।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.04 II Additional II
।। अध्याय 13.04 II विशेष II
।। प्रसंग – क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ और माया ।। गीता विशेष – 13.04 ।।
क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के बारे में विस्तार पूर्वक बताने से पहले परमात्मा द्वारा यह कहना कि वह क्षेत्र जो है जैसा है, जिन विकारों वाला है, जिस कारण से जो है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह तू उसे संक्षेप में मेरे से सुन।
यहाँ सुनाने वाला परमात्मा है और जो सुन रहा है वो जीव है।
यदि किसी कारखाने के मालिक (परमात्मा) द्वारा अपने ही पुत्र (आत्मा) को कहा जाए कि जाओ कारखाने (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ) में क्या हो रहा है, उस का निरीक्षण कर के पता करो। तो वह पुत्र जिस का ज्ञान पिता के बराबर नही है किंतु उस को जांच के निर्देश मिले है। वो कारखाने की पृष्ठ भूमि को देखता है, उस मे आने वाले समान एवम बाहर जाने वाले समान को देखता है। वो इन कर्मचरियो (कर्म इन्द्रियों एवम ज्ञान इन्द्रियों) से मिलता है जिन्हें अपने मालिक का पता नही। यह ज्ञान इंद्रियां एवम कर्म इंद्रियां जो भी कार्य कर रही है, वे सब अपना मालिक मन को मानती है। जो उन्हें समान (विचार, दृश्य आदि) आता है वो मन को बता देती है और जो जाता है वो मन इन्हें बता देता है। पुत्र यह मान कर कि इस का अर्थ यही है इन कर्मचारियों का नियंत्रण मन के पास है, इसलिये जानकारी मन से ली जाए।
जब वह मन के पास पहुचता है तो मन का कहना है उस के पास पहले जो काम किये उस का हिसाब है, उस से जो उसे ठीक लगता है वो उसे quality जांच के लिये रख लेता है बाकी लौटा देता है। फिर वह ऊपर मैनेजर यानि बुद्धि को खबर करता है कि quality चेकिंग में उसे क्या समान मिला, इस मे वह अपनी जांच का ब्यौरा भी देता है कि उस ने उस के बारे में क्या पाया, बुद्धि उस को जो भी आज्ञा देती है, मन उसे कर्मचरियो (कर्म इन्द्रियों) से पूरा करवाता है। मन यह भी बताता है कि बुद्धि को जो पसंद है उस के हिसाब से ही वो आने वाले माल को उस के पास भेजता है। उस के पास करुणा, दया, हिंसा, लोभ जैसे चेकिंग के मीटर है जिस से वो चेक करता है। इसलिये चाहे उसे इंद्रियां मालिक समझे वो तो बुद्धि का नोकर है।
जब पुत्र जांचने के बुद्धि के पास जाता है तो बुद्धि का कहना है कि देखिये, मेरे ऊपर एक मालिक है, अहम यानि चेतन, मै उस सब कार्य करने में सक्षम हूँ जो मुझे मेरे मालिक चाहते है, वो मुझे बताते रहते है उन्हें क्या पसंद है और क्या न पसंद। इसके लिये वो समय समय पर मुझे से जो भी कामना करते है वो ही मै करता हूँ। क्योंकि इतने सारे काम करना हर वक्त संभव नही, इसलिये मेरे कुछ रोजमर्रा के काम मे मन को मेरे से बिना पूछे करने को भी कह देता हूँ। यदि कोई काम मुझे ऐसा लगता है जो उन्होंने मुझे समझाया था कि वो गलत है वो मै उन्हें सचेत भी करता हूँ। मै भी नोकर ही हूँ।
पुत्र यह तो समझ जाता है कि इस कारखाने में कर्मचारियों के हाथ मे कुछ नही, कार्य मन और बुद्धि ही मिल कर करते है। किंतु बुद्धि भी स्वतंत्र नही है, अतः अहम रूपी चेतन से मिला जाए।
अब जब पुत्र चेतन के पास जाता है तो उसे आश्चर्य होता है कि चेतन- अहम कामनाओं में घिरा हुआ, यह स्वीकार करने को तैयार नही की इस कारखाने का कोई और मालिक है। वो कहता है मुझे यद्यपि किसी ने (ब्रह्म) नियुक्त भी किया है तो भी इस कारखाने में मेरा अधिकार है। यह भोग, विलास, संपदा का मै ही मालिक हूँ। वो अपने मालिक के पुत्र ज्ञान को पहचानने से भी इंकार करता है। वो स्वीकार करता है कि वो वह सब नही प्राप्त कर पा रहा जिस की कामना रखता है किंतु उस का अहम उस को बीच बीच मे बताता रहता है कि यदि कोशिश करोगे तो मिल जाएगा। पुत्र चेतन के अहंकार के विकार को जानने की कोशिश करता है।
