।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.B II Preamble II
।। अध्याय 11.B II प्रस्तावना II
।। Preamble ।। Geeta – Chapter 11 ।।
To nurture and intensify Arjun’s devotion, Shree Krishna had described His divine vibhūtis (opulence) in the previous chapter. Towards the end, He had mentioned that all the beauty, glory, and power is just a spark of His immeasurable splendour. Hearing this, Arjun became curious.
In this chapter, he requests the Lord to show him His viśhwarūp, or the infinite cosmic form. Shree Krishna grants Arjun divine vision to see His infinite-form that comprises all the universes. Arjun sees the entire creation in the body of the God of gods with unlimited arms, faces, and stomachs. It has no beginning or end and extends immeasurably in all directions. His radiance is similar to a thousand suns blazing together in the sky. The sight dazzles Arjun, and his hair stands on end. He witnesses the three worlds trembling with fear of God’s laws and the celestial gods taking His shelter. He can see several sages offering prayers and singing hymns exalting God. Then Arjun sees the Kauravas, along with their allies, rushing into the mouth of this formidable form, who look like moths rushing with great speed toward the fire to perish.
Beholding this universal form, Arjun confesses that his heart and mind are unstable with fear. Although petrified by the appearance, Arjun wants to know the identity of this breath-taking form of God, who has no resemblance to his teacher and friend Shree Krishna. The Lord declares that in the form of Time, He is the destroyer of the three worlds. He has already destroyed the Kaurava warriors, and the Pandavas’ victory is certain. Therefore, Arjun should not be fearful anymore. He should just get up and fight.
Overwhelmed, Arjun starts praising the Lord who, in His infinite forms, pervades the entire universe and offers several salutations to His majestic form. He also begs for forgiveness to Shree Krishna for any offenses or acts of disrespect he may have committed in ignorance, considering Him to be a mere human. Arjun then pleads the Lord for His grace and requests Him to take a pleasing form.
Shree Krishna then manifests into His four-armed form, carrying a mace, disc, conch shell, and lotus flower in each arm. Soon after, He resumes His gentle and loving two-armed form of the charming Shree Krishna. He then tells Arjun that before Him, no one has ever seen God in this primeval cosmic form. Even those who study the Vedas, do severe penance, charity or fire sacrifices, etc., do not get this opportunity. Only with unalloyed devotion similar to Arjun can one see God, get to know Him, and attain Yog or union with Him.
Courtesy – The song of GOD (Swami Mukandanand ji)
।। प्रस्तावना ।। गीता- अध्याय 11।।
