।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 12.14 II
।। अध्याय 12.14 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 12.14॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
“santuṣṭaḥ satataḿ yogī,
yatātmā dṛḍha- niścayaḥ..।
mayy arpita- mano- buddhir,
yo mad- bhaktaḥ sa me priyaḥ”..।।
भावार्थ:
जो मनुष्य निरन्तर भक्ति-भाव में स्थिर रहकर सदैव प्रसन्न रहता है, दृढ़ निश्चय के साथ मन सहित इन्द्रियों को वश किये रहता है, और मन एवं बुद्धि को मुझे अर्पित किए हुए रहता है ऎसा भक्त मुझे प्रिय होता है। (१४)
Meaning:
The yogi who is always contented, self-controlled, with firm conviction, who has dedicated his mind and intellect to me, he who is such a devotee of mine is dear to me.
Explanation:
6. Ever contented. Contentment comes not from increasing our possessions, but by decreasing our wants. Devotees no longer look upon material objects as the source of pleasure, and thus are content with whatever they get.
7. Steadily united with Me in devotion. As explained previously, “Yog” means union. Devotees are yogis because their consciousness is absorbed in God. This absorption is not occasional or intermittent, but steady and constant because they are established in their relationship with God.
8. Self-controlled. Devotees attach their mind to God in loving devotion. It is thus detached from the world, and this gives them mastery over their mind and senses.
9. Firm in conviction. The quality of determination comes from possessing a resolute intellect. Since devotees tie their intellect to the knowledge of the scriptures and the instructions of the Guru, it becomes so resolute that even if the whole world tries to convince them otherwise, they do not budge an inch from their position.
10. Dedicated to Me in mind and intellect. The soul is a servant of God by its inherent nature, and as we become enlightened with this knowledge, we naturally dedicate ourselves to the Supreme Lord. In this surrender, the mind and intellect are of primary importance. When they are devoted to God, the rest of the personality—body, working senses, knowledge senses, worldly possessions, and soul—naturally get dedicated in His service. Shree Krishna says that devotees who exhibit these qualities are very dear to Him.
Most of us derive contentment from people, objects and situations in the world, most notably after consuming a delicious meal. Contentment is a state where the mind does not want anything else from the world. But this state is temporary because the contentment has been triggered by something that is temporary and finite, like food for example. Shri Krishna says that the yogi, the perfected devotee, derives contentment from Ishvara within himself, therefore he does not need to become a bhogi, one who runs after material objects for contentment. He is “satatam santushta”, even contented.
Another quality of a perfected devotee is a firm conviction that only Ishvara exists, and that the world does not exist independently of Ishvara. Most of us assume that the world has an independent existence. We attach all sorts of values to it. causing our intellect to generate innumerable goals and convictions around those values. The perfected devotee sees only Ishvara everywhere, and therefore is ever steadfast in his conviction that only Ishvara exists.
This “dridha nishchaya” or firm conviction is demonstrated by the devotee’s submission of mind and intellect in Ishvara, and also, the control of the mind, body and senses. When the intellect is convinced that only Ishvara exists, and when the mind thinks only of Ishvara, the devotee does not need any other special yogic technique to control the organs of action and the sense organs. Selfish desires are the cause of the mind, body and senses deviating from prescribed actions. When there is only the desire for Ishvara, they can never deviate. Shri Krishna says that the perfected devotee is a “satatam yataatmaa”, one who has complete self control at all times.
