।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.01 II
।। अध्याय 13.01 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.1॥
अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव॥
“arjuna uvāca,
prakṛtiḿ puruṣaḿ caiva,
kṣetraḿ kṣetra-jñam eva ca..।
etad veditum icchāmi,
jñānaḿ jñeyaḿ ca keśava”..।।
भावार्थ:
अर्जुन ने पूछा – हे केशव! मैं आप से प्रकृति एवं पुरुष, क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ और ज्ञान एवं ज्ञान के लक्ष्य के विषय में जानना चाहता हूँ। (१)
Meaning:
Arjun said, “O Keshav, I wish to understand what are prakṛiti and puruṣh, and what are kṣhetra and kṣhetrajña? I also wish to know what is true knowledge, and what is the goal of this knowledge?
Explanation:
In some editions of the Bhagavad Gita, this verse has been omitted, and the next verse figures as the first verse of the thirteenth chapter.
Arjuna asks this question and, in this question, and Arjuna gives six technical words, generally used in the vēdānta. Technical words used in any science is called Paribhāṣa śabdaḥ. In English we call it jargons. And medical jargon, jargon is a technical word used in that particular science. Like in economics, they say inflation. Whereas when you talk of inflating your cycle tyre, it has a different meaning. So, we have got technical words; they are called Paribhāṣa śabdaḥ; Arjuna introduces, six Paribhāṣa śabdas, technical words, used in vēdānta and he asks for clarification. I have heard them, and I would like to know what exactly those concepts are. So, what are those six words. No.1 prakr̥ti; No 2. Puruṣaḥ; No.3 Kṣetraṁ; No.4 kṣētrajña; No.5 Jñānam; and No.6 Jñēyaṁ. These are the 6 words, generally they go in pairs; prakr̥ti and Puruṣaḥ, one pair; kṣetraṁ and kṣētrajña, another; then jñānam and jñēyaṁ. Ethat, the group of the technical words, vēdithum icchami. And here even though Arjuna has used six words, some of the words are almost synonymous. Still Arjuna perhaps is not clearly and distinctly enumerated.
And according to Vēdānta, it includes our mind also, because according to śāstra, mind is also a product of the subtle five elements. Therefore, mind is also a form of matter only and that is why the mind is influenced by matter. When there is a change in biochemistry, when there is a change in hormones, it changes your mind and emotions; from that it is very clear that mind is also another form of subtle matter. Therefore, prakr̥ti or kshetram includes the world, the mind and also the body, all of them are called prakr̥ti or kṣetraṁ. Krishna himself will elaborate that later.
Geeta has 700 shloks, this is additional one, therefore, we start from next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
गीता के कुछ पुस्तको में तेरहवें अध्याय के प्रारम्भ में यह एक अतिरिक्त श्लोक जोड़ा गया है, यह किसी के द्वारा अतिरिक्त श्लोक डाला हुआ है, जबकि गीता में 700 श्लोक है इसलिये इस को क्षेपक की संज्ञा दी गयी है। क्योंकि किसी को लगा कि भगवान बिना अर्जुन को पूछे क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ का ज्ञान क्यों दे रहे है। जबकि कुछ अन्य हस्तलिपियों में यह अर्जुन की जिज्ञासा के रूप में दिया हुआ है। प्रकृति और पुरुष भारतीय सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि जी ने जड़ और चेतन तत्त्वों का निर्देश क्रमश प्रकृति और पुरुष इन दो शब्दों से किया है। इन दोनों के संयोग से ही उस सृष्टि का निर्माण हुआ है इन्हें अर्जुन जानना चाहता है। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ इन दो शब्दों का अर्थ इस अध्याय की प्रस्तावना में स्पष्ट किया गया है। ज्ञान और ज्ञेय इस अध्याय में ज्ञान शब्द से तात्पर्य उस शुद्धान्तकरण से हैं, जिसके द्वारा ही आत्मतत्त्व का अनुभव किया जा सकता है। यह आत्मा ही ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य वस्तु है। अर्जुन की इस जिज्ञासा के उत्तर को जानना सभी साधकों को लाभदायक होगा।
