की नहीं।
ज्ञेय पदार्थ के अमृतत्व तत्व एवम उस की विशेषताओं के बाद परमात्मा आगे क्या कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.13।।
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