।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.09 II
।। अध्याय 13.09 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.9॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥
“indriyārtheṣu vairāgyam,
anahańkāra eva ca..।
janma- mṛtyu- jarā- vyādhi,
-duḥkha- doṣānudarśanam”..।।
भावार्थ:
इन्द्रिय- विषयों (शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श) के प्रति वैराग्य का भाव, मिथ्या अहंकार (शरीर को स्वरूप समझना) न करने का भाव, जन्म, मृत्यु, बुढा़पा, रोग, दुःख और अपनी बुराईयों का बार- बार चिन्तन करने का भाव।(९)
Meaning:
Dispassion towards sense objects, absence of ego, as well as constant perception of sorrow towards birth, death, old age and disease.
Explanation:
Shri Krishna continues listing the attributes that help us reduce the importance of the kshetra or the field. Here he lists dispassion of sense objects, absence of ego and investigation into the modifications of the human body as three further attributes in addition to the nine mentioned in the previous shloka.
Just as there are certain physical parameters, which will indicate the physical health, like the pressure, the level of cholesterol, the level of haemoglobin, etc. will indicate the physical health; similarly, there are certain parameters or virtue, which indicate mental health.
And this mental health is useful for every human being to enjoy peace of mind and this mental health is particularly required for a Vēdāntic seeker because only if the mind is healthy, the intellect will be freely available for higher pursuit. If the mind is not healthy, the intellect will be a hostage of a sick mind. You will not be allowed to think properly because a disturbed mind will suppress your intellect and that is why when you are mentally disturbed, you can never read anything where intellectual application is required. You cannot hear any discourse where intellectual application is required; intellectual application is possible only when the mind is relaxed. Mind is relaxed only when the mind is healthy; mind is healthy only when these parameters are handled and maintained.
We have got two sets of sense organs one set is called jñānēdriyāṇi, through which we receive the input from the world, they are the entrance gate through which the world enters into us, and we have got a set of sense organs called karmēndriyāṇi, through which we express ourselves, we respond to the external world; therefore, they are exit gates.
Controlling and continuing all the senses on the same direction is very difficult, because it has habits of emotions and addictions And therefore the intellect begins to feels the guilt and that is how the tug-of-war begins; intellect decide I want to get out of the habit and even I give up the habit for a few days and thereafter again he gets addicted. Mark Twain or somebody said: Who said giving up smoking is difficult? I have given up many times. Then begins the big tug of war or the intellect says that I am a Gītā student, and I should be a master, I should not be a weakling, and its takes wonderful decision, a few days they are implemented, and again gets to the old rut. Called relapse.
We have five sense organs that can contact the world and perceive objects. They have raaga (attraction), dvesha (hatred) or viraaga (indifference) towards objects. If we see a lump of clay, for example, we have neither attraction nor hatred towards it. The mind is not disturbed when the senses remain free of the labelling of raaga or dvesha. When our senses develop indifference towards every object that they perceive, it is the state of vairagyam or dispassion towards sense objects. So, regardless of whether the object in question is in front of us or someone reminds us of that object, our mind remains unaffected by its presence.
Previously, we came across the term “abhimaan” which meant a sense of mine-ness towards external attributes such as wealth, power, position and so on. “Ahankaara” in this context is a stronger form of abhimaan where we develop a sense of mine-ness towards our own body, mind, and intellect. If one has pride about a gold medal in mathematics, that is abhimaaan. But if one is proud about one’s intelligence, that is ahankaara. Anahankaara is the absence of such pride, and it is born out of constant dispassion or vairagya towards the body and its temporary nature. Moreover, even a simple bit of contemplation will reveal that for most of the population, there is always someone who will eventually overtake us with a better body, mind and intellect.
So far, we came across pleasure derived out of sense objects, as well as pride in the functioning of the body, mind and intellect. Both these notions stem from the assumption that our body will remain healthy and fit eternally. But, even if we walk the corridor of any hospital for five minutes, we see the silliness in holding on to that assumption. “Dosha-anudarshanam” is the constant, repeated perception of sorrow in all of these states of the body, not just when we visit the hospital. Now, although we consider disease, old age and death as sorrowful, Shri Krishna adds birth to this list as well. It is full of suffering for both the child and the mother. In the Dasbodh of Swami Ramdas, as well as the Shiva Apraadha Stotram of Shankaraachaarya, there is an elaborate description of the painful process of birth.