अर्जुन कहता है कि है केशव, मैं जानना चाहता हूं कि अर्जुन यह प्रश्न पूछता है और इस प्रश्न में अर्जुन छह तकनीकी शब्द देता है, जो सामान्यतः वेदान्त में प्रयोग होते हैं। किसी भी विज्ञान में प्रयुक्त तकनीकी शब्द को परिभाष शब्द कहते हैं। अंग्रेजी में हम इसे जार्गन कहते हैं। और मेडिकल जार्गन, जार्गन एक तकनीकी शब्द है जिसका उपयोग उस विशेष विज्ञान में किया जाता है। जैसे अर्थशास्त्र में, वे मुद्रास्फीति कहते हैं। जबकि जब आप अपनी साइकिल के टायर में हवा भरने की बात करते हैं, तो इसका एक अलग अर्थ होता है। इसलिए हमारे पास तकनीकी शब्द हैं; उन्हें परिभाष शब्द कहा जाता है; अर्जुन छह परिभाष शब्द, तकनीकी शब्द, जो वेदान्त में प्रयुक्त होते हैं, का परिचय देता है और वह स्पष्टीकरण मांगता है। मैंने उन्हें सुना है और मैं जानना चाहूंगा कि वास्तव में वे अवधारणाएँ क्या हैं। तो वे छह शब्द क्या हैं। नंबर 4 क्षेत्रज्ञ; नंबर 5 ज्ञानम; और नंबर 6 ज्ञानम। ये 6 शब्द हैं, आम तौर पर वे जोड़े में जाते हैं; प्रकृति और पुरुषः, एक जोड़ी; क्षेत्रं और क्षेत्रज्ञ, एक और; फिर ज्ञानम और ज्ञानम। एतत्, तकनीकी शब्दों का समूह, वेदिथुम् इच्छामि। और यहाँ यद्यपि अर्जुन ने छह शब्दों का प्रयोग किया है, फिर भी कुछ शब्द लगभग समानार्थी हैं। फिर भी अर्जुन का नाम शायद स्पष्ट रूप से और स्पष्ट रूप से नहीं गिना गया है।
सत्य- असत्य एवम धर्म- अधर्म का निर्णय के अनेक मत है, इस मे अतिभौतिकवाद कहता है कि जो निर्णय सब के हित मे वो सही है। किन्तु अधिदैवतवाद कहता है निर्णय मात्र सब का हित देखते हुए नही किया जा सकता, क्योंकि करुणा, परोपकार, कृतज्ञता, कर्तव्य- प्रेम, धैर्य आदि सदगुणों की जो स्वाभाविक मनोवृतियां होती है, यह भी निर्णय को प्रभावित करती है।कोई किसी कार्य को किस परिस्थिति में करता है एवम क्यों करता है एवम निर्णय लेने की परिस्थितियां क्या है, यह सब भी निर्णय को प्रभावित करती है। अतः निर्णय का निर्णायक मनोदेव होना चाहिए, क्योंकि मन ही समस्त क्रियाओं को करता है, इंद्रियाओ को वश में करता है, बुद्धि को किसी भी क्रिया को विश्लेषण सहित निर्णय के लिये देता है।
वह कर्म प्रयत्न पूर्वक करना चाहिये जिस के करने से हमारा अंतरात्मा संतुष्ट हो और जो कर्म इस के विपरीत हो उसे छोड़ देना चाहिये। मनु स्मृति में वेद, स्मृति, शिष्टाचार एवम अपने आत्मा को प्रिय होना धर्म के चार मूल तत्व है। आत्मा को प्रिय होना का अर्थ जो सात्विक मन से शुद्ध निर्णय लिया हो।
और वेदांत के अनुसार, इसमें हमारा मन भी शामिल है, क्योंकि शास्त्र के अनुसार मन भी सूक्ष्म पाँच तत्वों का एक उत्पाद है। इसलिए मन भी पदार्थ का ही एक रूप है और इसीलिए मन पदार्थ से प्रभावित होता है। जब जैव रसायन में परिवर्तन होता है, जब हार्मोन में परिवर्तन होता है, तो यह आपके मन और भावनाओं को बदल देता है; इससे यह बहुत स्पष्ट है कि मन भी सूक्ष्म पदार्थ का ही दूसरा रूप है। इसलिए, प्रकृति या क्षेत्र में संसार, मन और शरीर भी शामिल है, इन सभी को प्रकृति या क्षेत्र कहा जाता है। कृष्ण स्वयं बाद में इसका विस्तार से वर्णन करेंगे।
अतिभोतिकवाद भी मानता है कि स्वस्थ एवम शांत अन्तःकरण से किसी बात पर विचार करना चाहिये। इस के लिये मन को सुशिक्षित करने का प्रयत्न को दृढ़ता से करना चाहिये। इस का मार्ग पातंजलि योग एवम ज्ञान ही है।
मन इंद्रियाओ से प्राप्त सूचनाओं को संकल्प- विकल्प एवम पूर्व की स्मृतियो के साथ बुद्धि के समक्ष रख देता है। बुद्धि उस पर विचार कर के करने एवम न करने का निर्णय लेती है जिस मन कार्यान्वित करता है। मन का कार्य व्याकरणात्मक है जब की बुद्धि का कार्य व्यावसायिक है। मन की वृत्तियों में संकल्प, वासना, इच्छा, स्मृति, धृति, श्रद्धा, उत्साह, करुणा, प्रेम, दया, सहानुभूति, कृतज्ञता, काम, लज्जा, आनंद, भय, राग, लोभ, मद, मत्सर, क्रोध आदि आते है जो उसे कर्म को प्रेरित करते है। आप चाहे कितने भी बुद्धिमान क्यों न हो, जब तक हृदय में करुणा नही, आप गरीब की सहायता नही करेंगे।
