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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  13.09 II Additional II

।। अध्याय      13.09 II विशेष II

।। मिथ, मिथक, इतिहास, पुराण और ज्ञान ।। विशेष 13.09 ।।

A myth is a well- known story which was made up in the past to explain natural events or to justify religious beliefs or social customs.

There is a famous Greek myth in which Icarus flew too near to the Sun. 

If you describe a belief or explanation as a myth, you mean that many people believe it but it is actually untrue.

Contrary to the popular myth, women are not reckless spendthrifts. 

कल्पित कथा, अंग्रेजी के शब्द ‘मिथ’ (Myth) का समानार्थी शब्द है। मिथ में उन काल्पनिक कथाओं को लिया जाता है जो मुनष्य के ब्रह्मांड, प्रकृति और मानव व्यवहार/जीवन से संबंधित प्रश्न के उत्तर में उदाहरण के रूप से सम्बंधित हो। मिथ दो प्रकार की होती है- प्रकृति के साथ जुडी और पारलौकिक।

A traditional story accepted as history; serves to explain the world view of a people

Myth is a folklore genre consisting of narratives that play a fundamental role in a society, such as foundational tales or origin myths. Since the term myth is widely used to imply that a story is not objectively true, the identification of a narrative as a myth can be highly controversial: many adherents of religions view their own religion’s stories as true, and therefore object to those stories being characterized as myths, while seeing the stories of other religions as being myth. As such, some scholars label all religious narratives as myths for practical reasons, such as to avoid depreciating any one tradition because cultures interpret each other differently relative to one another. Other scholars avoid using the term “myth” altogether and instead utilize different terms like “sacred history”, “holy story”, or simply “history” to avoid placing pejorative overtones on any sacred narrative.

किंवदंती दृष्टांत स्वरूप उल्लेख की जानेवाली विपर्यस्त अथवा असंबद्ध इतिहास की घटनाओं के आधार पर लोकजीवन में प्रचलित कथाओं को कहते हैं। सामान्यत: इस शब्द का प्रयोग दंतकथा और अनुश्रुति के रूप में किया जाता है किंतु इससे ध्वनित होने वाली कथाएँ उनसे किंचित भिन्न होती हैं।

घर मे छोटे बालक को भोजन कराने की लिए प्रायः माँ अपने बच्चों को “बाऊ” या चौकीदार आदि का डर दिखाती है, तो कम बुद्धि के बालको को पढ़ाने के उन की रुचि का ध्यान रखते हुए कहानी का सहारा लिया जाता है। पंचतंत्र की कहानियां इस बात का सबूत है कि कैसे राजा के उद्दंड  एवम न पढ़ने वाले बालको को शास्त्री शर्मा ने कहानियां सुना सुना कर पढ़ाया। किन्तु उन कहानियों को जिन्हें बचपन मे हम सत्य समझते है, बड़े होने पर शिक्षित होने से उन का महत्व और सत्यता को समझ सके।

हमारे ऋषि-मुनि गुरुकुल में बालको को पढ़ाते थे, वे उन्हें ज्ञान की बाते वेद मंत्रों, यज्ञ याज्ञ की शिक्षा के साथ, राजनीति, धर्म और युद्ध आदि आदि की शिक्षा भी देते थे। किंतु सामान्य जन जो गुरुकुल में शिक्षा नही प्राप्त कर सकते थे, उन को ज्ञान देने का माध्यम उन छोटी छोटी कथाओं और पाप-पुण्य का भय था। इन्ही में कुछ कथाएं पुराणों में वर्णित है।

कालांतर में सनातन धर्म मे स्वार्थ से पतन हुआ तो कुछ पंडितो में पाप-पुण्य का प्रयोग अपने स्वार्थ, पद और सत्ता के लिये किये, जिस से कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था चरमराने लगी। इस का कारण शिक्षा और ज्ञान का सत्ता द्वारा व्यवसायिक करण रहा होगा। इसी कारण अपने अपने मत से मतान्धनत समूह के आक्रमण से इस देश की सभ्यता और संस्कृति पर आघात होने लगे और धर्म के ज्ञान के नाम पर कई असंगत मिथक और किदवंतियो को लिख कर सनातन धर्म को अभ्रंश किया गया।  यह काम मुगल काल और अंग्रेजो के समय मे  वामपंथियों, स्वार्थी हिंदुओ और तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा अधिक किया गया। उत्तरोत्तर में हिन्दू अधिक से अधिक स्वार्थी होता गया और यह स्वार्थ उस के धर्म मे भी प्रविष्ट कर गया।