Here Shri Krishna concludes the line of thought that he began in the previous shloka by asserting that the devotee who has inculcated these traits is very dear to Ishvara. These eight shlokas starting from the thirteenth shloka are one of the most famous and beloved shlokas in the Gita.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक में मैत्रय एवम करुणा भाव को दो पकड़ते हुए भक्त है सात गुणों का अध्ययन किया। यह श्लोक भी उसी से जुड़ा युग्म श्लोक है। इसलिये भक्त के अन्य गुणों को हम समझने प्रयत्न करते है
7. जीव को मन के अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि के संयोग में और मन के प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि के वियोग में एक संतोष होता है। विजातीय और अनित्य पदार्थों से होने के कारण यह संतोष स्थायी अर्थात नित्य नहीं रह पाता। स्वयं नित्य होने के कारण जीव को नित्य परमात्मा की अनुभूति से ही वास्तविक और स्थायी संतोष होता है।
यह संतोष किसी वस्तु की प्राप्ति या किसी घटना के होने या नही होने से सम्बंधित नही है। यह आन्तरिक मन एवम बुद्धि द्वारा नियंत्रित इंद्रियाओ का संतोष भी नही है क्योंकि जो बंधन से है वो टूट सकता है। यह संतोष जीव का चेतन से चेतन्य होने का है, उसे वो सब प्राप्त हो गया जो न अब छूट सकता है और न ही अब उस से अधिक प्राप्ति की कोई कामना है। उसे आस-पास की किसी भी घटना से या कार्य से किसी भी प्राप्ति की आशा नही। निष्काम हो कर कर्म करना ही संतोष है।
संतुष्टि और आलस्य में अंतर समझना जरूरी है। कर्म के अधिकार में पूर्ण तन्मय हो कर, अभ्यास द्वारा सम्बंधित विषय मे पारंगत होना और परिश्रम करते हुए निष्काम कर्म करने से जो फल उत्पन्न होता है, उस से कोई मानसिक असुंतलन के न होने होने हो संतुष्टि कहते है। कर्मविहीन लोग संतुष्ट नही आलसी और तामसी माने जाते है।
8. कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग – किसी भी योगमार्ग से सिद्धि प्राप्त करने वाले महापुरुष में ऐसी संतुष्टि (जो वास्तव में है) निरन्तर रहती है। हम ने पहले भी पढ़ा था कि कर्म योग एवम सांख्य योग दोनों एक ही परमात्मा को प्राप्त करने के मार्ग है, इसी श्रृंखला में भक्ति योग भी है। जहाँ तीनो मार्ग मिल कर एक हो कर आगे बढ़ते है,वही सतत संतोष का मार्ग है। जिसे एक बार प्राप्त करने के बाद दुबारा जरूरत नही।
9. कर्म योग में भी ज्ञान एवम निष्काम भाव से परमात्मा को प्राप्त करना, ज्ञान योग में योगी ब्रह्मविद हो कर परमात्मा को ही मिलता है तो भक्तियोग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त (नित्यनिरन्तर परमात्मा से संयुक्त) पुरुष का नाम भी यहाँ योगी है।वास्तव में किसी भी मनुष्य का परमात्मा से कभी वियोग हुआ नहीं, है नहीं, हो सकता नहीं और सम्भव ही नहीं। इस वास्तविकता का जिसने अनुभव कर लिया है, वही योगी है।
10. यतात्मा – जीव जब जड़ से मिलता है तो जड़ पदार्थ के पांच तत्व अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी एवम वायु से इसे शरीर प्राप्त होता है, जिस में मन, बुद्धि एवम अहंकार द्वारा ममत्व एवम कामना द्वारा जीव स्वयं को परमात्मा से पृथक मान लेता है। भक्ति योगी अपनी इंद्रियों, मन एवम बुद्धि तथा शरीर पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर के यतात्मा हो जाता है। जिस ने स्वयं पर अर्थात मन और इन्द्रियों सहित सम्पूर्ण शरीर पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया वो योगी है, वही यतात्मा है और वह ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।
न्यायशील सत्पुरुष की इन्द्रियों की प्रवृत्ति भी स्वतः कुमार्गकी ओर नहीं होती, तब सिद्ध भक्त (जो न्यायधर्म से कभी किसी अवस्था में च्युत नहीं होता) की मन बुद्धि इन्द्रियाँ कुमार्ग की ओर जा ही कैसे सकती हैं।
