।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.06-07 II Additional II
।। अध्याय 13.06-07 II विशेष II
।। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विकास के सिंद्धान्त ।। विशेष गीता 13. 06-07 ।।
क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ अर्थात शरीर एवम शरीर के स्वामी के विचार के साथ साथ दृश्य सृष्टि और उस के मूल तत्व क्षर-अक्षर का भी विचार करने के बाद फिर आत्मा के स्वरूप का निर्णय करना पड़ता है।
अध्यात्म में सृष्टि के रचना के बाद यह कौतूहल हमेशा इस संसार और इसकी कार्य पद्वतीति से रहा है। हमारे ऋषि मुनियों ने अपने अपने ज्ञान और अनुभव के अनुसार सृष्टि की रचना के विभिन्न सिंद्धान्त बनाए और सृष्टि को विभिन्न भागों में सरलता से समझ सके, विभाजित किया। इस प्रकार के 12 सिंद्धान्त अभी तक बने है किंतु मुख्य तीन माने गए है। इस मे वेदांत से पहले के दो कणाद के न्याय और कपिल ऋषि के सांख्य प्रमुख है। न्याय शास्त्र प्रकृति को 9 तत्व में और सांख्य इन को 24 तत्व में विभाजित करता है। क्योंकि वेदान्त में सांख्य दर्शन का अधिक प्रभाव होने से यह 24 तत्व ही अभी तक प्रमुख माने गए है। तत्वों में विभाजन, उस के विषय को अधिक वैज्ञानिक और सैद्धान्तिक तरीके से समझने में सहायक होता है। गीता ज्ञान-विज्ञान और प्रबंधन का ग्रन्थ है, इस को धार्मिक पुस्तक की श्रेणी में लेने की अपेक्षा आज शिक्षा के लिए सभी स्कूल में पढ़ाना बेहतर होगा। क्योंकि यह ही एक मात्र प्राचीन ग्रंथ है जो ज्ञान-विज्ञान, धर्म , आस्था, कर्म और जीवन के प्रबंधन को समाज के लिए मार्गदर्शन बिना भेदभाव के किसी सम्प्रदाय, धार्मिक मत या विचारधारा के साथ करता है।
इस के तीन प्रमुख सिंद्धान्त निम्न प्रकार से है
1. न्याय शास्त्र
2. कपिल सांख्य शास्त्र
3. वेदान्त शास्त्र
1. न्याय शास्त्र का प्रतिपादन महृषि कणाद ने किया जिस का कहना है यह जगत का मूल कारण परमाणु है। यह विभिन्न परमाणु के संयोग से विभिन्न पदार्थ बनते है। इन्ही से मन और आत्मा बनती है। पृथिवी, जल, तेज और वायु के अलग अलग परमाणु होते है एवम पृथ्वी के चार गुण रूप, रस, गंध और स्पर्श है, जल में तीन, तेज के दो एवम वायु के एक गुण है। इस प्रकार समस्त जगत सूक्ष्म एवम नित्य से भरा है, परमाणु के सिवा संसार का मूल कारण कुछ भी नही। जब सूक्ष्म एवम नित्य परमाणु का परस्पर संयोग का आरम्भ होता है, तब सृष्टि के व्यक्त पदार्थ बनते है। यह शास्त्र इस से ज्यादा कुछ नही कहता। विज्ञान के लोग परमाणु की थ्योरी को समझते भी होंगे।
2. कपिल सांख्य वाद – पश्चिम में लेमार्क और डार्विन ने एवम अपने यहां कपिल मुनि ने प्रतिपादित किया कि 1. कोई भी वस्तु शून्य से उत्पन्न नही होती, जो है नहीं उस से कुछ भी प्राप्त नही हो सकता , एक ही मूल पदार्थ के गुणों का विकास हुआ और धीरे धीरे सब सृष्टि की रचना होती गई।