अत्यधिक श्रद्धा और विश्वास अंधविश्वास में परिवर्तित होता है। यह अंधविश्वास उस किदवंदीयों से जुड़ा जो चमत्कार के नाम पर कहानियां सुना सुना कर लोगो को धर्म भीरू और कर्महीन बनाने लगे। सरलता और मूर्खता में अंतर होता है किंतु सरलता के नाम पर मूर्खता को परमात्मा की प्राप्ति का उपाय बताया गया। यह मिथ नही तो और क्या है?

किसी भी सामान्य जन में मानवीय संवेदनाएं अत्यधिक प्रभावशाली होती है। एक इंसान दूसरे इंसान को भावुक बना कर मूर्ख भी बनाता है। सिनेमा, आज की पत्रकारिता, देश के नेतृत्वशीलता और विज्ञापन द्वारा बड़ी बड़ी कंपनियों द्वारा यह कार्य काफी जोरो से किया जाता है।

उदाहरण में हम मुगले आजम पिक्चर का जिक्र करे, तो हमे ज्ञात होगा कि जिस अकबर और जोधा की कहानी और अनारकली की कहानी का सशक्त सिनेमाकरण किया गया था, वह कोई वास्तविक कहानी नही थी। आज सिनेमा में कल्पना के नाम पर पुराने इतिहासिक तथ्यों से जो भी जोड़-तोड़ किया जाता है, उस का प्रभाव ही, उन लोगो पर विपरीत पड़ता है, जो अध्ययन नही करते।

सनातन धर्म मे ज्ञान के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं को आपसी प्रेम और सहिष्णुता अधिक प्रचारित किया गया, जिस से सनातन धर्म जिसे अन्य धर्मों द्वारा हिन्दू धर्म कहा गया, का काफी बढ़ा वर्ग जो गुरुकुल शिक्षा से वंचित रह गया, इन मिथक, किदवंतियो से धर्म की न केवल शिक्षा ले रहा है, अपितु उसे ही ज्ञान भी समझ रहा है।

हमारे हजारों साल के ज्ञान को आक्रांताओं ने नष्ट करने का अथक प्रयास किया किन्तु हमारे ऋषि- मुनियों के विस्तृत जन जन तक पहुचाये ज्ञान को खत्म नही कर पाए। आज इस ज्ञान को बुद्धि और विवेक से पुनः समझने की आवश्यकता है, उसे वही समझ सकता है जो ज्ञानी है, जिस में इस अध्याय में बताए सभी गुण हो। किन्तु सामान्य जन की भांति हम इस ज्ञान को यह करो और यह न करो कि भांति रूढ़िवादी तरीके से कर्मकांडी हो कर अधिक सीख रहे है। हम सोचते है कि नमन करने से और कंठस्थ करने से यह ज्ञान चमत्कारी स्वरूप में हमारे अंदर आ जायेगा। हम ज्ञान-विज्ञान में उपभोग तो सीख गए किन्तु अनुसंधान कर के तथ्यों की बारीकी को नही खोज पा रहे। किन्तु यह बात सभी पर लागू नही, क्योंकि नरश्रेष्ठ लाखो में एक होता ही है जो ज्ञान को ज्ञानी की भांति ग्रहण करता है। हम आवश्यकता उस नरश्रेष्ठ बनने की है। जो यह सोचते है कि ज्ञान को चमत्कार से प्राप्त किया जा सकता है, उन्हें अपना बौद्धिक स्तर उठाना होगा।