मनुष्य और कंप्यूटर में अंतर इन्ही भावनाओ का है, कंप्यूटर भावनाओ से शून्य होने से उस मे भर ज्ञान से कोई भी निर्णय लेता है, फिर परिस्थिति, स्थान, व्यक्ति किसी भी उम्र, लिंग या अवस्था का क्यों न हो। किन्तु मनुष्य के निर्णय आत्मिक, भावनाओ और उस के ज्ञान पर है। इसी कारण स्थान और मत के अनुसार भाषा के अर्थ, विचार और आचरण भी बदल जाते है।
गीता के ही अठारहवे अध्याय में बुद्धि के तीन प्रकार बताए है एवम जिस में सात्विक बुद्धि वह है, कि जिसे इन बातों का यथार्थ ज्ञान है: कौन सा काम करना चाहिये और कौन सा नही, कौन सा काम करने योग्य है और कौन सा अयोग्य, किस बात से डरना चाहिए और किस बात से नही, किस में बंधन है और किस में मोक्ष।
एक न्यायाधीश का निर्णय न्यायशास्त्र एवम नियमो के अंतर्गत होता है किंतु विकट परिस्थिति में निर्णय मन के ऊपर छोड़ देते है। मनोदेवता कभी भी असत्य, अधर्म या अन्याय का समर्थन नही करते एवम यदि किसी ने कुछ गलत भी किया हो तो मनोदेवता उस को कचोटते है। किंतु यह उतना सुलभ नही जितना सोचा जाता है। इस के लिये शांत, स्थिर एवम ज्ञानवान मन की आवश्यकता होती है जिस ने अभ्यास से मन को साध लिया वो किसी भी कार्य को सरलता से कर सकता है।
किसी कार्य -अकार्य, सत्य- असत्य एवम धर्म- अधर्म के लिए सदसद्विवेचन शक्ति होनी चाहिये, जिस से व्यक्ति सभ्य हो कर कार्य कर सके। इस बात का सूक्ष्म रीति से निरीक्षण किया गया कि मन एवम बुद्धि का कार्य किस प्रकार होता है एवम सदसद्विवेचन शक्ति अर्थात सात्विक बुद्धि किस प्रकार प्राप्त की जाए इस के क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ विचार शुरू किया गया। इस को सही सही समझ लिया जाए तो मनोदेवता इतना अधिक शसक्त होना जाएगा कि किसी कार्य का निर्णय लेने की क्षमता असधारण रूप से बढ़ जाती है। क्षेत्र का अर्थ शरीर और क्षेत्रज्ञ का अर्थ आत्मा है। स्वयं अपने पिंड, क्षेत्र अथवा शरीर के और मन के व्यापारों का निरीक्षण करके यह विचार करना, की उस निरीक्षण से क्षेत्रज्ञ रूपी कैसे निष्पन्न होती है। इस को ही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ- विचार या शरीर का विचार करने वाला सूत्र भी वेदांतसूत्रो में कहते है। इस का ठीक ठीक ज्ञान होना भी आवश्यक है।
सृष्टि के सभी नाशवान पदार्थो को जो व्यक्त भी है और दृष्यवान एवम दृश्यवान नही भी है, सभी को क्षेत्र -क्षर- व्यक्त माना गया है एवम सृष्टि के उन नाशवान पदार्थो में जो सारभूत नित्य तत्व है उसे क्षेत्रज्ञ-अक्षर या अव्यक्त माना गया है।
हिन्दू धर्म में दर्शन अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन (छः दर्शन) अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। ये सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त के नाम से विदित है। इनके प्रणेता कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि और बादरायण थे। इनके आरंभिक संकेत उपनिषदों में भी मिलते हैं। प्रत्येक दर्शन का आधारग्रंथ एक दर्शनसूत्र है। “सूत्र” भारतीय दर्शन की एक अद्भुत शैली है। गिने-चुने शब्दों में सिद्धांत के सार का संकेत सूत्रों में रहता है। संक्षिप्त होने के कारण सूत्रों पर विस्तृत भाष्य और अनेक टीकाओं की रचना हुई। भारतीय दर्शन की यह शैली स्वतंत्र दर्शनग्रंथों की पश्चिमी शैली से भिन्न है। गुरु-शिष्य-परंपरा के अनुकूल दर्शन की शिक्षा और रचना इसका आधार है। यह परंपरा षड्दर्शनों के बाद नवीन दर्शनों के उदय में बाधक रही।
गीता में मुख्यत: वेदांत की विचारधारा को ले कर दर्शन की व्याख्या है किंतु जहां यह विचाराधारा वेदांत के विरोधाभास में नही है, न्यायिक और सांख्य को स्वीकार किया गया है। अध्याय 16 में हमारी कोशिश दर्शन शास्त्र को भी संक्षिप्त में पढ़ने की रहेगी।
आगे हम क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के विचारों को पढेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।। 13.01।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)