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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  13.12 II

।। अध्याय      13.12 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 13.12

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌ ।

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥

“adhyātma- jñāna- nityatvaḿ,

tattva- jñānārtha- darśanam..।

etaj jñānam iti proktam,

ajñānaḿ yad ato ‘nyathā”..।।

भावार्थ: 

निरन्तर आत्म-स्वरूप में स्थित रहने का भाव और तत्व- स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करने का भाव यह सब तो मेरे द्वारा ज्ञान कहा गया है और इनके अतिरिक्त जो भी है वह अज्ञान है। (१२)

Meaning:

Steadfastness in the knowledge of the self, contemplation on the goal of the knowledge of reality. This has been spoken of as knowledge. That which is other than this is ignorance.

Explanation:

Shri Krishna adds two final entries to the list of twenty attributes that help us reduce the importance we give to the kshetra or the field. “Adhyaatma” refers to the self, the “I” in us. “Jnyaanam” is knowledge, and “nityatvam” is constant dwelling in that knowledge. For instance, once we know that the sun is a star and that the earth revolves around it, we never forget it, even when we appreciate the beauty of a sunrise or a sunset. Similarly, we can mourn the loss of a loved one, without letting that incident obscure our knowledge that the human body is ephemeral.

Aversion for mundane society.  The sign of a materialistic mind is that it finds pleasure in talks about worldly people and worldly affairs.  One who is cultivating divine consciousness develops a natural distaste for these activities, and thus avoids mundane society.  At the same time, if it is necessary to participate in it for the sake of service to God, the devotee accepts it and develops the strength to remain mentally unaffected by it.

Philosophical pursuit of the Absolute Truth.  Even animals engage in the bodily activities of eating, sleeping, mating, and defending.  However, God has especially blessed the human form with the faculty of knowledge.  This is not to enable us to engage in bodily activities in a deluxe way, but for us to contemplate upon the questions: “Who am I?  Why am I here?  What is my goal in life?  How was this world created?  What is my connection with the Creator?  How will I fulfill my purpose in life?”  This philosophic pursuit of the truth sublimates our thinking above the animalistic level and brings us to hear and read about the divine science of God-realization.

All the virtues, habits, behaviors, and attitudes described above lead to the growth of wisdom and knowledge.  The opposite of these is vanity, hypocrisy, violence, vengeance, duplicity, disrespect for the Guru, uncleanliness of body and mind, unsteadiness, lack of self-control, longing for sense objects, conceit, entanglement in spouse, children, home, etc.  Such dispositions cripple the development self-knowledge.  Thus, Shree Krishna calls them ignorance and darkness.

Then the next virtue; in the first line in the second word, tattvajñānārthadarśanam. All these virtues or values are prescribed for the sake of Jñāna yōgyatha prāpthi. And by gaining the eligibility for knowledge, what do you accomplish at the end? Jñānam itself. And if I have to have a value for Jñāna yōgyatha, then I should have a value for Jñānam. When I will value the examination of GMAT, TOFEL, etc. I value all those examinations when I value benefit or the result of those examinations. I want to join an American university. The more value I Plhave with regard to the end, then I will have the value for the means.

“Tattva jnyaana artha” is the goal or the culmination of the knowledge of reality, which is moksha or liberation. We will constantly contemplate on the self only if we feel that liberation is worthwhile, that it is valuable. On the other hand, if we value material goals more than liberation, we will waver in our commitment to inquiring about the self. Therefore, if we are able to make liberation our end goal, we will easily practice all the other attributes that we have studied in the previous few shlokas.

Jñānam gives inner freedom; And then comes the final and most important virtue that is adhyātma Jñāna nithyatvam. So systematic and consistent study of vēdāntic scriptures for a length of time, under the guidance of a competent ācārya. e.g. if you arrange bricks one after the other, well cemented together, then out of heap of bricks, you get a wonderful room in which you can live. So, in both conditions’ bricks are there; one is well arranged and the other is heap.

Shri Krishna concludes this topic by asserting that what has been spoken of so far is the means of knowledge, it is jnyaanam. Anything that does not provide this means of knowledge is ignorance, it is ajnyaanam, it will only serve to further entangle us in the material world. For instance, if we practice arrogance instead of humility, that is out of ignorance. It will lead us away from the path of liberation. We are urged to lead an intelligent, ignorance- free life in the Gita, right from the beginning when Shri Krishna glorified buddhi yoga in the second chapter.

