।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 12.18 II Additional II
।। अध्याय 12.18 II विशेष II
।। श्रीमद भगवद्गीता और श्रीमद्भागवद पुराण भाग 1 ।। विशेष 12.18 ।।
गीता में भक्ति योग का अत्यंत सीमित वर्णन है, वह भी ज्ञान- ध्यान और भक्ति योग की भांति इस मे भी परमात्मा द्वारा भक्त के गुणधर्म का ही वर्णन है। गीता समस्त वेदों और उपनिषदों के दूध अर्थात सार ग्रंथ में प्रस्तुति है, इसलिए प्रस्थानत्रयी ग्रंथ में इसे स्मृति ग्रंथ में मान्यता प्रदान की गई है। भगवद गीता ज्ञानयोग, बुद्धि योग, भक्ति योग के साथ मूलत: निष्काम कर्मयोग को के साथ परमात्मा के प्रति समर्पित भाव के साथ कर्म करने का ग्रंथ है। इसलिए इस की पृष्ठ भूमि युद्ध की है। जबकि श्रीमद भागवद पुराण भक्ति रस श्रद्धा, प्रेम और विश्वास के साथ स्मरण और समर्पण का भाव है। इसलिये श्रीमद्भगवादगीता की रचना के बाद रस और माधुर्य में परमात्मा के स्वरूप में भक्त द्वारा सगुण उपासना में भगवान की उपासना में अपने को डुबो देने के लिए भागवद पुराण की रचना की गई। इस की पृष्ठ भूमि में निर्गुण ब्रह्म स्वरूप में शुकदेव की कथा और मृत्यु के भय से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति की परीक्षित की कथा जुड़ी हुई है।
भक्ति के रस और माधुर्य का आनन्द भक्त के द्वारा परमात्मा के स्मरण से प्राप्त होता है, वह निरंतर परमात्मा को सुमरण करता है और उन के द्वारा की गई लीलाओं को ध्यान करता है। यह जीव की आसक्ति जो संसार के प्रति है, उसे हम जीवात्मा कहते है किंतु यही आसक्ति परमात्मा के प्रति हो जाये तो गीता के अध्याय 12 में भक्त के जिन गुणों का वर्णन है, भक्त में स्वतः ही आ जाते है। श्रीमद्भागवद पुराण परमात्मा को समर्पित भाव से स्मरण करने का ग्रन्थ है। भक्ति योग में परमात्मा ने ब्रह्मत्व प्राप्त करने के विभिन्न मार्ग ज्ञान योग युक्त भक्ति, अभ्यास, निष्काम कर्म योग और सकाम कर्म को समर्पित भाव से करने के विभिन्न तरीके बताए, जो ज्ञानी से ले कर साधारण गृहस्थ के लिए भगवद कृपा के और मुक्ति के लिए विभिन्न सोपान है। वर्ण व्यवस्था में ब्रह्म से तामसी प्रवृति को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित किया है। जो व्यक्ति पूर्ण ज्ञानयोग से श्रद्धा, प्रेम और विश्वास से परमात्मा के प्रति समर्पित है, वह ब्राह्मण, जो निष्काम कर्मयोग सन्यास से कार्य करे, वह क्षत्रिय, जिस से रज गुण प्रधान, और जो सकाम हो कर कर्म करता हुए, परमात्मा के प्रति समर्पित है, वह वैश्य और जो स्वार्थ, लोभ और मोह में अपने शरीर के प्रति कर्म करता है, वह शुद्र। अतः ज्ञान योग में वेद और शास्त्र का अध्ययन वही करे जो सत गुण से युक्त है जिस से ज्ञान को सही समझ सके तथा अन्य वह मार्ग समर्पण और स्मरण का अपनाए जिस से वे सत गुण की ओर बढ़ सके। आज के समय भागवद पुराण की कथाओं में भगवान की लीलाओं का अधिक वर्णन और ज्ञान का संक्षित वर्णन होता है। कुछ भागवद पुराण के प्रेमी अपनी निष्ठा, श्रद्धा और भक्ति के लिए कथा प्रसंग का नाटक और कीर्तन नृत्य आदि भी करते है। यद्यपि भागवद पुराण सात्विक और मोक्ष के लिया ज्ञान, भक्ति और स्मरण और समर्पण का अद्वितीय ग्रंथ है, उस में यदि कोई नाचने, गाने या नाटक आदि करता भी है, तो भी परमात्मा के बताए, चतुर्थ सकाम समर्पण की भक्ति में स्वीकार किया जा सकता है। किंतु यह भक्ति मोक्ष प्रदान करने वाली या आत्मशुद्धि की भक्ति नहीं होगी। क्योंकि हम जब परमात्मा के नाम पर, सांसारिक सुख का आनंद लेते है या अपने सांसारिक मोह और राग का प्रदर्शन करते है, वे कर्म हमे आगे चल कर फल में बांधते है।
