।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 12.S II Summary II
।। अध्याय 12.S II सारांश II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ अध्याय: १२ सारांश॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः॥
|| ōṃ tatsaditi śrīmadbhagavadgītāsūpaniṣatsu brahmavidyāyāṃ yōgaśāstrē śrīkṛṣṇārjunasaṃvādē bhaktiyōgō nāma dvādaśō’dhyāyaḥ ||
भावार्थ:
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण- अर्जुन संवाद में भक्ति-योग नाम का बारहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥
Meaning:
Thus ends the twelfth chapter named Bhakti Yōga in Srimad – bhagavad Gītā which is the essence of the Upaniṣads, which deals with Brahman- knowledge as well as the
preparatory disciplines, and which is in the form of a dialogue between Lord Krishna and Arjuna.
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
Summary of Bhagvad Gita Chapter 12:
Shri Krishna ended the previous chapter with the message that Ishvara is in everything, and everything is in Ishvara. But since our senses see the world and not Ishvara, we need a way to constantly be aware of Ishvara’s presence. Till we get to a state where this happens effortlessly, Shri Krishna asks us to take up the path of bhakti or devotion, where we constantly abide in the faith that Ishvara is in everything, and everything is in Ishvara. The seed of bhakti yoga was planted at the end of the previous chapter and is expounded in this chapter.
Arjuna began this chapter by asking the question: of the devotees who worship Ishvara with form, and of those who worship him without form, who is superior? Shri Krishna replied that the worshipper of Ishvara without form sees no difference between him and Ishvara. But for most of us who still have a little saatvik ahamkaara, which is the sense of distance or separation between us and Ishvara, worship of the formless Ishvara is quite difficult. Therefore, he recommends worship of Ishvara with form for the majority of devotees. The key qualification, however, is that of single pointed devotion.
Next, Shri Krishna gives us a sequence of steps to get to Ishvara but takes into account where we are as ordinary devotees. We are instructed to begin with karma yoga where we renounce the fruits of action by submitting them to Ishvara. We then begin performing every action for the sake of Ishvara, which is bhakti yoga, the yoga of devotion. Once we have diminished our selfish desires and our ego to a large extent, we are urged to take up raaja yoga where we repeatedly meditate upon Ishvara with form. Finally, we reach a stage where we remain in constant awareness and knowledge of our oneness with Ishavara, which is jnyaana yoga, the yoga of knowledge.
The chapter ends with a list of thirty-nine qualities of a perfected devotee. They are meant to inspire us. Even if we cannot gain all these qualities, we should aim for acquiring at least one, because gaining even one quality opens the door to the acquiring the rest. In all of these qualities, equanimity, unselfishness, lack of attachment and unwavering faith towards Ishvara are repeatedly emphasized.
सारांश – द्वादश अध्याय
एकादश अध्याय में विराट स्वरूप है दर्शन कराने के बाद, अर्जुन के मन मे एक शंका रह गईं कि जो भक्त आप के सगुण स्वरूप से जुड़े है एवम आप की इस रूप में उपासना करते है एवम जो भक्तों से जो आप को अविनाशी, इन्द्रियातीत, निर्गुण रूप से उपासना करते है, उन में श्रेष्ठ योगवेत्ता कौन है। प्रश्न सरल एवम सीधा था कि जब सगुण उपासना का मार्ग है तो ज्ञान योग की उपासना का मार्ग क्यों बताया गया, क्योंकि सगुण उपासना से जीव निर्गुण उपासना करने को सक्षम को सकता है।
दूसरे अध्याय से छठे अध्याय तक जगह जगह निर्गुण ब्रह्म की मुख्यतः उपासना का वर्णन है फिर सातवे से ग्यारहवे अध्याय तक सगुणाकार कि उपासना का वर्णन करते हुए बीच बीच निर्गुणाकार की भी प्रशंसा है। अर्जुन पहले कर्म योग, फिर ज्ञान योग, फिर कर्म सन्यास योग से स्थिर हुआ ही था कि भगवान से उसे भक्ति योग बताना शुरू किया। अतः उस की समस्या स्वाभाविक ही है।
परमात्मा का कहना है मेरा वास्तविक स्वरूप निर्गुणाकार, अव्यक्त, नित्य ही है अतः जो योगी पुरुष मन, बुद्धि एवम इंद्रियाओ को स्थिर कर के मुझ में ध्यान द्वारा योग लगाता है एवम जो शरीर को प्रकृति का हिस्सा मान कर देहाभिमान से परे होता है वो मुझे प्राप्त होता है किंतु यह मार्ग अत्यंत क्लेशपूर्ण है इसलिये इस मे योगी प्रायः देहाभिमान से पथभ्रष्ट हो जाते है। इसलिये मुझे प्राप्त करने का सरल मार्ग सगुणाकार से निर्गुणाकार उपासना का है।