3. पृथ्वी की रचना ब्रह्मांड में किसी विघटन से हुई। जो आग का गोला धीरे धीरे ठंडा होता गया। इस विघटन में मुख्य गोला सूर्य एवम अन्य अन्य ग्रह बने। पृथ्वी में सर्व प्रथम आकाश, फिर तेज, फिर वायु, फिर जल एवम अंत मे स्थल आया। जल से जीव आया और प्रकृति के वनस्पति आदि उत्पन्न हुए। यह ही जीव धीरे धीरे विकसित होता हुआ, आज का मानव है, पशु है, पक्षी है, एवम अन्य कीट पतंग है। पंच महाभूतों के मिश्रण में आपस के गुणों से यह विभिन्न जीव है।
किन्तु यहाँ भी एक ही अव्यक्त पदार्थ से इतने व्यक्त पदार्थ क्यों बने। सांख्य में मूल तत्व प्रारम्भ में 25 फिर यह 62 हुए , आजकल यह रसायन में 108 है। इस का मूल सिंद्धान्त सत्कार्यवाद है। अर्वाचीन पदार्थ विज्ञान के ज्ञाताओं ने भी यही सिंद्धान्त ढूंढ निकाला है, की पदार्थ के जड़ द्रव्य और कर्म शक्ति दोनों सर्वदा मौजूद रहती है: किसी पदार्थ के चाहिए कितने भी रूपांतर हो जाये, तो भी अंत मे सृष्टि के कुल द्रव्यांश का और कर्म शक्ति का योग हमेशा एक सा बन रहता है। जैसे दीपक में तेल जलता है तो वह काजल, धुंआ एवम अन्य पदार्थो में बदलता है, नष्ट नही होता।
प्रकृति इन मे मूल तत्व को कहते है और विकृति मूल द्रव्य के विकार को। द्रव्य विकार को सत यानी शुद्ध, तम यानि निकृष्ट एवम रज यानि परिवर्तित अवस्था माना गया।
यह अपने आप मे बहुत बड़ा विज्ञान है अतः यहाँ नही कह सकते।
सांख्य के अनुसार सृष्टि के सब पदार्थ के तीन वर्ग है,1. अव्यक्त – प्रकृति के मूल तत्व 2. व्यक्त – प्रकृति के विकार 3. पुरुष – ज्ञ
कपिल का सांख्य ही आगे सांख्य योग हो गया और यह विज्ञान यह मानता है कि यह सृष्टि का मूल तत्व पुरुष – निर्गुण आत्मा है एवम प्रकृति -एक अव्यक्त सत्व-रज-तम से युक्त सूक्ष्म तत्व है।
प्रकृति से आगे – बुद्धि – यह भी अव्यक्त एवम सूक्ष्म है।
बुद्धि से आगे – अहंकार – यह अव्यक्त एवम सूक्ष्म है।
अहंकार से आगे
a. पांच ज्ञान इंद्रियां – आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा;
पांच कर्म इंद्रियां- हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग
और मन
b. पांच तन्मात्राएँ – शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवम गंध
ज्ञान इन्द्रियों और तन्मात्राएँ पृथक -पृथक बताई गई है। इन्द्रियों को मन के साथ ग्याहर कर के भी जोड़ा गया है। मन बिना ज्ञान इन्द्रियों के भी तन्मात्राओं को अनुभव कर सकता है। इस का उदाहरण है कि हम आँखे बंद कर के भी स्वप्न देखते है और सुनते आदि भी है।
इन से आगे पांच महा भूत – स्थूल पृथ्वी, पानी, अग्नि या तेज, वायु और आकाश
इस प्रकार यह कुल बुद्धि से ले के महाभूत तक कुल 23 तत्व हुए एवम पुरुष और प्रकृति को मिला कर कुल 25 तत्व हुए।
इंद्रियाओ को कही कही प्राण भी कहा गया है। कुछ अन्य धर्मग्रंथ शरीर का विश्लेषण करते समय इन्द्रियों के पाँच विषयों को सम्मिलित नहीं करते। इनके स्थान पर इनमें पाँच प्राण (जीवन शक्ति) को सम्मिलित किया गया है। यह केवल श्रेणीकरण से संबंधित विषय है न कि दार्शनिक अन्तर का।
इस ज्ञान को भी आवरणों के रूप में समझाया गया है। शरीर के क्षेत्र में पाँच कोष (आवरण) हैं जो आत्मा में निहित हैं और इसे आच्छादित करते हैं।
