।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.11 II
।। अध्याय 13.11 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.11॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥
“mayi cānanya-yogena,
bhaktir avyabhicāriṇī..।
vivikta- deśa- sevitvam,
aratir jana-saḿsadi”..।।
भावार्थ:
मेरे अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को प्राप्त न करने का भाव, बिना विचलित हुए मेरी भक्ति में स्थिर रहने का भाव, शुद्ध एकान्त स्थान में रहने का भाव और सांसारिक भोगों में लिप्त मनुष्यों के प्रति आसक्ति के भाव का न होना। (११)
Meaning:
Single-pointed devotion in me through unwavering yoga, going to solitary locations and disinterest in the assembly of people.
Explanation:
Shri Krishna adds three further attributes that help us reduce the impact of the field or the kshetra. He stresses upon the importance of single- pointed devotion by bringing up the word “vyabhichaari”. At one level it means wavering or unsteady, but at another level it refers to someone who is unfaithful to their spouse. True devotion to Ishvara has to be “avyabhichaari” or unwavering, where there is no “anya”, no other goal such as getting good marks in our exams, or generating extra profit in our business. We only ask such material goals when we doubt the omniscience, the all-knowing nature of Ishvara.
“Vivikta desha” refers to a location that is pure and conducive to meditation and contemplation. But this does not suggest retiring to a forest. It means finding a time and place every day where we can be free of distractions such as cell phones, television and Internet. If we are constantly pulled into the world by such distractions, contemplation upon Ishvara becomes impossible. But if we spend ten to fifteen minutes without any distractions, and make it a habit, we will automatically begin the process of quietening our mind and contemplating upon Ishvara.
“Jana samsad” means assembly of people. And we all know that wherever two or three people meet without any agenda, there is going to be discussion about all the goings on in the world, or even gossip. This assembly of people forces one to join in the conversation and again get sucked into praakrita or material interests. Now “ratihi” means one who revels. So therefore, one who prefers not to indulge in such gossip is called “janasamsadi aratihi”. In fact, as our devotion towards Ishvara increases, interest for external stimuli, including meeting constantly, will slowly subside.
Shri Krishna adds two more attributes in the next shloka to conclude this topic.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व के श्लोक में प्रथम में हम ने 12 गुणों को पढ़ा, फिर किस प्रकार का वैराग्य एवम निर्लिप्त भाव होना चाहिए, यह 3 गुणों में बताया गया। अब परमात्मा हमे किस प्रकार से रहना चाहिए, इन दो गुणों से बता रहे है।
16. अव्याभिचारणी भक्ति: अर्थात परमात्मा की अनन्य योग से भक्ति करना।
17. आत्मदर्शन हेतु ध्यान, चिंतन, मनन करते हुए एकांत एवम रमणीक स्थान में बैठना
18. लोग हमे जाने या हम लोगो को जाने, इस प्रकार की प्रीति रखते हुए, भीड़ भाड़ के जन समुदाय से दूर रहना।
ज्ञान योग में ध्यान लगाने के जिन उपायों को बताया गया था, वो ही अब पुनः क्षेत्रज्ञ की प्राप्ति के लिये बताया जा रहा है। हमे यह ज्ञात रहना चाहिए कि क्षेत्र को जानने के पश्चात हमे क्षेत्रज्ञ के ज्ञान के लिए कौन से गुण चाहिए, पढ़ रहे है।
जब आप अपनी कामना की पूर्ति के लिये एक से अधिक से व्यापार या कर्म करते है तो यह व्यभिचार कहलाता है। व्यभिचार का अर्थ एक से अधिक कर्मो और इच्छाओं की पूर्ति हेतु इधर – उधर भटकना। पूजा आदि में भी यदि आप नमन या सम्मान सभी देवी देवताओं को देते है किंतु अपना अराधेय एक को ही मानते है तो यह अव्यभिचारिणी भक्ति या योग है। परमात्मा कहते है भगवान ही सर्वश्रेष्ठ है, वे ही हमारी स्वामी, शरण ग्रहण करने योग्य, परमगति, परम आश्रय, माता पिता, भाई- बंधु, परम हितकारी, परम आत्मीय और सर्वस्व है एवम उन को छोड़ कर अन्य कोई भी नही है। तो यह अव्यभिचारिणी भक्ति होगी। मन का एकाग्र होना, स्थिर एवम चंचलता से दूर होना एवम एकनिष्ठ होना ही अव्यभिचारण है।