यहाँ सब से बड़ी समस्या यही है कि अहम और कामना से भरे चेतन को प्रकृति की माया एवम त्रियामी गुणों का पूर्ण सहयोग है। वह बुद्धि के बल पर प्रकृति पर अपना अधिकार स्थापित भी करने में लगा है। प्रकृति को संसार मे कार्य करने के जन्म से मृत्यु तक, प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग तक एक नियम बद्ध हो कर करने पड़ते है, किन्तु चेतन को लगता है कि उस ने प्रकृति को जीत लिया है, जबकि उस का कारखाने में प्रवास स्थायी नही है।
अब मालिक के पुत्र को समझना पड़ेगा कि वास्तव में मालिक कौन है। यह पुत्र कोई और नही, चेतन्य है। उस का कार्य कारखाने को संभालना था किंतु उस पर आधिपत्य अहम ने कर लिया और खुद चेतन हो गया। चेतन्य ही स्वयं को अहम के पंजों से मुक्त कर के चेतन से चेतन्य बन सकता है और उसे कारखाने के वास्तविक मालिक से मिला सकता है। इस के लिये उसे मन और बुद्धि पर नियंत्रण चाहिए। चेतन अर्थात अहम-कामना का सारा व्यापार (मन-बुद्धि, कर्मचारी सहित सम्पूर्ण कारखाना) क्षेत्र कहलाता है, उस मे काम करने वाले समस्त कर्मचारी एवम संसाधन क्षेत्र ही है अतः में असली कर्मचारी को समझना जरूरी है जिस से अहम एवम कर्तृत्व भाव भोक्ता चेतन को समझाया जा सके। हमे समझना पढ़ेगा की प्रकृति, इंद्रियां, मन, बुद्धि जो कुछ भी व्यापार करती है वो सही है, यही क्षेत्र को जानना है। कारखाना चैतन्य की कर्मभूमि है, उस में उत्पादन कर्मफल है। यह उत्पादन चेतन्य उपभोक्ता बन कर अहम और कामना के आधीन करे या उस पर अपना नियंत्रण कर के लोकसंग्रह के लिये करे, यही समझना है। मन ईमानदार नही है, उस को नियंत्रित नही किया तो वह समस्त उत्पादन को खराब कर सकता है।
परमात्मा का यहाँ यह भी कहना है कि वो ही इन समस्त कारखानों का मालिक कैसे है, इस को भी जान लेना जरूरी है। यही क्षेत्रज्ञ को जानना है।
इस प्रकार हम आगे इस पूरे व्यवसाय पर नजर रखते है और परमात्मा के निर्देश को समझते है, यह काफी पेचीदा है इसलिये इस को वो ही समझा सकता है जो असली मालिक हो क्योंकि जिस कारखाने को चेतन अपना समझ कर चला रहा है उस की चाबी उसी के पास होगी।
अक्सर धर्म, आस्था, विश्वास में ईश्वर को लोग विज्ञान से तुलना करते है, इसी कारण उन्हें धार्मिक कर्म काण्ड और विश्वास ढकोसला लगता है। किंतु सनातन संस्कृति ज्ञान और विज्ञान भी है अतः अब जो भी हम पढ़ेंगे, वह विज्ञान ही है। न्यायिक शास्त्र में प्रकृति को सत्य कहा गया और सभी इसी से उत्पन्न और इसी में विलीन होना माना गया। इसलिए प्रकृति नित्य कही गई। किंतु जो यह सब, देखता है, भोक्ता है, कर्ता है और इस सब का साक्षी रहता है वह एक ही तत्व नहीं हो सकता, इसलिए जीव या आत्मा की रचना या विचार किया गया। क्योंकि कोई अपने ही कंधे पर सवारी नही कर सकता। यह सांख्य विचार था, जिस में जीव अनेक और प्रकृति एक हो गई। किंतु सभी अलग अलग का भी कोई एक तत्व होगा, इसलिए वेदांत में परब्रह्म का विचार हुए। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में परब्रह्म के अतिरिक्त सभी ब्रह्मांड के सभी लोक, क्षेत्र की परिभाषा में है। अतः हम आगे इसी विचार धारा को विस्तृत पढ़ेंगे। दर्शन शास्त्र का यह विज्ञान हम लोग चाहे पढ़े या न पढ़े, किंतु आज भी अंतरिक्ष विज्ञान और स्पेस एयरक्राफ्ट में इस को पढ़ कर अनेक दुविधाएं स्पष्ट हुई है।
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के बारे में संक्षिप्त परिचय द्वितीय श्लोक में भी लिखा है, उसे भी ध्यान रखे।
उपमा सामान्य भाषा मे समझ सके, इसलिये रखी है। इस मे काफी हेर फेर हो सकते है, इस लिये क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के ज्ञान से शत प्रतिशत प्रमाणिक नही है।
।। हरि ॐ तत सत।। विशेष 13.04 ।।
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