हमारे पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों को कुछ हद तक अभ्रंश कर देने से इन का इतिहासिक भाग को तय करना कठिन हो गया और अब एक वर्ग इन्हें मिथक घोषित करने में लग गया। किन्तु सत्य यही है कि पुराण, रामायण और महाभारत का बहुत बड़ा भाग इतिहासिक ही है, जिस में ज्ञान हो अत्यंत उपयोग पूर्ण तरीके से पिरोया गया है। किन्तु इस मे अभ्रंश को समझना और उसे नही ग्रहण करने के लिये आवश्यकता ज्ञान की है।

ज्ञान के लिए महत्व उस में उपलब्ध कथा का नही होता। किसी कथा के पात्र, कहानी से अधिक महत्व उस में दी गई शिक्षा का है। अल्पज्ञानी कहानी को याद करते है और ज्ञानी कहानी के सार को।

आज के युग मे जब भौतिकवाद का अधिक प्रभाव है तो ज्ञान का भी व्यवसायिक करण हो गया। इस लिये गीता और वेदों को पढ़ने और पढ़ाने वाले इसे भी आय का साधन बना रहे है। जो जीव स्वयं में लोभ, मोह, स्वार्थ एवम राग-द्वेष में फसा हो, वह मोक्ष के ज्ञान की शिक्षा कैसे दे सकता है? उस का चिंतन, मनन और वाणी दूषित है तो उस से शुद्धता की आशा रखना ही गलत है।

हम गीता है तीसरे खंड में ज्ञान के अध्याय को अध्ययन कर रहे है। भगवान श्री कृष्ण क्षेत्र का ज्ञान देने के बाद क्षेत्रज्ञ को नही बताते, क्योंकि क्षेत्रज्ञ की जानने की पात्रता होना जरूरी है।  इसलिए वह उस ज्ञान की बात कर रहे है जो जीव के आचरण और स्वभाव में होना चाहिए, मन-बुद्धि तक नही।

अध्याय 13 के नवम श्लोक में ज्ञानी को इन्द्रियों के विषयो के प्रति विरक्ति की बात कही गई है और इस के साथ अहंकार के त्याग की बात कही है। यही कथन मिथ, मिथक, इतिहास, पुराण और ज्ञान के लिये भी है। जब तक  विरक्ति नही होगी हम ज्ञान को पढ़ नही सकते, हम इन सब मे अपनी कामनाओं, आसक्ति, सुख को खोजते है, जो चित्र, कथा, कहानी, किस्से हमारे मन मे आनन्द देते है, उन से आनन्दित हो कर उसे सभी मे बांटते है। परमात्मा कहते है कि ज्ञान के लिए इन्द्रियों का उपयोग करो किन्तु इस के विषय, कामना और आसक्ति का त्याग करो। तभी पुराण, उपनिषद, वेद या गीता को पढ़ कर ज्ञान उत्पन्न होगा और तभी उस के मिथक, कथा, कहानी को हम सही अर्थों में समझ सकेंगे। परीक्षित की अभिलाषा मोक्ष की थी, उस को मोह शरीर और मृत्यु का था। इसलिए भागवद पुराण को ब्रह्म स्वरूप शुकदेव जी के मुख से सुनने और परमात्मा की लीलाओं में आनन्द लेने से उस का मोह भंग हो गया।

अतः यहाँ  यह कहना अनुपयुक्त नही होगा कि ज्ञान अर्थात क्षेत्रज्ञ के जानने के लिये सही मार्गदर्शन हमे वेदों और उपनिषद से मिल सकता है। किंतु इतने ग्रंथो के अध्ययन करना यदि संभव न हो तो उस के सार ग्रन्थ गीता का अध्ययन से किया जा सकता है, जिस की पृष्ठभूमि इतिहासिक कथा महाभारत में तैयार की गई है। वेदों और उपनिषद में कोई मिथक और किदवंतियो को आधार न बना कर जो भी कहा गया है, स्पष्ट और सरल रूप में सीधे सीधे कहा गया है।

