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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  12.03-04 II

।। अध्याय      12.03-04 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 12.3-4

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्‌ ॥३।।

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥४।।

“ye tv akṣaram anirdeśyam,

avyaktaḿ paryupāsate..।

sarvatra-gam acintyaḿ ca,

kūṭa-stham acalaḿ dhruvam”..।।3।।

“sanniyamyendriya- grāmaḿ,

sarvatra sama- buddhayaḥ..।

te prāpnuvanti mām eva,

sarva-bhūta-hite ratāḥ”..।।4।।

भावार्थ: 

जो अपनी इन्द्रियों को वश में कर के अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं, वे प्राणि मात्र के हित में रत, इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित कर के, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत, भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।। (३-४)

Meaning:

And those who steadfastly worship the imperishable, indefinable, all pervading, inconceivable, unchangeable, immovable and eternal.

Having restrained all the senses, keeping a balanced intellect everywhere, revelling in the welfare of all beings, they attain me alone.

Explanation:

In response to Arjuna’s question, Shri Krishna earlier described the seeker who worshipped Ishvara as “saguna”, an entity with form. In this and the next shloka, he described the seeker who worships the “nirguna”, the formless Ishvara. Shri Krishna wants to clearly differentiate the formless from the formful, so he provides a list of adjectives to describe the formless Ishvara, to the extent that it is possible to do so.

In verse 4.11, Shree Krishna had stated: “In whatever way people surrender unto Me, I reciprocate accordingly. Everyone follows My path, knowingly or unknowingly, O son of Pritha.”  Here, Shree Krishna confirms that the worshippers of the formless also reach Him.  Since their choice is to unite with the attribute less manifestation of the Supreme Absolute Truth, God meets them as the unmanifest, all- pervading Brahman.

Therefore, in these three verses, Krishna is introducing jñāna yōga sādanā which is the practice of Nirguṇa īśvara dhyānam. Nirguṇa īśvara dhyānam is an integral part of jñāna yōga sādanā. In technical language, this nirguṇa Īśvara dhyānam is called nidhidhyāsanam. So thus, there are some people who practice nidhidhyāsanam which is meditating upon my highest nature. It is part of chapter six which we read earlier as dhyaan yog.

“Aksharam” refers to that which does not decay, that which is imperishable. The seeker negates everything that he encounters as perishable, so only the subject remains. “Anirdeshyam” is that which cannot be described or defined by the speech and mind. “Avyaktam” refers to anything that is not accessible to our senses, something that is invisible. “Sarvatragam” is that which is not limited by space, that which pervades everywhere and everything. “Achintyam” is that which cannot be conceived as a thought by the mind.

Anything that is filled with fault is called “koota”. So that by which the defect- ridden maaya and its activities look real is called “kootastha”, the foundation or base on which maaya appears. “Kootastha” also means anvil which denotes changelessness in time. “Achalam” refers to fixity, changelessness in space. “Dhruvam” is that which is eternal and deathless. In this manner, a seeker worships the formless Ishvara.

Let us also understand what is meant by “upasana” or meditative worship, since that is the theme of this chapter. Shankaracharya gives a long definition in his commentary. Upasana literally means to sit nearby. Here it refers to the seeker taking on the quality of the object of worship by moving his mind as near to that object as he can. The object of worship should be selected with the advice of the guru and scriptures. It should not be arbitrary. Then the seeker should continuously think about the object, just like an unbroken stream of oil poured from a height.

Shri Krishna continues the description of nirguna upasakas, seekers of the formless Ishvara, in the next shloka.

Imagine that our parents have asked us to come to their house. They are hosting an event and need our help. What will our attitude towards our assignment be? We will not hesitate to play the role of a cook, a waiter, a driver, a handyman, a dishwasher and so on. We will do whatever it takes to make that event a success. The well- being of all the guests will become our primary goal. We will set aside any personal differences with any guests because we are representing our parents at that event. We do all of this because we have a sense of oneness with our parents.