सगुण उपासना द्वैत उपासना होते हुए भी भक्त अपने आप को श्रद्धा, प्रेम, विश्वास में परमात्मा को स्मरण करता हुआ समर्पित होता है और निष्काम भाव कर्मसन्यास का पालन करता है, तो भगवान का कथन है कि मैं मृत्युरूपी संसार से ऐसे भक्तों का उद्धार कर देता हूँ। अर्थात उन भक्तों को ज्ञान मैं ही प्रदान कर देता हूँ और उन का योगक्षेम भी वहन करता हूँ।
इसलिये तू मुझ ने मन एवम बुद्धि लगा, यदि संभव नही तो अभ्यास कर, यदि यह भी नही संभव तो कर्म मेरे हेतु कर और यदि यह भी संभव न हो तो निष्काम कर्म कर। यदि यह भी संभव नही तो अपने सभी कर्म मुझे अर्पित भाव से करता हुए, कर।
निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। कर्मो के फल का त्याग ही योग है। इस प्रकार के उपासक के उद्धार की जिम्मेदारी स्वयं भगवान लेते है।
इस के बाद भगवान ने भक्त के गुण बताए-
1. भक्त द्वेष रहित, स्वार्थ रहित, सब का प्रेमी, दयालु, अहंता रहित, ममता रहित, सुख-दुख में सम एवम क्षमावान है। जो संतुष्ट, मन एवम इंद्रियाओ को वश में रखनेवाला, दृढ़ निश्चयी एवम मन-बुद्धि से मुझ में अर्पित है।
2. जो उद्वेग को प्राप्त नही है, न ही उस को किसी से उद्वेग होता है एवम न ही वो किसी के उद्वेग का कारण होता है।
3. वह आकांक्षा से रहित, बाहर भीतर से शुद्ध, चतुर, पक्षपात रहित, दक्ष, सभी कार्यो ने आरंभ से मुक्त है।
4. वह कभी न हर्ष, न द्वेष, न शोक और न ही कामना करता है। उस के कोई भी कर्म शुभ-अशुभ नहीं होते।
5. जो शत्रु-मित्र एवम मान-अपमान के लिये सम भाव है। वह गर्मी-सर्दी एवम सुख-दुख आदि द्वंद में समभाव है, एवम आसक्ति रहित है। वह निंदा-स्तुति में भी सम है, संतुष्ट है, स्थान-भौतिक साधनों से अनासक्त है, स्थिर मन एवम बुद्धि का है एवम मौनी है।
ग्याहरवें अध्याय के 55वे श्लोक में मत्कर्म, मतपरमः, मद्भक्त, संगवर्जित एवम निर्वैर पांच गुण बताए। परमात्मा ने इन सब को अपना प्रिय बताया है। यह सब मिला कर 36 गुण के करीब होते है। महाभारत में सब से अधिक पात्र है एवम सभी किसी न किसी गुण से युक्त है। परमात्मा से निकट वही है जो जितना भगवत परायण है। जो इस गुणों के विपरीत है वो असत्य अर्थात अधर्म के मार्ग में है। प्रकृति के त्रियामी गुणों में सत, रज एवम तम है, हमे अपने मन-बुद्धि एवम चेतन को सत गुण युक्त करना है। यही सात्विक शुद्ध परमेश्वर को प्राप्त करने का मार्ग है। इसलिये महाभारत में धर्म युद्ध मे पात्रों के प्रति न्याय का निर्णय इस सब गुणों के आधार पर भी लिया गया है। यद्यपि इस का निर्णय में अन्य आधार भी है जिसे हम आगे समझेंगे।
परमात्मा कहते है कि जिन व्यक्तियों में भगवद कथा या विषय मे प्रेमपूर्वक अनुराग होता है, जहां मेरे लिये प्रवचन,कथा और कीर्तन होता है। वही स्थान और जीव तीर्थ है, वही क्षेत्र है, वही स्थान पवित्र है, वही देवता रमते है। वही मेरा ध्यान और देवार्चन है। ऐसे समर्पित भक्त से बढ़ कर कुछ भी नही है, यह सभी मुझे अतिशय प्रिय भी है। ऐसे भक्तों को मिले बिना मुझे भी समाधान नही मिलता।
गीता में भक्ति योग में भी ज्ञान एवम तप का ही विशेष वर्णन है, इस मे भगवान की लीलाओं का माधुर्य वर्णन का अभाव है। भक्ति में परमात्मा से जुड़ने का एक मात्र मार्ग प्रेम और माधुर्य ही है, भक्त भगवान की लीलाओं में ही रस लेता है और उसी मैं रम जाता है। इसलिए महृषि व्यास जी मे श्रीमद भागवद पुराण की रचना की।
भक्ति योग में सगुणाकार ब्रह्म को श्रेष्ठ बताया गया है, किन्तु हमे यहाँ यह भी समझना आवश्यक है कि मूर्ति में परमात्मा है किंतु मूर्ति परमात्मा नही। जैसे परमात्मा ने स्वयं कहा है कि प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ जड़-चेतन में उपस्थित हूँ, मेरे से अतिरिक्त कुछ भी नही है किंतु यह सब मुझ में नही है और मेरे में नही है अर्थात यह सब मैं नही हूँ।
निष्काम कर्म योग, सांख्य योग, ध्यान योग और भक्ति योग सभी मार्ग उस एक पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त करने के विभिन्न मार्ग है। अंत मे सभी ज्ञान योग को ही प्राप्त होते है। जीव की क्षमता, इन्द्रियों एवम मन का स्वभाव ही तय करता है कि उस के लिये कौन सा मार्ग उत्तम है। सभी मार्ग में निष्काम कर्म और लोकसंग्रह के कार्य करने को कहा गया है, जिस से प्रकृति अपना कार्य निमित्त बना कर करती है। जो प्रकृति के विरुद्ध जाने की चेष्टा कर्महीन हो कर करता है, वह सफल भी नही होता।
गीता के त्रय षष्ठी अध्याय में तत त्वम असि में हम अध्याय 12 तक में प्रथम 6 अध्याय मैं त्वम अर्थात जीव जो समझा और फिर अगले 6 अध्याय में ब्रह्म तत तत्व को जाना है अतः आगे हम असि अर्थात ब्रह्म, जीव, प्रकृति और माया को समझते हुए, प्रकृति किस प्रकार कार्य करती है और द्वैत और अद्वैत में जीव और ब्रह्म कैसे एक ही है, इस गहन विषय को अध्याय 13 से 18 तक पढ़ते है। अब अध्ययन ज्ञान के साथ साथ दर्शन शास्त्र को भी पढ़ने की चेष्टा करेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।। 12वा अध्याय।।
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