इस पुराण में सकाम कर्म, निष्काम कर्म, ज्ञान साधना, सिद्धि साधना, भक्ति, अनुग्रह, मर्यादा, द्वैत-अद्वैत, द्वैताद्वैत, निर्गुण-सगुण तथा व्यक्त-अव्यक्त रहस्यों का समन्वय उपलब्ध होता है। ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ वर्णन की विशदता और उदात्त काव्य- रमणीयता से ओतप्रोत है। यह विद्या का अक्षय भण्डार है। यह पुराण सभी प्रकार के कल्याण देने वाला तथा त्रय ताप- आधिभौतिक, आधिदैविक और आधिदैहिक आदि का शमन करता है। ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का यह महान ग्रन्थ है।
इस पुराण में बारह स्कन्ध हैं, जिन में विष्णु के अवतारों का ही वर्णन है। नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों की प्रार्थना पर लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा सूत जी ने इस पुराण के माध्यम से श्रीकृष्ण के चौबीस अवतारों की कथा कही है।
इस पुराण में वर्णाश्रम-धर्म- व्यवस्था को पूरी मान्यता दी गई है तथा स्त्री, शूद्र और पतित व्यक्ति को वेद सुनने के अधिकार से वंचित किया गया है। ब्राह्मणों को अधिक महत्त्व दिया गया है। वैदिक काल में स्त्रियों और शूद्रों को वेद सुनने से इसलिए वंचित किया गया था कि उनके पास उन मन्त्रों को श्रवण करके अपनी स्मृति में सुरक्षित रखने का न तो समय था और न ही उनका बौद्धिक विकास इतना तीक्ष्ण था। किन्तु बाद में वैदिक ऋषियों की इस भावना को समझे बिना ब्राह्मणों ने इसे रूढ़ बना दिया और एक प्रकार से वर्गभेद को जन्म दे डाला।
वर्णाश्रम की यह व्यवस्था कर्म, संस्कार और ज्ञान पर आधारित सुनियोजित व्यवस्था थी, जिस से समाज मे प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यगता के अनुसार सहभागी हो। स्वयं व्यास जी पराशर ऋषि और मछुवारे की कन्या के पुत्र हो कर अत्यंत ज्ञानी थे।
‘श्रीमद्भागवत पुराण’ में बार-बार श्रीकृष्ण के ईश्वरीय और अलौकिक रूप का ही वर्णन किया गया है। पुराणों के लक्षणों में प्राय: पाँच विषयों का उल्लेख किया गया है, किन्तु इसमें दस विषयों- सर्ग- विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय का वर्णन प्राप्त होता है (दूसरे अध्याय में इन दस लक्षणों का विवेचन किया जा चुका है)। यहाँ श्रीकृष्ण के गुणों का बखान करते हुए कहा गया है कि उनके भक्तों की शरण लेने से किरात् हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस आदि तत्कालीन जातियाँ भी पवित्र हो जाती हैं।
भागवत पुराण हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् या केवल भागवतम् भी कहते हैं। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है। परंपरागत तौर पर इस पुराण के रचयिता वेद व्यास को माना जाता है।