अनन्ययोग से मुझ में अव्यभिचारिणी भक्ति अनन्यता का अर्थ है मन का ध्येय विषय में एकाग्र हो जाना। इसके लिये विजातीय वृत्तियों का सर्वथा त्याग करके ध्येयविषयक वृत्ति को ही बनाये रखने का अभ्यास आवश्यक होता है। ध्यान या भक्ति में इस स्थिरता के नष्ट होने के लिए दो कारण हो सकते हैं या तो साधक के मन की अस्थिरता या फिर ध्येय का ही निश्चित नहीं होना जब तक ये दोनों ही स्थिर नहीं होते, भक्ति या ध्यान सफल नहीं हो सकता। यदि हमारी भक्ति एक मूर्ति से अन्य मूर्ति में परिवर्तित होती रहती है तो एकाग्रता कैसे सम्भव हो सकती है इसलिये यहाँ कहा गया है कि योग में प्रगति और विकास के लिए अनन्य योग से परमात्मा की भक्ति आवश्यक है। यहाँ लक्ष्य की स्थिरता के विषय में कहा गया है।अविभाजित ध्यान तथा मन में उत्साह के होने पर पर भक्ति में एकाग्रता आना सरल कार्य हो जाता है।
कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ।तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ।
जब साधक उन के अनुकूल वातावरण में रहता है। इस बात को इन दो गुणों से दर्शाया गया है (क) एकान्तवास का सेवन तथा (ख) जनसमुदाय में अरुचि। मनुष्य का मन जितना अधिक शुद्ध एवं भोगों से विरत होता जाता है, उसकी ज्ञान की जिज्ञासा उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। स्वाभाविक ही है कि फिर वह ज्ञान की पिपासा को शान्त करने के लिए लोगों के समुदाय से दूर जहाँ ज्ञान उपलब्ध हो वहाँ चला जाता है। यह बात कवि, लेखक, वैज्ञानिक आदि लोगों के विषय में भी सत्य है। इन सब को फिर एक ही लक्ष्य दिखाई देता है और इन्हें लौकिक बातों में कोई रुचि नहीं रह जाती।यहाँ जिस समुदाय में अरुचि रखने को कहा गया है वह असंस्कृत, असभ्य, भोगों में आसक्त जनों के समुदाय के सम्बन्ध में कहा गया है, न कि सन्त पुरुषों के संग से। सत्संग तो ज्ञान का साधक होता है बाधक नहीं। एकान्तवास तथा जनसमुदाय से अरुचि का कोई व्यक्ति यह विपरीत अर्थ न समझे कि यहाँ जगत् से पलायन या समाज से द्वेष करने को कहा,गया है।
मनुष्य एवम प्रकृति का अभिन्न नाता है, सुबह सुबह जब भी किसी बगीचे में जाये जहां हरी घाँस उगी हो। वृक्ष हो, पानी हो एवम स्वच्छता हो तो अन्तःकरण में प्रफुल्लता का उद्गम होता ही है, मन उस स्थान में आंख बंद कर के आनंद लेने लगता ही है। परमात्मा का भी यही कहना है कि उस को ध्यान लगाने के एकांत, प्राकृतिक, स्वच्छ एवम पर्याप्त वातावरण वाला स्थान होना चाहिए। यहाँ बैठ कर एकनिष्ठ भाव से जो परमात्मा का ध्यान लगाता है वो अपने अन्तःकरणों के विकारों से मुक्त हो कर परमात्मा को जल्दी प्राप्त होता है।
एकान्त स्थानमें जानेका लाभ तभी है, जब देहाभिमानके नाशका उद्देश्य मुख्य हो।वास्तविक एकान्त वह है, जिसमें एक तत्त्व के सिवाय दूसरी कोई चीज न उत्पन्न हुई, न है और न होगी। जिसमें न इन्द्रियाँ हैं, न प्राण हैं, न मन है और न अन्तःकरण है। जिसमें न स्थूलशरीर है, न सूक्ष्मशरीर है और न कारण शरीर है। जिसमें न व्यष्टि शरीर है और न समष्टि संसार है। जिसमें केवल एक तत्त्व ही तत्त्व है अर्थात् एक तत्त्व के सिवाय और कुछ है ही नहीं।
यहाँ विनय भाव रहित संस्कार शून्य प्राकृत पुरुषों के समुदाय का नाम ही जनसमुदाय है। विनययुक्त संस्कार सम्पन्न मनुष्यों का समुदाय जनसमुदाय नहीं है क्योंकि वह तो ज्ञान में सहायक है। प्राकृत जनसमुदाय में प्रीति का अभाव ज्ञान का साधन होने के कारण ज्ञान है। चिंतन अर्थात ध्यान अर्थात एकाग्रता अर्थात मनोनिग्रह तभी संभव है, जब शोरगुल से परे एकांत में इस पर ध्यान दिया जाए। इसलिए निदिध्यासन की स्थिति भी एकांत चिंतन से ही प्राप्त हो सकती है।
इसी प्रकार संगति का भी असर हमारे अन्तःकरण की शुद्धता पर पड़ता है। शोर गुल, भीड़ भाड़ एवम अस्वच्छ स्थान से हमारी मनोवृति में बेचैनी रहती है। ऐसे ही भौतिक विचारों वाले व्यक्तियों की संगति से भी हमारा मन कामनाओं की पूर्ति की ओर भटकता रहता है। इसलिये अनैतिक, भौतिक, अनाचार, अधर्म के कार्य करने वाले की संगति आप को कभी भी उन्नति या सत्य के मार्ग पर नही ले जा सकती। द्रोण, भीष्म, कर्ण आदि कितने ही एकनिष्ठ, ज्ञानी एवम अपने धर्म का पालन करने वाले रहे किन्तु उन की संगति या सहयोग दुर्योधन के साथ होने से उन युद्ध मे सफलता नहीं मिली।
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।
ऐक घड़ी आधो घड़ी , आधो हुं सो आध। कबीर संगति साधु की, कटै कोटि अपराध।
व्यवहारिक जीवन मे उपरोक्त तीनो गुण विद्यार्थी, व्यवसाय करने वाले CA, Dr , वकील एवम व्यापारी, शिक्षक सभी पर लागू होती है कि उन को यदि क्षेत्र में उन्नति चाहिए तो इन गुणों के बिना संभव नही।
।। हरि ॐ तत सत।। 13.11।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)