The devotee who worships the imperishable and unmanifest Ishvara has the same attitude. Just like we do not consider our parents as somebody distinct from us, the devotee does not consider Ishvara as separate from him. When there is no separation, there is no expectation of asking for anything or receiving anything. You only ask and receive when you consider someone different from you. We would never think of asking permission for every little thing from parents at that event, because it would be silly to do so.

Furthermore, such a devotee loses all sense of selfishness. He revels in the welfare of everyone in this world, “sarva bhoota hite rataahaa”. Nothing ever destabilizes his mind or his intellect, because he sees himself as one with everything. His senses have stopped harbouring likes and dislikes, because they no longer cut up the world into “good” or “bad”. He has very naturally “merged” into Ishvara, which is the final goal of devotion or bhakti. Shri Krishna echoes this point by saying “te praapnuvanti maam eva”, they attain me alone.

।। हिंदी समीक्षा ।।

श्लोक 4.11 में श्रीकृष्ण ने कहा था कि जिसप्रकार से लोग मेरे प्रति समर्पित होते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार प्रतिफल प्रदान करता हूँ। हे पृथा पुत्र! सभी लोग किसी न किसी प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण पुष्टि करते हैं कि उनके निराकार रूप की उपासना करने वाले उपासक भी उन्हें पाते हैं क्योंकि उनकी इच्छा परम सत्य भगवान की निर्गुण और निर्विशेष अभिव्यक्ति के साथ एकीकृत होने की होती है। इसलिए भगवान उन्हें अव्यक्त सर्वव्यापक ब्रह्म के रूप में मिलते हैं।

इसलिए इन तीन श्लोकों में कृष्ण ज्ञान योग साधना का परिचय दे रहे हैं जो निर्गुण ईश्वर ध्यान का अभ्यास है। निर्गुण ईश्वर ध्यान ज्ञान योग साधना का अभिन्न अंग है। तकनीकी भाषा में, इस निर्गुण ईश्वर ध्यान को निधिध्यासन कहा जाता है। इस प्रकार कुछ लोग निधिध्यासन का अभ्यास करते हैं जो मेरे सर्वोच्च स्वभाव पर ध्यान करना है। यह अध्याय छह का हिस्सा है जिसे हमने पहले ध्यान योग के रूप में पढ़ा था।

परमात्मा को तत्त्व से समझाने के लिये दो प्रकार के विशेषण दिये जाते हैं – निषेधात्मक और विध्यात्मक। परमात्मा के अक्षर, अनिर्देश्य, अव्यक्त, अचिन्त्य, अचल, अव्यय, असीम, अपार, अविनाशी आदि विशेषण  निषेधात्मक हैं और सर्वव्यापी, कूटस्थ, ध्रुव, सत्, चित्त, आनन्द आदि विशेषण – विध्यात्मक हैं।

परमात्मा के निषेधात्मक विशेषणों का तात्पर्य प्रकृति से परमात्मा की असङ्गता बताना है और विध्यात्मक विशेषणों का तात्पर्य परमात्मा की स्वतन्त्र सत्ता बताना है।

सबसे पहले हम अव्यक्त अव्यक्तम् का वर्णन करेंगे। निर्गुण ईश्वर, ईश्वर अपने सर्वोच्च रूप या सर्वोच्च प्रकृति में अव्यक्तः हैं। अव्यक्तः का अर्थ है सर्व इन्द्रिय अगोचरः; किसी भी इन्द्रिय द्वारा बोधगम्य नहीं। हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं और प्रत्येक इन्द्रिय एक गुण को समझने में सक्षम है; एक इन्द्रिय शब्द को समझती है, दूसरी स्पर्श को समझती है, तीसरी रूप को समझती है, रूप और रंग को; तीसरी रस को समझती है, स्वाद को और पाँचवीं गंध को समझती है। इस प्रकार हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं, पाँच गुणों को वस्तुगत करती हैं; शब्द स्पर्श रूप रस गंधः।  वस्तुतः सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भौतिक जगत शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध: का मिश्रण मात्र है।

ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जिन्हें इंद्रियों से नहीं देखा जा सकता लेकिन उन्हें मन के द्वारा समझा जा सकता है। जैसे बहुत सारी भावनाएँ हैं; प्रेम, क्रोध, खुशी आदि, वे बोधगम्य नहीं हैं। कई गणितीय वैज्ञानिक अवधारणाएँ और नियम, आप नहीं देखते; लेकिन वे सभी विचार हैं। विचारों को इंद्रियों से नहीं देखा जा सकता, लेकिन उन्हें मन के द्वारा समझा जा सकता है। इसीलिए उन्हें अवधारणाएँ कहा जाता है। अच्छा, क्या आप कह सकते हैं कि निर्गुण कृष्ण को मन के द्वारा समझा जा सकता है। मैं आपके मन के लिए भी अविषय हूँ; अचिन्थ्यम; अकल्पनीय। संस्कृत में, मनो अगोचरम्; पहला है क्या; इन्द्रिय अगोचरम्। अब; मनो अगोचरम्।

परमात्मतत्त्व सांसारिक प्रवृत्ति और निवृत्ति – दोनों से परे (सहज निवृत्त) और दोनों को समान रूप से प्रकाशित करने वाला है। ऐसे निरपेक्ष परमात्मतत्त्व का लक्ष्य कराने के लिये और बुद्धि को परमात्मा के नजदीक पहुँचाने के लिये ही भिन्न भिन्न विशेषणों से परमात्मा का वर्णन (लक्ष्य) किया जाता है।

पूर्व श्लोकों में सगुणोपासक भक्तों के लिए आवश्यक गुणों का वर्णन करने के पश्चात् अब भगवान् श्रीकृष्ण निर्गुण के उपासकों का वर्णन उपर्युक्त दो श्लोकों में करते हैं। अक्षर रूप और गुणों से युक्त सभी वस्तुएं द्रव्य हैं और सभी द्रव्य क्षर अर्थात् नाशवान होते हैं। इन्द्रियों के द्वारा केवल इन द्रव्यों का ही ज्ञान हो सकता है। अत अक्षर शब्द से यह सूचित किया गया है कि इन्द्रियों के द्वारा परमतत्त्व का ज्ञान कदापि संभव नहीं है।

सभी इन्द्रियों को सम्यक् प्रकार से एवं पूर्णतः वश में करे, जिस से वे किसी अन्य विषय में न जायँ। इन्द्रियाँ अच्छी प्रकार से पूर्णतः वश में न होने पर निर्गुणतत्त्व की उपासना में कठिनता होती है। सगुण उपासना में तो ध्यान का विषय सगुण भगवान् होने से इन्द्रियाँ भगवान् में लग सकती हैं क्योंकि भगवान् के सगुण स्वरूप में इन्द्रियों को अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं। अतः सगुण उपासना में इन्द्रिय संयम की आवश्यकता होते हुए भी इस की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी निर्गुण उपासना में है। निर्गुण उपासना में चिन्तन का कोई आधार न रहने से इन्द्रियों का सम्यक् संयम हुए बिना (आसक्ति रहने पर) विषयों में मन जा सकता है और विषयों का चिन्तन होने से पतन होने की अधिक सम्भावना रहती है।

अनिर्देश्य जो परिभाषित नहीं किया जा सकता है उसे अनिर्देश्य कहते हैं। सभी परिभाषाएं दृश्य वस्तु के सन्दर्भ में ही दी जा सकती हैं। अत जो इन्द्रियों का दृश्य नहीं होता, उस की न परिभाषा दी जा सकती है और न ही उसे अन्य वस्तुओं से भिन्न कर के जाना जा सकता है। सर्वत्रगम् जो अनन्त तत्त्व गुण रहित होने से व्यक्त नहीं हैं और इसी कारण अनिर्देश्य है।