श्रीमद्भागवत भारतीय वाङ्मय का मुकुटमणि है भगवान शुकदेवद्वारा महाराज परीक्षित को सुनाया गया भक्तिमार्ग तो मानो सोपान ही है। इसके प्रत्येक श्लोक में श्रीकृष्ण- प्रेम की सुगन्धि है। इस में साधन- ज्ञान, सिद्धज्ञान, साधन- भक्ति, सिद्धा- भक्ति, मर्यादा- मार्ग, अनुग्रह- मार्ग, द्वैत, अद्वैत समन्वय के साथ प्रेरणादायी विविध उपाख्यानों का अद्भुत संग्रह है।
अष्टादश पुराणों में भागवत नितांत महत्वपूर्ण तथा प्रख्यात पुराण है। पुराणों की गणना में भागवत अष्टम पुराण के रूप में परिगृहीत किया जाता है। भागवत पुराण में महर्षि सूत जी उनके समक्ष प्रस्तुत साधुओं को एक कथा सुनाते हैं। साधु लोग उन से विष्णु के विभिन्न अवतारों के बारे में प्रश्न पूछते हैं। सूत जी कहते हैं कि यह कथा उन्होने एक दूसरे ऋषि शुकदेव से सुनी थी। इसमें कुल बारह स्कन्ध हैं। प्रथम स्कन्ध में सभी अवतारों का सारांश रूप में वर्णन किया गया है।
आजकल ‘भागवत’ आख्या धारण करनेवाले दो पुराण उपलब्ध होते हैं :
(क) देवीभागवत तथा
(ख) श्रीमद्भागवत
अत: इन दोनों में पुराण कोटि में किस की गणना अपेक्षित है? इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है।
विविध प्रकार से समीक्षा करने पर अंतत: यही प्रतीत होता है कि श्रीमद्भागवत को ही पुराण मानना चाहिए तथा देवी भागवत को उपपुराण की कोटि में रखना उचित है। श्रीमद्भागवत देवीभागवत के स्वरूपनिर्देश के विषय में मौन है। परंतु देवी भागवत ‘भागवत’ की गणना उपपुराणों के अंतर्गत करता है तथा अपने आप को पुराणों के अंतर्गत। देवीभाग पंचम स्कंध में वर्णित भुवनकोश श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध में प्रस्तुत इस विषय का अक्षरश: अनुकरण करता है। श्रीभागवत में भारतवर्ष की महिमा के प्रतिपादक आठों श्लोक देवी भागवत में अक्षरश: उसी क्रम में उद्धृत हैं (8.11.22-29)। दोनों के वर्णनों में अंतर इतना ही है कि श्रीमद्भागवत जहाँ वैज्ञानिक विषय के विवरण के निमित्त गद्य का नैसर्गिक माध्यम पकड़ता है, वहाँ विशिष्टता के प्रदर्शनार्थ देवीभागवत पद्य के कृत्रिम माध्यम का प्रयोग करता है।
श्रीमद्भागवत भक्तिरस तथा अध्यात्मज्ञान का समन्वय उपस्थित करता है। भागवत निगम कल्पतरु का स्वयंफल माना जाता है जिसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा ब्रह्मज्ञानी महर्षि शुक ने अपनी मधुर वाणी से संयुक्त कर अमृतमय बना डाला है। स्वयं भागवत में कहा गया है-
सर्ववेदान्तसारं हि श्रीभागवतमिष्यते।तद्रसामृततृप्तस्य नान्यत्र स्याद्रतिः क्वचित् ॥
श्रीमद्भाग्वतम् सर्व वेदान्त का सार है। उस रसामृत के पान से जो तृप्त हो गया है, उसे किसी अन्य जगह पर कोई रति नहीं हो सकती अर्थात उसे किसी अन्य वस्तु में आनन्द नहीं आ सकता।
श्रीमद्भागवद पुराण की रचना का विषय और महत्व:
श्रीमद्भागवत का अर्थ क्या है?, भागवत कथा का महत्व क्या है?, श्रीमद भागवत महापुराण में कितने श्लोक हैं?, भागवत की रचना कैसे हुई? इन सब प्रश्नों को हम पुराणिक मान्यताओं में खोजते है।
“शौनक जी” ने एक बार “सूत जी” से कहा कि यह “भागवत” की रचना किसने करी, कहां करी, क्यों करी?