समाज मे यदि ज्ञान के उन्नत होने का कोई अवसर प्राप्त हो तो उसे ग्रहण करना चाहिए। किन्तु अभी भी समाज का एक बड़ा सा वर्ग संवेदना, भावुकता और कथा-कहानियों पर ज्यादा विश्वास करता है। इतना ही नही, वह अपनी कल्पना के आधार पर नई नई कहानीयाँ भी रच लेता है। देश का एक प्रबुद्ध वर्ग आज भी स्वार्थ, लोभ, पद और सत्ता में सनातन धर्म की पुनः स्थापना के लिये धर्म, न्याय और वर्ण व्यवस्था के लिये सत्य भाषण या ज्ञान नही देता। आश्चर्य यह भी है कि लोग बिना ज्ञान के वाद-विवाद के लिये भी तैयार रहते है। अध्याय 10.32 में हम पढ़ चुके है कि जब दूसरे पक्ष कोई बिना सुने समझे सिर्फ अपनी बात पर अड़े रहना वाद-विवाद में वितण्डा होती है।

गीता के अध्ययन में मुझे कई विद्वानों से मिलने का मौका मिला, जिन में कुछ लोगो को गीता पूरी कंठस्थ है। कुछ को प्रत्येक श्लोक का अर्थ भी ज्ञात है। कुछ लोगो मे अपनी पुस्तक भी बना कर बाजार में बिकवा दी, मानो यह ज्ञान उन्होंने ही दिया, बिल्कुल कॉपीराइट के साथ। क्या हम इन्हें ज्ञानी कह सकते है? पता नही?  क्योंकि किसी की आलोचना या उस को सही या गलत कहने का अधिकार भी उन्हें ही है जो ज्ञानी हो, और ज्ञानी कुछ भी नही कहता। यह लोग असमान्य बुद्धिमान होते है, धर्म ग्रंथो का इन का ज्ञान श्रेष्ठ होता है। व्यवहार में इन में कोई घमंड भी नहीं होता, इन के अनुयायी भी अनेक होते है।

अज्ञान में ज्ञान जब हम सीखते  है तो अधूरे होते है। जैसे प्रेम शब्द जिस रूप में गोपियों और कृष्ण के बाल्यकाल में दिखाया गया है, वह निस्वार्थ और निष्काम था। कोई वासना या कामना नहीं किंतु उसी प्रेम को सिनेमा में स्त्री पुरुष के माध्यम से प्रस्तुत कर के विकृत किया गया। राधा और कृष्ण के प्रेम के स्वरूप में दोनो की सामाजिक हदें तक पार कर के चित्र अक्सर व्हाट्सएप पर सात्विक या भगवद ग्रुप में आते है और यदि कोई ऐतराज उठाया जाए तो उंगली भी ऐतराज करने वाले की नियत पर उठती है।

अन्य कई solo group भी भगवान या सात्विक भावनाओ पर चलते है जिस ने अन्य उसी प्रकार ग्रुप के लोगो के साथ समन्वय की बजाय, अहंकार या स्वार्थ अधिक होता है।

बिना जमीन को तैयार करे यदि बीज डाल भी दिया जाए तो उस का परिणाम, सुसज्जित तरीके से की गई, खेती से कभी भी अच्छा नहीं होगा। खेती का अर्थ सिर्फ जमीन को तैयार करना और बीज बोने तक तक नहीं है, वरन पूरी फसल के पक कर काटने और उस की उपज के उपयोग तक है।

इसलिए जो भी लघु कहानियां, कथाएं, उपमाएं आदि हम धर्म ग्रंथो में हम पढ़ते है, उस के आशय को न समझ कर, हम उसे ही ज्ञान समझ लेते है और इसी कारण मंदिर जाना, जप करना, दान करना या आदर्शवादी बाते करना ही हम अपना कर्तव्य धर्म समझ लेते है। क्योंकि यह सब हमारे अहम को संतुष्ट करता है, तो यह सब कार्य भी क्षेत्र के अंतर्गत भावनाओ, कामनाओं और राग – द्वेष का विषय बन कर रह जाता है। व्हाट्सएप पर भगवान के चित्र या ज्ञान की बातो का प्रचार भी यही है। फिर धर्म में मोक्ष की ओर बढ़ना आवश्यक है और यह कठिन और धैर्य का मार्ग होने के कारण तप कहा जाता है।