So then, if all this was the means of knowledge, what knowledge does it reveal to us? This topic is taken up next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

प्रस्तुत श्लोक ज्ञानी के 20 गुणों का अंतिम श्लोक है, इसलिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो ज्ञानी पहले बताए हुए 18 गुणों से युक्त होगा, वही इन दो गुणों का अधिकारी भी होगा।

19. अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति – अध्यात्म आत्मा का विषय है, इस को प्राप्त करना या इस में स्थित रहने का अर्थ है कि आप ने अपनी इंद्रियों, मन, बुद्धि, कामना और आसक्ति पर सयंम प्राप्त कर लिया है। इस के लिए प्रतिदिन ध्यान, योग, चितन और मनन का अभ्यास करना आवश्यक है।

20. तत्व ज्ञान के अर्थ का दर्शन – शब्द दर्शन अर्थात आत्मसात होने के लिए पूर्ण प्रयास करना। इस के पहले महावाक्य भी कहे गए है। तत्व ज्ञान का अर्थ ब्रह्म, जीव, माया, प्रकृति, जीवात्मा और जन्म – मरण के चक्कर को समझना और जानना। ज्ञायते अनेनात्मा इति ज्ञानम

सब से पहले हमे समझना होगा कि ज्ञान और अज्ञान क्या है।

जो ज्ञान नही है, वही अज्ञान है। अर्थात जब किसी भी कर्म को उपरोक्त 20 गुणों से युक्त न हो कर लालसा, अहम, राग – द्वेष, सत्ता सुख भोग आदि के लिए किया जाए, पत्नी, पुत्र, पुत्री के लिए अपने नियमों के विरुद्ध सामाजिक आचरण किया जाए तो वह अज्ञान है, किंतु पद, साधन और शक्ति का प्रयोग निष्काम भाव से लोकसंग्रह के लिए किया जाए तो ज्ञान है। हम में सभी कोई न कोई सामाजिक संस्था या धार्मिक संस्था से जुड़ा रहता है, वहा आप किस भाव से कार्य करते है, यदि यह कार्य आमानित्व भाव से करते है, तो यह ज्ञान है, फिर आप वहां राजनीति या संगठन बना कर असमाजिक तत्व को संस्था से बचा कर रखते है, तो आप अपना कर्तव्य धर्म का पालन करते है। किंतु अक्सर इन संस्थाओं में ज्ञान को आधार बना कर लोग अपने स्वार्थ, पद की लालसा आदि की पूर्ति हेतु अज्ञान ही पालते है। इसलिए आमनित्व का यह गुण इन 20 गुणों में सर्वप्रथम बताया गया था।

ऊपर वर्णित सभी गुण, आदतें, व्यवहार और दृष्टिकोण बुद्धि और ज्ञान की वृद्धि की ओर ले जाते हैं।  इनके विपरीत हैं घमंड, पाखंड, हिंसा, प्रतिशोध, कपट, गुरु के प्रति अनादर, शरीर और मन की अशुद्धता, अस्थिरता, आत्म-नियंत्रण की कमी, इन्द्रिय विषयों की लालसा, अहंकार, जीवनसाथी, बच्चों, घर आदि में उलझना। ऐसे स्वभाव आत्म-ज्ञान के विकास को बाधित करते हैं। इसलिए, श्रीकृष्ण उन्हें अज्ञान और अंधकार कहते हैं।

इसी प्रकार बचपन से अब तक हमने अनेक धर्म की पुस्तके पढ़ी, मंदिरों में गए, धार्मिक कार्यक्रम में भजन – कीर्तन, प्रवचन और भागवत पुराण आदि सुने। शिविर भी किए और ध्यान – योगासन आदि किए। यह सब उस ईंटो, पत्थर, रेती, सीमेंट आदि के ढेर की तरह हमारे मस्तिष्क में जमा है, जिन्हे हम इन 20 गुणों से युक्त हो कर अध्यात्म ज्ञान और तत्व ज्ञान से एक इमारत में बदल सकते है। जानकारी कच्चे समान के रूप में हमारे मन – मस्तिष्क में जमा है, जब तक हम अपने को कुशल कारीगर के रूप में ज्ञान द्वारा तैयार नहीं करते, यह एक कूड़े के ढेर के समान ही है। हम जीवन में कचरा बिनने वाले के रूप में कितना भी कार्य करें, महल तभी तैयार होगा जब अध्यात्म और तत्व ज्ञान से हम उस कचरे से क्रियात्मक सृष्टि की रचना के रचनाकार को समझे। क्षेत्र को समझने से ज्ञान नही होता, क्षेत्रज्ञ को समझ पाना संभव नहीं, इस के आत्मिक गुणों का विकास और तत्व ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि ज्ञेय को प्राप्ति करने के ज्ञान द्वारा ज्ञाता होना आवश्यक है।