सूत जी कहते है ऋषियो जिस समय द्वापर के अंत में वेदव्यास जी का प्राकट्य हुआ, यह भगवान के “कला- अवतार” हैं। कला- अवतार उसे कहते हैं जब भगवान उपदेश देकर के जीवो का मार्गदर्शन करने आते हैं, जैसे “कपिल भगवान” हुए, “वेदव्यास जी महाराज” हुए, जिन्होंने उपदेश देखकर के जीवो का “पथ–प्रदर्शन” किया। इसलिए यह भगवान के कला– अवतार हैं, तो पराशर ऋषि के द्वारा “मत्स्यगंधा” के उदर से प्रकट हुए “श्री वेदव्यास जी महाराज” “भूत” “भविष्य” “वर्तमान” को प्रत्यक्ष अपनी दिव्य दृष्टि से देखने वाले “अमोघ दृष्टा”| “व्यास जी महाराज” ने भविष्य पर दृष्टिपात करके देखा तो घोर कलिकाल के कलुषित प्राणियों को देख कर के चित अशांत हो गया–हरे राम राम रामजीवो का कैसे कल्याण होगा कलिकाल में, लोगों की बुद्धि मंद, भाग्य भी अति मंद, कोई बुद्धिहीन व्यक्ति हो पर यदि भाग्यशाली हो तो काम चल जाएगा, भाग्यहीन व्यक्ति हो पर बुद्धिमान हो तो बुद्धि के बल पर अपना निर्वाह कर लेगा,पर बुद्धि और भाग्य दोनों ही समाप्त हो गए हो, दोनों ही मंद पड़ गए हो तो ऐसे जीवो का कैसे कल्याण होगा इसलिए “व्यास जी महाराज” ने उन सब का ध्यान रखते हुए एक “वेद” के चार विभाग कर दिए “ऋग्वेद”, “यजुर्वेद”, “सामवेद” और “अथर्व” पर चित् को फिर भी शांति नहीं मिली क्योंकि “वेदों” में ज्ञान का तो भंडार तो बहुत बड़ा है,पर वेद के गूढ़ ज्ञान को समझने वाला नहीं है टेड़ी भाषा है तो उसको और सरल करने के लिए“पंचम वेद महाभारत” की रचना करी, जिन की गति “वैदिक ज्ञान” में ना हो वह “महाभारत का स्वाध्याय” करके वैदिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं इसलिए महाभारत की रचना करी, परंतु फिर भी मन को संतोष नहीं हुआ,
तब पुराणों की रचना प्रारंभ करें एक–एक कर के “सत्रह पुराण” लिख डाले, पर व्यास जी महाराज का मन अभी भी संतुष्ट नहीं है, सोच रहे थे कि अब क्या किया जाए सत्रह पुराण तक लिख डाले सोच ही रहे थे कि अचानक उनके कान में ध्वनि सुनाई पड़ी “श्रीमन नारायण नारायण” “देवर्षि नारद” गोविंद के गुणा-नुवाद गाते हुए अपनी वीणा पर प्रगट हो गए व्यास जी के सामने, “देवर्षि नारद” का दर्शन करते ही “वेदव्यास जी” खड़े हुए और विधिवत पूजन किया। अतिथि पूजन करने के पश्चात जब आदर पूर्वक आसन देकर बैठाए तो नारद जी मुस्कुराए हे “पराशर नंदन” (पराशर ऋषि की संतति में जो हुए वह सब पराशर, तो व्यास जी को पाराशर कहकर संबोधन कर रहे हैं)। हे “पराशर नंदन” – “वेदव्यास जी” आपका मुंह थोड़ा मलिन सा क्यों दिख रहा है, आपके धर्म-कर्म सब व्यवस्थित तो चल रहे हैं, आप की दिनचर्या में, भगवत सेवा में पूजा में कोई विघ्न बाधा तो नहीं आ रही है।
व्यास जी कहते हैं नारद जी आप ने जो कुछ भी पूछा वह सब ठीक चल रहा है,मेरे पूजा पाठ में कहीं कोई बाधा नहीं है,पर यह सब करने के बाद मैंने जीवो के कल्याणार्थ मैंने बड़े-बड़े ग्रंथों की रचना की, फिर भी न जाने क्यों चित् को चैन नहीं पड़ रहा, अभी भी मेरा मन संतुष्ट नहीं हो पा रहा, अभी भी मेरे हृदय में एक “अह्लाद” जो होना चाहिए कि मैंने समाज के लिए कुछ किया, वह पूर्ण संतुष्टि मेरे मन में नहीं है और वह क्यों नहीं है यह कारण मैं स्वयं भी नहीं जानता तो नारद जी बोले कि हम बताएं |