मोक्ष जब अनेक जन्मों के तप से प्राप्त होता है तो हम उसे कैसे दुनियादारी के काम करते हुए, 5 से 10 मिनट में प्राप्त कर सकते है। जिन्हे मोक्ष तक की खेती करनी है, उन्हे ज्ञान अर्जित भी करना होगा और धारण भी करना होगा। इस के समय भी पूरा देना होगा। रोज दो माला फेर कर, या दस मिनट मंत्र जाप करने या बिना गहराई में उतरे वेद, उपनिषद या गीता को पढ़ने से कुछ नही होगा। उस से अच्छा है कि दुनियादारी करो और अपने कर्म फलों को भोगों।

अंत मे मिथ, मिथक, किदवंती, इतिहास, पुराण और ज्ञान में से हमे सांसारिक और प्रकृति के सुख और मन को आकर्षित करने वाली कहानियों में से, हमे जो चुनना है, वह ज्ञान ही है। ज्ञान की प्राप्ति के लिये हमें गुरुकुल का शिष्य बनना होगा, सामान्य जन की भांति मिथ, मिथक, पुराण से यह ज्ञान प्राप्त नही होगा। अन्यथा गीता जैसा महान ग्रन्थ हम कितनी बार पढ़ ले, रट ले कुछ लाभ नही होगा। पातञ्जलि योग दर्शन का संपूर्ण शास्त्र है, किंतु इस में योग का शारीरिक अभ्यास, ध्यान, चिंतन और समाधि को आरंभिक क्रिया कहा गया है। क्योंकि इस से जीव सयंम करना सीखता है। उस के पश्चात सयंम से ज्ञान को सीखने की बात कही गई है। किंतु आज योग का अर्थ शारीरिक व्यायाम और अर्थ उपार्जन का माध्यम हो गया है।ज्ञान का अर्थ बुद्धि का विकास हो गया है और गीता का अर्थ उस को कंठस्थ करना और दुसरो को सुनाना हो गया है।

जो सनातन है, वही सत्य है, जो सत्य है वही धर्म है। इसलिए हिन्दू धर्म की जड़, सनातन धर्म से जुड़ी है। अनेक संस्थाएं, व्यक्ति, महापुरुष समय समय पर इस धरती पर अपने ज्ञान से इस सनातन सत्य को पुर्नजीवित कर जन जन पहुचाते रहे है और पहुँचा भी रहे है। भारत मे गत एक दशक से इस के प्रति जागरूकता बड़ी है।

ज्ञान कोई मंदिर में बटने वाला प्रसाद नहीं है और न ही इसे कोई कंप्यूटर की चिप्स या प्रोग्रामिंग की तरह धारण कर सकता है, यह तभी मिलेगा जब हमारे अंदर यह सब 13.08 से 13.11 तक के बताए 20 गुण उपस्थित होंगे। क्योंकि प्रत्येक ज्ञान की बात तो ग्रहण उसी स्वरूप में ग्रहण हम तभी कर सकते है जब हमारे अंदर आत्मशुद्धि हो। इसलिए क्षेत्र को समझाना सरल है किंतु क्षेत्रज्ञ को समझाना कठिन। यह अनुभव, अभ्यास और वैराग्य से ही समझ में आना शुरू होता है, परंतु जब हम 20 मिनट का भावार्थ पढ़ने को तैयार न हो तो अनेक जन्मों के सतत प्रयास से जो मिल सकता है, वह किस प्रकार प्राप्त कर सकते है।

इसलिये सत्य को खोजे, पहचाने और अपने से परिचित हो सके, क्षेत्रज्ञ के विषय मे परमात्मा द्वारा ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने को तैयार करे। यह गुण सात्विक अध्यात्म तक ही सीमित नही, वरन सामाजिक, व्यवसायिक, राजनैतिक सभी वर्ग में समान रूप से लागू है, इसलिये गीता प्रबंधन और जीवन शैली का ग्रन्थ है। इस मे कोई मिथक या इतिहास नही है। यह धर्म का सार्वभौमिक ज्ञान बिना किसी सम्प्रदाय, मत और जातीय भेदभाव के दिया हुआ ज्ञान है। इस के ज्ञान को ज्ञानी की भांति ग्रहण करते हुए आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 13.09।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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