1. अन्नमय कोषः यह स्थूल आवरण है। यह पाँच महातत्त्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से बना है।
2. प्राणमय कोषः यह जीवन शक्ति का आवरण है। यह पाँच प्रकार की जीवन दायिनी शक्तियों (प्राण, आपान व्यान, समान, उदान) से निर्मित है।
3. मनोमय कोषः यह मानसिक आवरण है। यह मन और पाँच कर्मेन्द्रियों (वाक्, हस्त, पाँव, लिंग और गुदा) से बना है।
4. विज्ञानमय कोषः यह बुद्धि का आवरण है। यह कोष बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियों (कान, आँख, जिह्वा, त्वचा और नासिका) से बना है।
5. आनन्दमय कोषः यह आनंद का आवरण है जो कि अहंकार से बना है जो हमारी पहचान शरीर, मन और बुद्धि तंत्र के क्षणिक आनंद के बोध के साथ कराता है।
सर्वप्रथम आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से पानी, पानी से पृथ्वी उत्पन्न हुई है।
आकाश का एक गुण है शब्द, वायु के दो गुण शब्द एवम स्पर्श, अग्नि या तेज के तीन गुण शब्द, स्पर्श एवम रूप , पानी मे चार गुण शब्द, स्पर्श, रूप एवम रुचि या रस, पृथ्वी में पांच गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवम गंध हुए।
कपिल शास्त्र प्रकृति एवम पुरुष पर आ कर आगे नहीं बड़ा। उस के अनुसार पुरुष असंख्य है अतः यह विभिन्न जीव में प्रकृति से मिल कर कार्य कर रहे है। प्रकृति एवम पुरुष का मिलन ही संसार के टकसाल को शुरू कर देता है। जो प्रकृति एवम पुरुष के रहस्य को जानता है, वो पुरुष ज्ञेय कहलाता है।
वेदांतशास्त्र के अनुसार एक तत्व बुद्धि एवम पुरुष के मध्य है जिसे वो चेतन कहते है। यह चेतन चेतन्य से अलग है। मेरा-तेरा, मोह, कामना जैसे भाव जिस को कर्तृत्व भाव का भोक्ता कहा गया है, वह यह चेतन है।
वेदान्त का कहना है सुप्त अवस्था मे जब शरीर मे कोई हरकत नही होती एवम पूर्ण शरीर निर्जीव की भांति है, तो भी ‘मै हूँ’ विद्यमान रहता है। जिसे उस मे चेतन माना।
गीता के अनुसार मन, बुद्धि, अहंकार एवम पांच महाभूत आठ तत्व है। मन, इंद्रियां- कर्म एवम ज्ञान एवम पांच महाभूत विकार है। अहंकार कामना से जुड़ा है, एवम यह कि तत्व चेतन भी है।चेतन चेतन्य से अलग माना गया है। चेतन्य जीव अर्थात क्षेत्रज्ञ माना गया है।
इस के अतिरिक्त वो पुरुष को जीव कहती है एवम इस सब से ऊपर परम् तत्व परमात्मा कहती है। वेदान्त में प्रकृति और पुरुष को एक ही ब्रह्म अर्थात पूर्ण ब्रह्म के अंतर्गत माना है। गीता इस से थोड़ा आगे, सम्पूर्ण सृष्टि अर्थात ब्रह्मांड को भी परब्रह्म के अंतर्गत कहती है।
वेदांत सांख्य के सभी सिंद्धान्तों को मूल रूप में स्वीकार करता है, किन्तु उस के अनुसार पुरुष असंख्य नही हो कर ब्रह्म के स्वरूप है, इसलिये समस्त आत्मा परमात्मा से विघटित होती है और उसी में मिलती है। इसी प्रकार प्रकृति और पुरुष भी एक ही परब्रह्म के स्वरूप है।
।। हरि ॐ तत सत।। विशेष गीता 13. 06-07 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)