“महाराज बड़ी कृपा होगी बताइए” “श्री नारद जी” बोलते दिखाई पड़ रहे हैं, परंतु प्रेरणा देने वाले तो “परमात्मा” है, नारद जी के भीतर से परमात्मा बोल रहे हैं, व्यास जी का मार्गदर्शन करने के लिए इसलिए “श्री” लग गई क्योंकि अब “नारद जी भागवत” का उपदेश दे रहे हैं,व्यास जी को भगवान के माध्यम से “भागवत” मतलब “भागवता उप्रोक्तम” भगवान ने जो कहा अरे भगवान ने तो “ब्रह्मा जी” को कहा था, पर ब्रह्माजी ने नारदजी को कहा तो वह क्या था,
भगवान ने ही “ब्रह्मा जी” के भीतर से नारद जी को कहा, फिर भगवान ने ही नारद जी के भीतर बैठ कर के व्यास जी को कहा और फिर व्यास जी के भीतर बैठकर भगवान ने बैठकर ही “सुखदेव जी” को को कहा फिर “सुखदेव जी” के भीतर बैठकर भगवान ने ही “परीक्षित जी” को कहा इसलिए बोलता हुआ कोई भी दिखाई पड़े पर वक्ता के भीतर से बोलने वाले तो परमात्मा ही होते हैं इसलिए वक्ता “भगवत स्वरूप” ही होता है इसलिए श्री नारद यह कहते हुए संकेत दे रहे हैं “सूत जी” अब केवल नारद नहीं बोल रहे नारद जी के भीतर से भगवान बोल रहे हैं नारद जी कहते हैं व्यास जी तुमने बहुत कुछ लिखा और अपनी लेखनी में बहुत चमत्कार दिखाएं कहीं-कहीं पर तो आपने ऐसे भी “ब्याम्स्ति” वाक्य बोल दिए कि लोगों की बुधि चक्कर खा गई समझने में, अर्थ लगाने में और कई जगह तो आपके वाक्य ने अर्थ का अनर्थ भी कर दिया। जैसे हिंसा पर रोक लगाने के लिए कहीं-कहीं पर आपने हिंसा को ही कोई नियम बना दिया, अमुक यज्ञ करते समय अमुकपशु का बलिदान कर दो, एक तरफ तो लिख रहे हो “अहिंसा परमो धर्मः” और दूसरी तरफ लिख रहे हो “पशु आलभे तम्ह:”, तो लोगों ने तो आपके वचन को प्रमाण–पत्र बना करके पशुओं का बलिदान करना चालू कर दिया, समाज में तो एक हिंसा का अधिकार लोगों को मिल गया।जबकि आपका उद्देश्य तो यह नहीं था, आपका उद्देश्य तो “निवृत्ति परख” था,जो चाहे तब मारते रहते हैं पशुओं को उनको एक प्रतिबंध लगा रोकना चाहिए, कैसे–कि अमुक यज्ञ करते समय अमुक पशु की बलि चढ़ा दो,कम से कम जब कोई यज्ञ होगा तभी तो कोई पशु का बलिदान होगा जो रोज रोज काट रहे हैं वह तो बच गए, तो नित्य की हिंसा को रोकने के लिए,हिंसा को एक नियम में आपने बाधा ताकि कम हिंसा हो पर लोगों ने तो आप के वचन को प्रमाण पत्र बना कर के जो नहीं करने वाले थे उन्होंने भी हिंसा करना प्रारंभ कर दिया |
तुम कितना बढ़िया बोल रहे हो, कितना व्याकरण–सम्मत बोल रहे हो, यह भगवान नहीं देखते हैं पर क्या बोल रहे हो, कहां से बोल रहे हो | वाणी का वैभव भगवान नहीं देखते, प्रतिपाद्य विषय क्या है क्या है तुम्हारा, बोल किसके बारे में रहे हो, बहुत उच्च कोटि का विद्वान साहित्यिक भाषा में यदि किसी राजा के गुणानुवाद गावे तो उसका कोई महत्व नहीं, अगर कोई देहाती भाषा में गोविंद के गुणानुवाद गावे तो बड़े-बड़े संत सुनकर के “मुग्ध” हो जाते हैं प्रभु की उस महिमा को, तुम्हारा प्रतिपाद्य विषय क्या है?