।। हिंदी समीक्षा ।।
शरीर को क्षेत्र कहा गया है, क्षेत्र यानि खेत। किसी भी खेत मे खेती से पूर्व की तैयारी किये बिना कोई फसल नहीं होती। अतः यह बीस गुण इस खेत को तैयार करने के है जिन्हें ज्ञान कहा गया है, क्योंकि इस के बिना क्षेत्रज्ञ को जानना कठिन है।
जिस प्रकार कुछ निश्चित शारीरिक मापदंड हैं, जो शारीरिक स्वास्थ्य का संकेत देते हैं, जैसे रक्तचाप, कोलेस्ट्रॉल का स्तर, हीमोग्लोबिन का स्तर आदि शारीरिक स्वास्थ्य का संकेत देते हैं; उसी प्रकार कुछ निश्चित मापदंड या गुण हैं, जो मानसिक स्वास्थ्य का संकेत देते हैं।
और यह मानसिक स्वास्थ्य हर इंसान के लिए मन की शांति का आनंद लेने के लिए उपयोगी है और यह मानसिक स्वास्थ्य विशेष रूप से एक वेदान्तिक साधक के लिए आवश्यक है क्योंकि केवल अगर मन स्वस्थ है, तो बुद्धि उच्चतर खोज के लिए स्वतंत्र रूप से उपलब्ध होगी। यदि मन स्वस्थ नहीं है, तो बुद्धि एक बीमार मन की बंधक होगी। आपको ठीक से सोचने की अनुमति नहीं होगी क्योंकि एक अशांत मन आपकी बुद्धि को दबा देगा और यही कारण है कि जब आप मानसिक रूप से अशांत होते हैं, तो आप कभी भी ऐसा कुछ नहीं पढ़ सकते हैं जहाँ बौद्धिक अनुप्रयोग की आवश्यकता होती है। आप कोई ऐसा प्रवचन नहीं सुन सकते हैं जहाँ बौद्धिक अनुप्रयोग की आवश्यकता होती है; बौद्धिक अनुप्रयोग तभी संभव है जब मन शांत हो। मन तभी शांत होता है जब मन स्वस्थ होता है; मन तभी स्वस्थ होता है जब इन मापदंडों को संभाला और बनाए रखा जाता है।
हमारे पास ज्ञानेन्द्रियों का दो समूह है – एक समूह जिसे ज्ञानेन्द्रियां कहते हैं, जिसके माध्यम से हम संसार से इनपुट प्राप्त करते हैं, वे प्रवेश द्वार हैं, जिनके माध्यम से संसार हमारे अन्दर प्रवेश करता है, और हमारे पास कर्मेन्द्रियां हैं, जिनके माध्यम से हम अपने आपको अभिव्यक्त करते हैं, हम बाह्य संसार के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं; इसलिए, वे निकास द्वार हैं।
सभी इन्द्रियों को नियंत्रित करना और एक ही दिशा में चलाना बहुत कठिन है, क्योंकि उसमें भावनाओं की आदतें होती हैं और इसलिए बुद्धि को अपराध बोध होने लगता है और इस तरह रस्साकशी शुरू होती है; बुद्धि तय करती है कि मुझे आदत से बाहर निकलना है और मैं कुछ दिनों के लिए आदत छोड़ भी देता हूँ और उसके बाद फिर से उसे लत लग जाती है। मार्क ट्वेन या किसी और ने कहा है: किसने कहा कि धूम्रपान छोड़ना कठिन है? मैंने कई बार छोड़ा है। फिर शुरू होती है बड़ी रस्साकशी या बुद्धि कहती है कि मैं गीता का विद्यार्थी हूँ और मुझे गुरु होना चाहिए, मुझे कमज़ोर नहीं होना चाहिए, और यह अद्भुत निर्णय लेता है, कुछ दिनों तक उन पर अमल होता है, और फिर से पुरानी लीक पर आ जाता है। इसे रिलैप्स कहते हैं।
ब्रह्म के विचार में विभिन्न सिंद्धान्तों में पुरुष, प्रकृति और ज्ञान के बारे में कहा जाता है। ज्ञान किसे कहा सकते है। मानसिक एवम बौद्धिक विकास अध्ययन, श्रवण और स्मृति से हो जाता है किंतु यह आवश्यक नही, जिस प्रकार का आप का ज्ञान अर्थात अध्ययन हो, आप का आचरण और व्यवहार वैसा ही हो। अध्यात्म शास्त्र एवम मोक्ष शास्त्र कहता है कि बुद्धि द्वारा किसी विषय को जान लेना ज्ञान नही है, ज्ञान का देह के स्वभाव पर साम्य बुद्धिरूप परिणाम होना चाहिए, अन्यथा वह ज्ञान अपूर्ण एवम कच्चा है। क्षेत्र के