प्रकृति को क्रिया करने के लिए जीव की आवश्यकता होती है, इसलिए  वह किसी भी हालत में जीव को प्रकृति को छोड़ कर तत्व ज्ञान की ओर जाने से रोकती है, इस के तरह तरह के प्रलोभन प्रकृति प्रदान करती है। आप का संपूर्ण शरीर, मन, इंद्रियां आप को नदी के किनारे खड़े कर के, डूबने का डर दिखाते रहते है। किंतु जो पानी में नही उतरता वो तैरना भी नही सीख सकता।

पशु भी खाने, सोने, संभोग करने और रक्षा करने जैसी शारीरिक गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। हालाँकि, भगवान ने विशेष रूप से मानव रूप को ज्ञान की क्षमता से आशीर्वाद दिया है। यह हमें शानदार तरीके से शारीरिक गतिविधियों में संलग्न होने में सक्षम बनाने के लिए नहीं है, बल्कि हमें इन सवालों पर चिंतन करने के लिए है: “मैं कौन हूँ? मैं यहाँ क्यों हूँ? जीवन में मेरा लक्ष्य क्या है? यह दुनिया कैसे बनी? निर्माता के साथ मेरा क्या संबंध है? मैं जीवन में अपने उद्देश्य को कैसे पूरा करूँगा?” सत्य की यह दार्शनिक खोज हमारी सोच को पशुवत स्तर से ऊपर उठाती है और हमें ईश्वर-प्राप्ति के दिव्य विज्ञान के बारे में सुनने और पढ़ने के लिए लाती है।

भौतिकवादी मन की निशानी यह है कि उसे सांसारिक लोगों और सांसारिक मामलों की चर्चा में आनंद आता है। जो व्यक्ति दिव्य चेतना का विकास कर रहा है, वह इन गतिविधियों के प्रति स्वाभाविक रूप से अरुचि विकसित कर लेता है और इस प्रकार सांसारिक समाज से दूर रहता है। साथ ही, यदि ईश्वर की सेवा के लिए इस में भाग लेना आवश्यक हो, तो भक्त इसे स्वीकार कर लेता है और मानसिक रूप से इससे अप्रभावित रहने की शक्ति विकसित कर लेता है।

यह ज्ञात रहे अभी हम ज्ञान योग ने अध्याय सात से आगे पढ़ रहे जहां भक्ति, कर्म एवम ज्ञान योग लगभग एक सा मार्ग अपना चुका होता है। ज्ञानी के देहाभिमान का त्याग होना परम आवश्यक है क्योंकि क्षेत्रज्ञ इस से परे है।

ज्ञानम आंतरिक स्वतंत्रता देता है; और फिर अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण गुण आता है जो है अध्यात्म ज्ञान नित्यत्वम। इसलिए एक योग्य आचार्य के मार्गदर्शन में, लंबे समय तक वेदान्तिक शास्त्रों का व्यवस्थित और सुसंगत अध्ययन आवश्यक है। उदाहरण के लिए, यदि आप ईंटों को एक के बाद एक अच्छी तरह से सीमेंट से जोड़कर व्यवस्थित करते हैं, तो ईंटों के ढेर से आपको एक शानदार कमरा मिलता है जिस में आप रह सकते हैं। तो दोनों स्थितियों में ईंटें हैं; एक अच्छी तरह से व्यवस्थित है और दूसरी ढेर है।

आत्मविषयक ज्ञान का नाम अध्यात्म ज्ञान है, उस मे मन की नित्य स्थिति तथा इन साधनों द्वारा उत्पन्न होने वाला जो तत्व ज्ञान उस का अर्थ जो संसार से उपरति रूप मोक्ष, उस की खोज करना है। यह ज्ञान अहम को समाप्त किये बिना संभव नही।

आत्मा के अधिपत्यवाले ज्ञान में एकरस स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार- यह सब तो ज्ञान है और इस मे जो विपरीत है, वह सब अज्ञान है- ऐसा कहा गया है।