एकादशोSध्यायः अर्जुन के प्रार्थना पर भगवान ने उन को अपने विश्वरूप का दर्शन करवाया। इसलिये इस अध्याय का नाम विश्वरूप दर्शन योग रखा गया है। भगवान द्वारा अपने स्वरूप का वर्णन इतना सरस एवम गहन है कि गीता के उत्तम भागो में इस अध्याय की गणना होती है। परमात्मा निर्गुणाकार है अतः स्वरूप दर्शन के माया का सहारा ले कर अर्जुन को दर्शन देते है और अभी तक जो हम ने पढ़ा है उस स्वरूप के दर्शन को हम लोग करेंगे।
अध्याय सातवे में ज्ञान-विज्ञान योग हम ने परमात्मा की अष्टधा प्रकृति, योग माया को जाना, जिस में परमात्मा को समझने के श्रद्धा, विश्वास की बात कही गई थी। अध्याय आठ में ब्रह्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ और अधिदेह के द्वारा मृत्यु और मृत्यु के उपरांत आदि को पढ़ा। इसे हम अध्यात्म का ज्ञान भी कह सकते है। अध्याय नवम में ज्ञान विज्ञान युक्त भक्ति मार्ग पढ़ा, जिस में परमात्मा ने सब के लिये समान है, जो उस की शरण मे जाता है, उसे योगक्षेम वही प्रदान करता है। इसी के कारण अर्जुन को परमात्मा के स्वरूप को जानने की इच्छा हुई, और दशम अध्याय में उस ने परमात्मा से उन की विभूतियों को विस्तार से बताने की प्रार्थना की। विभूतियों को सुनने के बाद, तृप्ति कानो सुनी बातों से अधिक आंखों से देखी वस्तु से होती है। अक्सर हम जब किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान के विषय किसी से अधिक बड़ाई सुन लेते है, तो उस को आंखों से देख कर ही मन एवम आत्मा की तृप्ति होती है। अतः नवम एवम दशम भक्तियोग में परमात्मा के विश्वरूप का दर्शन अर्जुन के आग्रह पर परमात्मा कराते है, जिन्हें हम आगे पढ़ेंगे।
अर्जुन को अपने विराट विश्वरूप दर्शन कराने से पूर्व अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान की गई थी, यही दिव्य दृष्टि संजय को महृषि व्यास से प्राप्त थी। इसलिये दिव्य स्वरूप का दर्शन दो लोग कर पाए और इस के अतिरिक्त बर्बरीक जो महाभारत का युद्ध देख रहे थे, उन्होंने दर्शन किये। हमारी सांसारिक इन्द्रियों से मन जुड़ी होने से संवेदनाओ, कामनाओ और आकांक्षाओं से घिरी रहती है। इन्द्रिय-मन-बुद्धि के संयम के अभाव में हम जो कुछ भी देखते या सुनते है, उस का तुरन्त रिएक्शन हमारे मन मे अहम और कामना के अनुसार होता है। दिव्य दर्शन में अहम या कामना नही है, वह परमात्मा प्रत्यक्ष देखना तभी संभव है, जब उस मे हमारे विचार और अहम का अभाव हो। अक्सर लोग सुनने से पहले जवाब देने को तैयार रहते है। यह व्हाट्सएप्प ग्रुप में अक्सर देखा जाता है कि हमारी रुचि संदेश पढ़ने और समझने की अपेक्षा भेजने में ज्यादा रहती है। इसलिये जो हमारे सामने प्रत्यक्ष है, उस की अपेक्षा हम उस को अधिक महत्व देते है, जो सामने नही है।
विश्वरूप दर्शन में प्रकृति और चेतन के प्रत्येक कण में परमात्मा होने के बाद भी हम उसे महसूस या देख नही पाते। हमे हमारे परमात्मा का वही स्वरूप चाहिए, जिस की छवि या स्वरूप बचपन से हमारे भीतर बन गयी है। जब तक समभाव नही होते, उस के स्वरूप के दर्शन भी हमे एक छवि की भांति लगेंगे। दिव्य दृष्टि का अर्थ ही यही है कि अपने अंदर के विचारों, कामनाओ, अहम का त्याग कर है, प्रकृति के नेत्रों की बजाए अपने ह्रदय में बसे परमात्मा के नेत्रों से उस परमब्रह्म के विराट स्वरुप के अवलोकन करें। उसे अपने मै, अपने चारों ओर महसूस करे। उस के पूर्ण स्वरूप के सम्पूर्ण ब्रह्मांड की क्रियाओं को काल के साथ अनुभव करें। इसलिये अपने अंतर्मन को पूर्णतयः शांत और एकाग्र करते हम विश्वरूप दर्शन के इस अध्याय में हम यह कोशिश करते है।