उस को सर्वव्यापी होना आवश्यक है। यदि परमात्मा से कोई स्थान रिक्त हो, तो परमात्मा को आकार विशेष प्राप्त हो जायेगा और साकार वस्तु विनाशी भी होगी।

अचिन्त्यम् मन के द्वारा जिस वस्तु का चिन्तन किया जा सकता है, वह दृश्य पदार्थ होने के कारण नाशवान् होगी।

इसलिए अविनाशी तत्त्व निश्चित ही अकल्पनीय, अग्राह्य और अचिन्त्य होगा। कूटस्थम् (अविकारी) यद्यपि चैतन्यस्वरूप आत्मा वह अधिष्ठान है, जिस के ऊपर सब विकार और परिवर्तन होते रहते हैं, परन्तु वह स्वयं अपरिवर्तनशील और अविकारी ही रहता है। कूट शब्द का अर्थ है निहाई। एक लुहार की दुकान में निहाई पर अन्य लौह खण्डों को रखकर उन पर आघात करके उन्हें विभिन्न आकार दिये जाते हैं, परन्तु निहाई स्वयं अपरिवर्तित ही रहती है। उसी प्रकार चैतन्य के सम्बन्ध से उपाधियों तथा व्यक्तित्व में विकार होता है, किन्तु चैतन्य तत्त्व कूट के समान अविकारी रहता है।

अचलम् चलन का अर्थ है वस्तु का देश और काल की मर्यादा में परिवर्तन होना। कोई वस्तु अपने में ही चल नहीं सकती उस का चलन वही पर संभव है, जहाँ पर वह पहले से विद्यमान नहीं है। यहाँ, इस क्षण मैं कुर्सी पर बैठा हूँ। मैं दूसरे क्षण दूसरा स्थान ग्रहण करने जा सकता हूँ। परन्तु, यहीं और इसी क्षण अपनी कुर्सी पर बैठा मैं अपने में ही चल फिर नहीं सकता क्योंकि मैं स्वयं को पूर्णत व्याप्त किये हुए हूँ। परमात्मा सर्वव्यापी है और इसलिए, देश या काल में ऐसा कोई स्थान या क्षण नहीं है, जहाँ वह विद्यमान न हो, अत वह अचल कहलाता है। वह यत्र, तत्र, सर्वत्र है उसमें ही भूत, वर्तमान और भविष्य का अस्तित्व है।

ध्रुवम् (शाश्वत् सनातन) विकारी वस्तु देश और काल से अवच्छिन्न होती है। परन्तु जो देश और काल का भी अधिष्ठान है, वह परमात्मा इन दोनों से परिच्छिन्न नहीं हो सकता है। अनन्त स्वरूप चैतन्य आत्मा सर्वत्र, सब काल में एक ही है। शैशव, यौवन और वृद्धावस्था में, सर्वत्र, सब काल और सुख दुख, लाभहानि की समस्त परिस्थितियों में आत्मा एक समान ही रहता है।

जब हम अपने शरीर, मन और बुद्धि के स्तर पर आते हैं, केवल तभी हम आइन्स्टीन के द्वारा वर्णित देश और काल की सापेक्षता के जगत् में प्रवेश करते हैं। परमात्मा काल विच्छिन्न नहीं है वह काल का भी शासक है। वह ध्रुव है।यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन दो श्लोकों में प्रयुक्त शब्द उपनिषदों से लिये गये हैं। इन शब्दों के द्वारा उस परमात्मा का निर्देश किया जाता है, जो इस नित्य परिवर्तनशील नाम और रूपों, कर्म और घटनाओं, विषय ग्रहण और भावनाओं, विचारों तथा अनुभवों के जगत् का एकमेव सनातन अधिष्ठान है।