इस विषय को सरल रूप से समझने के लिये एक प्रसंग का सहारा लेते है।
“अकबर” के दरबार में एक से एक विद्वान कवि बैठे थे, पर सब अकबर के गीत गाते थे, “सूरदास जी” की महिमा जब अकबर ने सुनी तो बुलवाया दरबार में, बड़ा महान कवि है भई अंधा होकर भी भी गजब की कविता बोलता है जरा बुलाओ, सूरदास जी दरबार में आए आना पड़ा “बादशाह” का हुकुम था, दरबार में प्रस्तुत हुए, सुनाया बढ़िया “ठाकुर जी” का पद, अकबर ने कहा कि भईया कोई हमारे बारे में भी कुछ सुनाओ |
सूरदास जी बोले भईया हम तो एक ही बादशाह (भगवान) को सुनाते हैं, उसी के गीत गाते हैं और कोई गीत हमें आता ही नहीं और किसी के बारे में पद बनाना हमें आता ही नहीं। उन की भावना का आदर किया अकबर ने, बुरा नहीं माना अंत में बोला कि हम आपकी पदावली से बहुत प्रसन्न हुए मांगो क्या चाहते हो |
“सूरदास जी” ने कहा बादशाह एक ही हमको वचन दीजिए, वरदान दीजिए कि दुबारा मुझे कभी मत बुलाना यदि आप हम से प्रसन्न है और हमें कुछ देना ही चाहते हो तो दोबारा मुझे कभी दरबार में मत बुलाना बस यही चाहता हूं |
सुनने वाले हैरान हो गए कि हम कवि लोग तो आशा करते हैं कि दरबार में कुछ बोलने का मौका मिले,बड़े-बड़े विद्वान कभी अपना सौभाग्य समझते हैं बादशाह के गीत गाना,धन्य है यह “गीत राग फक्कड़” जो वरदान भी मांगता है तो बादशाह से मुझे कभी बुलाना मत और ना कभी मेरे से मिलने आना या तो बुलाना मत और मेरे से मिलने कभी आना मत कह कर चले गए |
बादशाह फिर कभी नहीं बुलाए पर बादशाह दीवाने हो गए फक्कड़ के, तो कवियों ने क्या किया– सूरदास जी की पद लिख–लिख कर के सुनाते, सूरदास जी को तो बुला नहीं सकते थे, तो बादशाह की विशेषता थी सूरदास जी का कोई पद गावे तो बादशाह मुग्ध होकर के बहुत सारी संपत्ति दे दे, बहुत विशिष्ट इनाम दे दे तो कवियों को और आनंद आने लगा तो सब ढूंढने लगे सूरदास जी के पद ज्यादा इनाम मिलेगा के लालच में, परंतु अब सूरदास जी के पद सबको उपलब्ध ना हो तो कुछ लोगों ने क्या किया– खुद पद बना लिया और सूरदास जी की छाप लगा दी, दरबार में जब सुनाया तो बादशाह बोले यह सूरदास जी का पद नहीं हो सकता, कवियों ने कहा कि महाराज जी आप कैसे कह सकते हैं क्या पहचान है तो अकबर ने कहा अच्छा एक पद लिख कर दो,एक पन्ने पर पद लिख कर दिया उस कवि ने जिसमें सूरदास जी की छाप लगा रखी थी और दूसरे पन्ने में वास्तविक सूरदास जी का जो पद था वह लिख कर दिया दोनों पन्ने लेकर पानी में डाल दिए तो आश्चर्य हुआ जो नकली पद था उसके सारे अक्षर मिट गए, गल गया और जो सूरदास जी का वास्तविक था उसके अक्षरों के “ज्यो के त्यों” बने रहे और पानी में गीला होने पर भी वह पद मिटा नहीं बादशाह बोले यह विशेषता है इस पद में जो दिव्यता है, जो दिव्य भाव है वह तुम्हारे पद में है ही नहीं, उस में बहुत दिव्यता, अलौकिकता झलकती ही नहीं,वह रस हृदय में आता ही नहीं सुन के, जो सूरदास जी के के पद में आता है।