अमानित्वम से तत्वज्ञान दर्शन तक बताए हुए गुणों को आत्मसात करना, व्यवहार में लाना एवम आचरण में रहने, बोलने, सुनने एवम कार्य करने में इस ज्ञान की पुष्टि ही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के ज्ञान की पुष्टि है। इस पर भगवान श्रीकृष्ण कहते ही यदि साधक इन सब तत्वों से पूर्ण नही है और इन 20 गुणों से युक्त नहीं है, तो वो जो कुछ भी प्राप्त करता है, जानता है या करता है वह सब अज्ञान है।

आत्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी है, उस से भिन्न जो नाशवान, जड़, विकारी और परिवर्तनशील वस्तुएं प्रतीत होती है- वे सब अनात्मा है, आत्मा का उन से कुछ भी संबंध नहीं है। शास्त्र और आचार्यो के उपदेश से इस आत्मज्ञान को भली भांति समझ लेना ही अध्यात्मज्ञान है।

फिर अगला गुण; दूसरे शब्द की पहली पंक्ति में,तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्। ये सभी गुण या मूल्य ज्ञान योग्य प्राप्ति के लिए निर्धारित किए गए हैं। और ज्ञान की पात्रता प्राप्त करके, आप अंत में क्या हासिल करते हैं? स्वयं ज्ञानम। और अगर मुझे ज्ञान योग्य के लिए मूल्य रखना है, तो मुझे ज्ञानम के लिए भी मूल्य रखना चाहिए। जब ​​मैं GMAT, TOFEL आदि की परीक्षा को महत्व दूंगा। मैं उन सभी परीक्षाओं को महत्व देता हूँ जब मैं लाभ या उन परीक्षाओं के परिणाम को महत्व देता हूँ। मैं एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में शामिल होना चाहता हूँ। जितना अधिक मूल्य मैं साध्य के संबंध में रखूँगा, उतना ही मेरे पास साधनों के लिए भी मूल्य होगा।

तत्वज्ञान का अर्थ है – सच्चिनंदघन पूर्ण ब्रह्म परमात्मा; क्योंकि तत्वज्ञान से उन्ही की प्राप्ति होती है।

तत्वज्ञानी शरीर एवम आत्मा को पृथक पृथक जानते है। वो शरीर को प्रकृति का भाग समझते है एवम आत्मा को परमात्मा का। इसलिये शरीर या प्रकृति के किसी भी गुण का बंधन आत्मा से साक्षात्कार नही करवा सकता।

इसलिए साधनों का प्रेम, साध्य के प्रेम के सीधे समानुपाती है। और इसलिए, इन गुणों का मैं मूल्यांकन करूँगा यदि मेरे पास ज्ञानम के लिए मूल्य है। फिर मेरे पास ज्ञानम के लिए मूल्य कब होगा। वह मेरे पास तभी होगा जब मैं ज्ञानम का लाभ जानूँगा, तत्व ज्ञान अर्थ; तत्व ज्ञानम, तत्वम का ज्ञान, वास्तविकता; अर्थः का अर्थ है प्रयोजनम या फलम्। तत्व ज्ञान अर्थः का अर्थ है ज्ञान फलम्, मुझे पता होना चाहिए कि इस ज्ञान से मुझे क्या मिलेगा? अन्यथा मुझे आश्चर्य होगा कि मुझे अध्ययन क्यों करना चाहिए और क्यों जानना चाहिए।  और इसीलिए, कृष्ण बार-बार इस ज्ञान का लाभ देते हैं, स्थिर प्रज्ञा लक्षणानि से निपटते हुए, परा भक्त लक्षणानि से निपटते हुए, उन्होंने कहा कि इस ज्ञान का क्या लाभ है।

सभी सात्विक गुण मन को तैयार करते हैं और यह शिक्षण सुनने से ज्ञान उत्पन्न होता है। एक है तैयारी, दूसरा है ज्ञान का उत्पादन, दोनों को साथ- साथ चलना चाहिए।शंकराचार्य कहीं और बताते हैं, यह पथ्यम और औषधिम की तरह है। पथ्यम का मतलब है रोगी द्वारा पालन किया जाने वाला अनुशासन। इसलिए अगर उसे शुगर की समस्या है, तो वे कहेंगे कि ज्यादा मत खाओ। प्रेशर की समस्या है, नमक से परहेज करो। ये सभी पथ्यम के अंतर्गत आते हैं। लेकिन पथ्यम अकेला रोग ठीक नहीं कर सकता; इसे औषधि के साथ लेना चाहिए। कल्पना कीजिए कि एक रोगी बिना पथ्यम के औषधि ले रहा है। इस तरफ से इंसुलिन और उस तरफ से मैसूरपाक, किलो में। वह काम नहीं करेगा। इसलिए पथ्यम स्थिति प्रदान करता है; औषधिम रोग को ठीक करता है  यदि आप केवल सद्गुणों का पालन करते हैं और शास्त्र का अध्ययन नहीं करते हैं, तो इसका मतलब है कि आप औषधि नहीं ले रहे हैं। औषधि के बिना पथ्य, पथ्य नहीं है, यह पैठ्यम है।