विषय मे बताने के बाद ज्ञान के 20 गुणों का वर्णन परमात्मा ने करना शुरू किया, जबकि उन्हें क्षेत्रज्ञ के विषय मे बताना चाहिए था। भगवान श्री कृष्ण जानते कि क्षेत्रज्ञ को शब्दों में कोई व्यक्त नही कर सका क्योंकि जो अव्यक्त, शाश्वत, नित्य, साक्षी, अकर्ता और इस ब्रह्मांड का मूल है, उसे को परिभाषित नही किया जा सकता। परिभाषा किसी की सीमा का बोध कराती है, उसे ज्ञान द्वारा ही जाना जा सकता है। इसलिए ज्ञानी के आन्तरिक आचरण और गुण जो उस का वास्तविक स्वभाव है, उसे पहले कहते है। ज्ञान के इन लक्षणों को विभक्तेषु कहा गया है। पूर्व श्लोक में 9 गुणों का वर्णन बताने के बाद, भगवान आगे कहते है।
10. इन्द्रियों से इस लोक और परलोक में किसी ही आसक्ति, कामना और राग न रखना
11. किसी भी प्रकार का अहंकार का अभाव
12. यह शरीर से आसक्ति या राग न रखते हुए, हमेशा इस शरीर या मृत्यु लोक में हमेशा यह ध्यान में रखना की यह शरीर नष्ट होने वाला, वृद्ध अवस्था को प्राप्त कर के मृत्यु को प्राप्त होने वाला और इस से रोग, व्याधि और कष्ट की प्राप्ति होती है, इस विचार से यौवन, सुंदरता, बल आदि में मोह और अहंकार नही आता और राग भी नही होता।
इंद्रियाओ से हम कामना की पूर्ति हेतु कर्म करते है, अतः हमारे प्रत्येक कर्म के पीछे चेतन स्वरूप अहम की कामना छुपी होती है, इस कामना में मुख्य है राग-द्वेष। इसी राग- द्वेष में हम सुख-दुख, काम, क्रोध आदि प्राप्त होते है। इन्द्रियों के विषयों के प्रति वैराग्य इसका अर्थ जगत् से पलायन करना नहीं है। विषयों के साथ रहते हुए भी मन से उनका चिन्तन न करना तथा उनमें आसक्त न होना, यह वैराग्य का अर्थ है। जो व्यक्ति विषयों से दूर भागकर कहीं जंगलों में बैठकर उनका चिन्तन करता रहता है, वह तो अपनी वासनाओं का केवल दमन कर रहा होता है, ऐसे पुरुष को भगवान् ने मिथ्याचारी कहा है।अहंकार का अभाव व्यष्टिगत जीवभाव का उदय केवल तभी होता है, जब हम शरीरादि उपाधियों के साथ तथा उनके अनुभवों के साथ तादात्म्य करते हैं। अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए आवश्यक पूर्व गुण यह है कि हम इस मिथ्या तादात्म्य को विचार के द्वारा नष्ट कर दें।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ये पांच तन्मात्राएँ इन्द्रियों से जुड़ी है। किसी वस्तु का स्वाद और खाने को आकर्षित करता है, तो स्त्री रूप और स्पर्श काम-वासना को जगा देता है। इन सब के प्रति जब तक वैराग्य भाव न उत्पन्न हो, तब तक मनुष्य इन्द्रियों से इन का दास हो जाता है। और बार बार वैसा ही करने से यह आदत हो जाती है। एक बार कोई आदत पड़ गई, तो उस से छूटना मुश्किल काम है। इसलिये इन्द्रियों से व्यवहार सयंम से, वैराग्य भाव से, जितना आवश्यक है, उतना ही करना चाहिये।
इन्द्रियों के विषयों के प्रति वैराग्य इसका अर्थ जगत् से पलायन करना नहीं है। विषयों के साथ रहते हुए भी मन से उनका चिन्तन न करना तथा उनमें आसक्त न होना, यह वैराग्य का अर्थ है। जो व्यक्ति विषयों से दूर भागकर कहीं जंगलों में बैठकर उनका चिन्तन करता रहता है, वह तो अपनी वासनाओं का केवल दमन कर रहा होता है, ऐसे पुरुष को भगवान् ने मिथ्याचारी कहा है।अहंकार का अभाव व्यष्टिगत जीवभाव का उदय केवल तभी होता है, जब हम शरीरादि उपाधियों के साथ तथा उनके अनुभवों के साथ तादात्म्य करते हैं। अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए आवश्यक पूर्व गुण यह है कि हम इस मिथ्या तादात्म्य को विचार के द्वारा नष्ट कर दें।