इस निर्गुण ईश्वर ध्यान के लिए प्रारंभिक योग्यताएँ उपनिषदों में बहुत स्पष्ट रूप से प्रस्तुत की गई हैं और सामान्यतः उन्हें चार गुना योग्यताओं के रूप में गिनाया गया है। ये हैं विवेक, वैराग्य; अनुशासन और इच्छा। ठीक है, जो लोग तत्व बोध या वेदान्त के परिचय से नहीं गुजरे हैं, उन्हें आवश्यक रूप से उन्हें और केवल उन चार गुना योग्यताओं से गुजरना चाहिए।

सभी उपासकों में निम्नलिखित तीन गुणों का भी होना आवश्यक है।

इन्द्रियसंयम इन्द्रियों के द्वारा अपनी शक्तियों का अपव्यय करना अविचारी एवं निम्न स्तर की रुचि वाले मनुष्यों का कार्य़ होता है। पूर्णत्व के शिखर पर पहुँचकर परमानन्द का अनुभव करने की जिस साधक की महत्त्वाकांक्षा है, उसको चाहिए कि वह इस अपव्यय में कटौती करे और इस प्रकार उपार्जित शक्तियों का सदुपयोग ध्यान में आत्मानुभव को प्राप्त करने के लिए करे।

पांच ज्ञानेन्द्रियां ही वे द्वार हैं, जिनके माध्यम से मन को विचलित करने वाले बाह्य जगत् के विषय चोरी छिपे मन में प्रवेश करके हमारी आन्तरिक शान्ति को नष्ट कर देते हैं और फिर हमारा मन कर्मेन्द्रियों के द्वारा बाह्य जगत् में अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने को दौड़ पड़ता है। इस प्रकार, विषयग्रहण और प्रतिक्रिया रूप यह व्यवहार मन के सामंजस्य और सन्तुलन को तोड़ देता है। इसलिए, यहाँ श्रीकृष्ण का इन्द्रियसंयम पर बल देना उचित ही है, क्योंकि ध्यानमार्ग की सफलता इसी पर निर्भर करती है। सर्वत्र समबुद्धि सफलता के लिए आवश्यक यह दूसरा गुण है।

समस्त प्रकार की परिस्थितियों और अनुभवों में बुद्धि की समता होनी चाहिए। बाह्य विक्षेपरहित दशा की आशा और प्रतीक्षा करना मूर्खता का लक्षण ही है। ऐसी आदर्श परिस्थिति का होना असम्भव है। जगत् की वस्तुएं अपने में ही तथा विशिष्ट संरचनाओं के रूप में भी निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं। इसलिए ऐसे नित्य परिवर्तनशील रचना वाले जगत् में किसी ऐसी इष्ट स्थिति की अपेक्षा रखना जो साधक के ध्यानाभ्यास के लाभ के लिए निरन्तर एक समान बनी रहे, वास्तव में अविवेकपूर्ण ही कहा जा सकता है। यह सर्वथा असंभव है। इसलिए, ऐसे परिवर्तनशील जगत् में साधक को ही चाहिए कि वह अपने बौद्धिक मूल्यांकनों, मन की आसक्तियों तथा बाह्य जगत् के साथ होने वाले सम्पर्कों को विवेकपूर्ण संयमित करके बुद्धि की समता और मन का सन्तुलन बनाये रखे। दृष्टि के समक्ष मन में विकार या विक्षेप उत्पन्न करने वाले विषयों या परिस्थितियों के होने पर भी जो पुरुष अपना सन्तुलन नहीं खोता है, वही समबुद्धि कहलाता है। जिस पुरुष ने अपनी विवेकशक्ति का विकास किया है। वह बड़ी सरलता से सौन्दर्य के उस स्वर्णिम तार को देख और पहचान सकता है। जो इस जगत् की उन समस्त वस्तुओं को धारण किये हुए है। जो सुन्दर और आकर्षक तथा कुरूप और प्रतिकर्षक है। इस क्षमता से सम्पन्न साधक को ही यहाँ समबुद्धि कहा गया है।किसी व्यक्ति का शिशु पुत्र किसी समय मैला है तो दुसरे समय अत्यन्त चंचल प्रात रुदन कर रहा होता है, तो दोपहर में हंसता है संध्याकाल में तंग करता है और रात में उन्मत्त और फिर भी, उस की इन सब दशाओं में उस का पिता एक पुत्र को ही देखता है और इसलिए उसके भिन्नभिन्न रूपों में भी उसे समान रूप से ही प्रेम करता है। यह उस प्रेमपूर्ण पिता की समबुद्धि है। इसी प्रकार एक सच्चा साधक अपने जीवन के भयानक दुखान्तों और आनन्ददायक सुखान्तों में तथा अभूतपूर्व सफलताओं और निराशाजनक विफलताओं में भी अपने हृदय के इष्ट देव को पहचानना सीखता है। इसलिए, वह बौद्धिक समता को प्राप्त हो जाता है। भूतमात्र के हित में रत होते हैं ।