रावण को परम ज्ञानी कहा जाता है, किन्तु वो सब कुछ जानते हुए भी देहाभिमान से मुक्त नही था, इसलिये अज्ञानी ही था। रावण एवम राम के आचरण और चरित्र से हम जानकार और ज्ञानी के अंतर को समझ सकते है। जब तक तत्व ज्ञान की जानकारी हमारे जीवन में आत्मसात नही होती, हमारा जीवन या आचरण प्रकृति के त्रयगुणो से मुक्त नही हो सकता।

परमात्मा अर्थात वह एकमेवद्वितीय वस्तु जिस ज्ञान के सहयोग से दृष्टिगत होतीं है वास्तव में वही सच्चा ज्ञान है। इस के अलावा संसार और स्वर्ग विषयक जो ज्ञान है, उन सब को निश्चय पूर्वक अज्ञान समझ। एक प्रवक्ता की भांति गीता का सम्पूर्ण पाठ करने वाला भी यदि इन गुणों से युक्त नही है, तो वह कुछ नही जानता, उसे अज्ञानी की कहा जायेगा।

ज्ञान का प्रारम्भ विन्रमता से होता है। परमब्रह्म को जानना सीढ़ियों पर चल कर जाने के समान है। ईश्वर को ईश्वर बन कर या उस से बराबरी कर के नही जाना जा सकता क्योंकि जीव प्राकृतिक कठोर नियमो से बंधा है, ईश्वर से विद्रोह प्रकृति का बंधन है इसलिये आध्यात्मिक ज्ञान धीरे धीरे सीढ़ी दर सीढ़ी चल कर ही प्राप्त करना चाहिए। अतः जो यह सब करने में असमर्थ हो उन्हें भक्त के 35 गुण जो अध्याय 12 में बताए हुए है, उन को धारण करना चाहिए।

जो परम सत्य के वास्तविक ज्ञाता है, वे जानते है कि आत्मा का साक्षात्कार तीन रूपो में किया जाता है – ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान। परम सत्य के साक्षात्कार में भगवान पराकाष्ठा होते है, अतएव मनुष्य को चाहिए कि भगवान को समझने के पद तक पहुचे और भगवान की भक्ति में लग जाये। यही ज्ञान की पूर्णता है।

प्रस्तुत गुण किसी साधक के ज्ञान प्राप्ति के लिये अनिवार्य तत्व है क्योंकि यदि पंचामृत को दुर्गन्धयुक्त पात्र में डालने से पंचामृत अपवित्र होगा ऐसे ही मान, दम्भ, आसक्ति, अभिमान भरे हृदय एवम अशुद्ध मन एवम विकृति युक्त बुद्धि जीव में जो भी ज्ञान भरा जाएगा वो भी अशुद्ध एवम आसुरी संपदा युक्त हो जाएगा।

ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय इन तीन में तत्व ज्ञान पूर्ण होता है। ज्ञाता में 20 गुणों के समावेश होने से ज्ञान का अधिकार मिलता है, वह ज्ञान प्राप्त होने से ज्ञेय की जानकारी मिलती है। पुस्तक, कंप्यूटर या सोशल मीडिया से आत्मा – परमात्मा पढ़ लेने से ज्ञान या तत्व ज्ञान नही होता। इस के लिए वर्षो अथक अभ्यास करना पड़ता है।

श्री वसिष्ठजी कहते हैं ‘बुद्धि – वृत्ति का, प्रकाश का, दृश्य का, अज्ञान का जो साक्षीभूत अनादि – अनन्त ज्ञान है, वही उस परमात्मा का रूप है। ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञाता – यह त्रिपुटी जहाँ उदित होती है , जिसमें स्थित रहती है, जिसमें ही लीन हो जाती है, वही उस परमात्मा का रूप है।।’

आगे उपर्युक्त ज्ञान के द्वारा जानने योग्य ज्ञेय वस्तु क्या है, इसे हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 13.12।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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