सिद्धार्थ पूरी सुविधाओ के रहते हुए भी, जीवन के सत्य के लिये बेचैन थे, इसलिये जब घूमने निकले तो रास्ते मे वृद्ध- मृत्यु, बोझ डोहते इंसान आदि देख कर उन का मन बेचैन हो गया। पिता ने उन का विवाह भी करवा दिया किन्तु उन को जिस सुख की खोज थी वो नही मिल रहा था। भला इंद्रियाओ एवम शरीर के सुख में जितने भी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के विषयों के पदार्थ है, जो अनित्य है, क्षय होने वाले है,वो आनन्द कैसे दे सकते है। कोई भी व्यक्ति वमन किया अन्न, मृतक के गले लगना, विष मिला भोजन, जलते हुए घर मे प्रवेश, शेर की गुफा में विश्राम, खोलते लोहे में स्नान एवम अजगर को तकिया बना कर नहीं रहता।
जब शरीर नश्वर है तो अभिमान किस का। जो अहम भाव से फूल रहा है, उस का अस्तित्व है ही नही। जो आनन्द इंद्रियाओ जनित कामनाओं से जुड़ा है वो बदलता रहता है इसलिये स्थायी सुख या आनन्द नही है।
परमात्मा का कहना है इंद्रियाओ से सुख नहीं खोजा जा सकता और अहम के रहते ज्ञान को प्राप्त नही किया जा सकता। यदि बुद्ध होना है तो अपने अहम और इंद्रियाओ जनित सुख में दुख का अनुभव करो एवम इन से दूर हो कर इन मे आसक्ति का त्याग करो। कोई भी वस्तु की उपलब्धि से सुख मिले या नही मिलने से दुख हो, यह ही इन्द्रिय जनित सुख और दुःख है।
इस प्रकार जन्मादि में दुःखरूप दोष को बारंबार देखनेसे शरीर, इन्द्रिय और विषयभोगों में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। उस से मन इन्द्रियादि करणों की आत्मसाक्षात्कार करने के लिये अन्तरात्मा में प्रवृत्ति हो जाती है। इस प्रकार ज्ञान का कारण होने से जन्मादि में दुःखरूप दोष की बारंबार आलोचना करना ज्ञान कहा जाता है।
कुछ लोग इन बीस गुणों को अन्तःक्रिया के विकार समझते है, जब कि यह विकार या दोष न हो कर ज्ञान है। खेत से बीज डालने से पूर्व घाँस-फूस हटाना खेत का विकार हटाना नही है, वरन उस को बीज बोने के उपयुक्त बनाना है।
अष्टवक्र गीता में भी ज्ञान देने से पूर्व जनक के मनोभाव और योग्यता पर विचार किया गया है।
राजा जनक कहते हैं कि ‘ नहीं है कुछ भी ‘ — ऐसी भावना से पैदा हुई चित्त की जो स्थिरता है, वह कौपीन ( संन्यास ) को धारण करनेपर भी दुर्लभ है । इसीलिए त्याग और ग्रहण– दोनों को छोड़कर मैं सुखपूर्वक स्थित हूँ ।।
राजा जनक कहते हैं कि कहीं तो शरीर का दु:ख है , कहीं वाणी का दु:ख है और कहीं मन दुःखी होता है ।इसीलिए इन तीनों को त्यागकर, मैं अन्तिम पुरुषार्थरूप मोक्ष में स्थित होकर सुखपूर्वक अर्थात् आत्मानन्द में रत हूँ। आत्मा को जाननेवाला व्यक्ति ही आत्मानन्द का अनुभव कर सकता है ।।
राजा जनक कहते हैं कि किया हुआ कार्य भी आत्मकृत नहीं होता– ऐसा तात्विकरूप से विचारकर मैं जब जो कुछ कार्य करने को आ पड़ता है, उसे करके सुखपूर्वक स्थित हूँ । उन्हें यह ज्ञान हो गया है कि सभी कार्य प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हैं और मैं प्रकृति से अलग चेतना-स्वरूप हूँ ।।
राजा जनक कहते हैं कि कर्म और निष्कर्म के बन्धन से संयुक्त भाववाले, शरीर में आसक्त अनेक योगी हैं । मैं देह के संयोग-वियोग से सर्वदा पृथक होने के कारण सुखपूर्वक स्थित हूँ । अब कर्म, निष्कर्म आदि मेरे बन्धन नहीं हैं , क्योंकि मेरी न उनमें प्रीति है और न अप्रीति ही ।।