सफलता के लिए आवश्यक तीसरे गुण को बताते हुए भगवान् कहते हैं कि साधक को अर्पण की भावना से सदैव यथाशक्ति भूतमात्र की सेवा में रत रहना चाहिए। जब तक मनुष्य इस शरीर को धारण किये जीवित रहता है। तब तक उसके लिये यह सर्वथा असंभव है कि नित्य निरन्तर प्रत्येक समय अपने मन और बुद्धि को आत्मचिन्तन में ही स्थिर कर सके। जगत् के साथ उसे सामान्य व्यवहार करना ही होगा। इस प्रकार के व्यवहारों में उसे निरन्तर अथक प्रय़त्न करके प्राणीमात्र की सेवा करनी चाहिए। यह तो इस ज्ञान का स्वरूप ही है। भूतमात्र को प्रेम करना तो उसका धर्म ही है। इस प्रकार उक्त तीन गुणों से सम्पन्न होकर जो साधकगण अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं, वे भी मुझे ही प्राप्त होते हैं यह भगवान् श्रीकृष्ण की घोषणा है। अर्जुन द्वारा पूछा गया प्रश्न वास्तव में विवादास्पद है, जबकि भगवान् द्वारा दिया गया उसका उत्तर एक अविवादास्पद सत्य की घोषणा है। यहाँ महान् दार्शनिक भगवान् श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि किस प्रकार दोनों ही उपासक एक ही लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। दोनों में ही सफलता के लिए कौन से समान गुणों का होना आवश्यक है। यहाँ वर्णित साधना पद्धतियों का निष्ठापूर्वक और पूर्णतया पालन करने पर सगुणसाकार अथवा निर्गुणनिराकार की उपासना के द्वारा एक ही परमात्मा की प्राप्ति होगी।

जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया।।

हम ने पहले भी पढ़ा है कि परमब्रह्म से ब्रह्म और ब्रह्म से परमात्मा की उत्पत्ति हुई। पूर्ण मोक्ष की अवस्था परमब्रह्म को पाना है, क्योंकि सृष्टि ब्रह्म के संकल्प का विकल्प है। इसलिए भक्ति सगुण शुरू हो कर सगुण – निगुण हो कर निगुण हो ही जाती। निगुण भक्ति में ही जीव परमात्मा और फिर ब्रह्म और उस के बाद महंत तो त्याग कर परब्रह्म हो जाता है। जिसे हम आगे पढ़ेंगे।

सगुणउपासकों और  निर्गुणउपासकों, इन दोनों प्रकार की उपासनाओं के अवान्तर भेद तथा कठिनाई एवं सुगमता का वर्णन हम आगे पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। 12.3-4।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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