11. दृढनिश्चयः – सिद्ध महापुरुष की दृष्टि में संसार की स्वतन्त्र सत्ता का सर्वथा अभाव रहता है। उस की बुद्धि में एक परमात्मा की ही अटल सत्ता रहती है। अतः उस की बुद्धि में विपर्ययदोष (प्रतिक्षण बदलनेवाले संसारका स्थायी दीखना) नहीं रहता। उसको एक भगवान् के साथ ही अपने नित्यसिद्ध सम्बन्ध का अनुभव होता रहता है। अतः उसका भगवान् में ही दृढ़ निश्चय होता है। दृढ़ निश्चय जब मन या बुद्धि से हो तो बदल सकता है किंतु जब आत्मस्वरुप का ही हो तो उस ने कोई परिवर्तन संभव नही।
जब साधक एकमात्र भगवत्प्राप्ति को ही अपना उद्देश्य बना लेता है और स्वयं भगवान् का ही हो जाता है (जो कि वास्तव में है) तब उस के मनबुद्धि भी अपने आप भगवान् में लग जाते हैं। फिर सिद्ध भक्त के मनबुद्धि भगवान् के अर्पित रहें – इसमें तो कहना ही क्या है, जहाँ प्रेम होता है, वहाँ स्वाभाविक ही मनुष्य का मन लगता है और जिसे मनुष्य सिद्धान्त से श्रेष्ठ समझता है, उस में स्वाभाविक ही उसकी बुद्धि लगती है। भक्त के लिये भगवान् से बढ़कर कोई प्रिय और श्रेष्ठ होता ही नहीं। भक्त तो मन बुद्धि पर अपना अधिकार ही नहीं मानता। वह तो इनको सर्वथा भगवान् का ही मानता है। अतः उस के मन बुद्धि स्वाभाविक ही भगवान् में लगे रहते हैं।
ऐसा प्रेम यतात्मा द्वारा हो तो कोई असंतुष्टि नही। यह प्रेम ही भगवान ने वृदांवन में स्थापित किया, जहां बस प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नही। गोपी हो या वृंदावन के वासी सभी प्रेम से सरोबार, इसलिये भगवान भी प्रेम में ही डूब गए। भगवान कहते है जो भक्त इन सब गुणों स युक्त है वो ही उन्हें प्रिय है।
भक्ति योग सगुणाकार से निर्गुणाकार की प्राप्ति का मार्ग है, इसलिये जो गुण ब्रह्मविद में है, जो गुण निष्काम कर्मयोगी ज्ञान से प्राप्त करता है वही गुण भक्तयोगी भी प्राप्त करता है।
उपरोक्त 11 गुण को आत्मसात करने वाला भक्त परमात्मा को प्रिय होता है, प्रेम शब्द का वास्तविक अर्थ यही है कि प्रेम करने वाला कोई अपेक्षा नही रखता, उस का परमात्मा पर अटल विश्वास होता है, जिस से उसे अलग होने जैसा वियोग नही होता, वह दृढ़निश्चयी के परमात्मा से अनन्य प्रेम करता है, इसलिये श्रद्धा और विश्वास से स्मरण करता हुआ समर्पित भाव से कर्म करता है। उस का ह्रदय स्वच्छ करुणामय, मैत्रेयी, निरंहकार, क्षमाशील आदि सद्गुणों से परिपूर्ण होता है।
व्यवहार में प्रेम शब्द को सांसारिक प्रेम से जो देखते है, वही लोग गोकुल और वृंदावन में कृष्ण लीला हो नही समझ सकते। उसके बुद्धि और ज्ञान भी उसी स्तर का होना चाहिये।
जब परमात्मा से प्रेम हो जाता है तो कोई कामना शेष नही रहती, वह जिस हाल में हो, प्रसन्न ही रहता है। प्रेम से दूरियां कम होती है, इसलिए जब जीव का परमात्मा के प्रति प्रेम बढ़ने लगता है, तो हृदय में स्थित परमात्मा और जीव एकाकार होने लगता है।
बारहवें अध्याय के पहले बारह श्लोकों में भगवान कृष्ण ने साधनाओं की पूरी श्रृंखला के बारे में बात की है, अर्थात प्रत्येक साधक को जिस योग का पालन करना चाहिए, उस साधना की श्रृंखला को भक्ति योग कहा जाता है और भक्ति योग में कर्म योग के पहले दो स्तर शामिल हैं; इस में उपासना के अगले दो स्तर शामिल हैं; और इस में ज्ञान योग का अंतिम और अंतिम स्तर भी शामिल है और ज्ञान योग से हमारा मतलब है वेदांत श्रवण मनन निधिध्यासनम्। अतः भक्ति योग, कर्मयोग या ज्ञान योग परस्पर परमात्मा को पाने के विभिन्न मार्ग है जो हमे आत्मशुद्धि की ओर ले जाते है। आत्मशुद्धि ही निष्काम कर्मयोग और ज्ञान योग में जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही भक्ति मार्ग में। इसलिए एक भक्त के गुण, निष्काम कर्म योगी या कर्म सन्यास योगी के गुण एक समान ही है। कर्म सन्यास योगी में जो स्थितप्रज्ञ के गुण है, या जो निष्काम कर्मयोगी के गुण है, वही भक्त के भी गुण है।
हम आगे अन्य गुणों को पढ़ते जो भगवान को प्रिय है। पुनः ध्यान रखिये, यही सब गुण के सब से ज्यादा निकट होगा वो ही भगवत कृपा का अधिकारी भी होगा।
।। हरि ॐ तत सत ।। 12.14।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)