राजा जनक कहते हैं कि स्थितरता हो, गति हो, शयन हो , बैठना हो, चलना – फिरना हो या फिर स्वप्न की स्थिति हो — ये सभी व्यावहारिक क्रियाएं न मेरे लिए शुभ हैं और न ही अशुभ, ऐसा स्वीकार करके मैं परमसुख में स्थित हूँ ।।
राजा जनक कहते हैं कि सोते हुए मुझे कोई हानि नहीं है और न प्रयास करते हुए मुझे सिद्धि या लाभ है । इसलिए मैं हानि और लाभ, दोनों को छोड़कर सुखपूर्वक स्थित हूँ ।।
राजा जनक कहते हैं कि सुख और दु:ख की अनियमितता को अनेक जन्मों में देखकर तथा शुभ व अशुभ दोनों को छोड़कर, मैं सुखपूर्वक स्थित हूँ। इसका अभिप्राय यह है कि ज्ञानी व्यक्ति के शुभ- अशुभ कार्यों से परे हो जाने से , वह सदैव आत्मानंद में स्थित हुआ सुखपूर्वक जीता है । यह स्थिति ही मोक्ष है ।।
राजा जनक कहते हैं कि जब मेरी इच्छायें ही नष्ट हो गयी हैं तो मेरा मन शून्य हो गया, अब कामना की लहरें नहीं उठती, मन व्याकुल नहीं होता।अब संपत्ति, सखा, विषय आदि तो क्या, शास्त्र और ज्ञान का भी कोई महत्व नहीं रहा है । इन सांसारिक विषयों ने ही चोर के समान मेरी आत्मा को चुरा लिया था , अब मैंने वह दोबारा पाकर सुख को प्राप्त कर रहा हूँ ।।
अष्टावक्र जी को विश्वास हो गया है कि राजा जनक को जो आत्मबोध हुआ है, वह वास्तविक है , भ्रान्ति नहीं हुई है ।। अतः अष्टावक्र जी कहते हैं कि सत्त्व- बुद्धिवाला पुरुष थोड़े से उपदेश से कृतार्थ हो जाता है । असत् बुद्धिवाला पुरुष आजीवन जिज्ञासा करके भी मोहित होता रहता है । इसका अभिप्राय यह है कि आत्मज्ञान की कोई साधना नहीं है । अज्ञानरूपी आवरण को हटाने के लिए, साधना के द्वारा सत्त्व- बुद्धि प्राप्त होती है ।इसके पश्चात् गुरु के द्वारा दिए गये ज्ञान के उपदेश से तत्त्व का ज्ञान होता है ।।
अष्टावक्र जी कहते हैं कि जिस व्यक्ति को सांसारिक पदार्थों में प्रीति है, जिसे भोगों में सुख प्राप्त होता है ; ऐसे व्यक्ति को संन्यास और मुक्ति का उपदेश देना, लाभ नहीं हानि ही पहुंचायेगा। इस उपदेश का अधिकारी वही है जो भोग- वासनाऔ से विरक्त और संसार के प्रति स्वभाव से ही विरक्त है ।।
अष्टावक्र जी जनक से कहते हैं कि राग और द्वेष मन ( प्रकृति ) के धर्म हैं, तुम्हारे ( चेतन ) के कदापि नहीं; तुम तो आत्मा हो, सभी प्रकार के विकल्पों से परे हो , ज्ञानस्वरूप हो , दोषरहित हो ; इसलिए तुम सुखपूर्वक विचरण करो ।।
अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते हैं कि तुम आत्मा को उपलब्ध हो चुके हो, इसलिए तुमने निश्चयपूर्वक जान लिया है कि सभी भूतों , भौतिक पदार्थों में आत्मा है तथा सब भूत आत्मा ही हैं। इसलिए तुम अभिमान रहित एवं ममता रहित हो । अब तुम आनन्द का अनुभव करके सुखी हो। यह कथन उतना विज्ञान- सम्मत है,जितना कि वैज्ञानिक मानते हैं कि पदार्थ ही ऊर्जा है और ऊर्जा ही पदार्थ है । अध्यात्म की यह दृष्टि भी पूर्णरूपेण वैज्ञानिक है । ब्रह्म, ईश्वर, आत्मा, जीव और जगत् की ऐसी व्याख्या दूसरा कोई भी धर्म नहीं कर पाया है ।।
क्षेत्रज्ञ को समझने के कामना एवम अहम रहित होना पड़ेगा। स्वामी से मिलने से पहले स्वामित्व को स्वीकार करना होगा।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.09।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)