“व्यास जी” तुमने भाषा का “वेशिष्ठ” तो दिखाया पर, गोविंद के गुण–नुवाद नहीं गए तो सब बेकार है अरे “नेस कर्म” की भी बहुत अच्छा कर्म है “निष्काम भाव” से किया जाए परंतु भगवान से विमुख हो,भगवान की प्रीति ना हो उसने इस कर्म की भी कोई शोभा नहीं,उस ज्ञान की कोई शोभा नहीं जो गोविंद से जुड़ा हुआ ना हो |
इसलिए व्यास जी महाराज आपने अपनी योग्यता का बहुत अद्भुत परिचय दिया है ग्रंथों में, परंतु अभी तक गोविंद के गुणा-नुवाद किसी ग्रंथ में नहीं गए, जब तक भगवान की “प्रीति कौमुदी” का विस्तार नहीं करोगे, गायन नहीं करोगे तब तक ना तो आपको ही चैन मिलेगा ना उस वाणी के द्वारा भक्तों को इतना आनंद मिलेगा।
व्यास जी इसलिए आपसे भी निवेदन है कि आप भी गोविंद के गुणा-नुवाद गावो, फिर देखो आपको कितना आनंद मिलता है और आपकी वाणी से भक्तों को को कितना परम सुख प्राप्त होता है संकेत भर कर दिया है अब गोविंद के गुणा- नुवाद तुम विस्तार से सुनाओ ऐसा कहकर कि नारद जी तो अंतर्धान हो गए।
व्यास जी महाराज ने तुरंत अपनी कमी का अनुभव कर लिया कि अभी तक मैं वक्ता बनकर सोच रहा था कि मैं मैं बोल रहा हूं, मैं लिख रहा हूं पर अब मैं वही लिखूंगा तो “ठाकुर जी” लिखाएंगे जो उनकी प्रेरणा होगी |
सरस्वती नदी में स्नान किया और स्नान करके जैसे ही व्यास जी महाराज ध्यान मग्न हो कर बैठे अपने “शम्य्प्राश आश्रम” में, हृदय में भागवत की भागीरथी प्रगट होने लगी, गदगद गोविंद के गुणा-नुवाद गाने लगे, व्यास जी गाते गए और “गणेश जी” महाराज लिखते गए। भागवत संहिता तैयार हुई और श्री वेदव्यास जी महाराज ने इस पावन परमहंसों की संहिता प्रगट कर दी, अठारह हज़ार श्लोकों की यह दिव्य संहिता तैयार तो हो गई परम मंगलमय भगवत स्वरूप श्रीमद्भागवत महापुराण के अंतर्गत आपने श्रवण किया,देवर्षि नारद से प्रेरित हुए श्री वेदव्यास जी महाराज ने अपने सम्य्प्राश आश्रम में माता सरस्वती का ज्ञान प्राप्त करके जैसे ही प्रभु का सुमिरन किया ध्यान किया हृदय प्रदेश में भगवती गंगा प्रभावित हो गई।
पुराणों के क्रम में “भागवत” पुराण पाँचवा स्थान है। पर लोकप्रियता की दृष्टि से यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। वैष्णव 12 स्कंध, 335 अध्याय और 18 हज़ार श्लोकों के इस पुराण को “महापुराण” मानते हैं। यह भक्ति शाखा का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है और आचार्यों ने इसकी अनेक टीकाएँ की है।
श्री वेदव्यास जी द्वारा भागवत की रचना क्यों और कैसे हुई? इसे आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। श्रीमद्भागवद पुराण-1 विशेष 12.18 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)