परमात्मा के सगुण विराट स्वरूप का दर्शन अदृश्य, अधरेय, अस्पृश्य, निर्गुण, निष्फल, अज, नित्य, शाश्वत और निष्क्रिय बताया गया है। यह परस्पर विरोधी कथन है। परमात्मा को दूर भी, पास भी, सत भी और असत भी कहा गया है। इसी प्रकार उसे सगुण भी और निर्गुण भी माना गया है। इस लिये परमात्मा के स्वरूप का वर्णन नेति नेति कह कर सम्पूर्ण स्वरूप की इतिश्री करदी गई है। परमात्मा का सच्चा स्वरूप अव्यक्त ही है, इसलिये परमात्मा के स्वरूप जो अर्जुन को प्रकट किया गया है, वह भी उन का मायिक स्वरूप ही है, जिस का अद्भुत विवरण व्यास जी द्वारा निरूपण किया गया है। इस आगे 55 श्लोक में हम श्रद्धा, प्रेम, विश्वास के साथ स्मरण और समर्पित भाव से आनंद के साथ पढ़ते है और मन की आंखों से उन का दर्शन करते है।
ध्यान दीजिए, इस में अर्जुन ने भगवान का विराट विश्वरूप देखा। विराट रूप का अर्थ है मानवीय धरातल और परिधि के ऊपर जो अनंत विश्व का प्राणवंत रचना विधान है, उसका साक्षात दर्शन। विष्णु का जो चतुर्भुज रूप है, वह मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है। विश्व रूप दर्शन के लिये इन्द्रिय, मन और बुद्धि का संयम नही है तो स्वीकृति भी नही होगी। क्या आप के सामने कोई भिक्षुक खड़ा हो कर कहे कि मैं ब्रह्म स्वरूप हूँ, हम स्वीकार कर सकते है?, जब तक श्रद्धा, विश्वास, प्रेम न हो, कोई किसी साधु-संत या किसी भी देवता या अपने निजी धर्म को छोड़ कर अन्य देवता को स्वीकार नही करता। फिर विश्वरूप के दर्शन को पुस्तक की भांति, पढ़ना तो सम्भव है किंतु विश्वरूप में उस को दर्शन करना, तभी संभव है जब उस वर्णन की मन और ह्रदय से स्वीकृति हो। इसी के लिये सरल और सयंम की आवश्यकता है।
हम लोग गीता अध्ययन के दशम अध्याय समाप्त कर चुके है। प्रथम छह अध्याय “तत” अर्थात जीव के विषय मे जीव को किस प्रकार योग साधना द्वारा अपने को जानना चाहिये कि वह वास्तव में क्या है। इसके लिये कर्मयोग, ध्यानयोग, ज्ञानयोग के द्वारा सांख्य एवम कर्मयोग के विषय मे बताया गया। अध्याय 7 से 12 तक हम ‘त्वम’ अर्थात परमात्मा के विषय मे पढ़ रहे है, परमात्मा को जानना अर्थात शरणागत होना है, इसलिये भक्तियोग के मार्ग में श्रद्धा, प्रेम, विश्वास, स्मरण और समर्पण से आगे बढ़ रहे है। अध्याय 13 से 18 में ‘असि’ अर्थात जीव और परमात्मा के आपसी संबंध आदि को और जीव को किस प्रकार व्यवहार और आचरण करना चाहिये, जिस से वह मोक्ष को कर्तव्य धर्म के पालन के साथ प्राप्त कर सके। गीता व्यवहारिक जीवन को समझ कर जीने की पुस्तक है, इसलिये जब तक हम इस का अध्ययन सूक्ष्म और गहन तरीके से नही करते, यह भिखारी के हाथ मे हीरे के समान है। हीरे का मूल्य जौहरी ही जानता है। किसी श्लोक या अध्याय का लाखो बार पाठ करने से कुछ नही होगा, जब तक हम उस मे निहित ज्ञान के पढ़ के, समझ कर, मनन कर के अपने जीवन मे अंगीकृत न कर ले। अध्याय 11, परमात्मा के सम्पूर्ण सृष्टि का अद्भुत एवम विलक्षण वर्णन है, इस को देखने के लिये अर्जुन को दिव्य दृष्टि थी, तो उस को समझने के हमे भी गहन चिंतन और मनन की आवश्यकता होगी।
जब अर्जुन ने भगवान का विराट रूप देखा तो उसके मस्तक का विस्फोटन होने लगा। ‘दिशो न जाने न लभे च शर्म’ ये ही घबराहट के वाक्य उनके मुख से निकले और उसने प्रार्थना की कि मानव के लिए जो स्वाभाविक स्थिति ईश्वर ने रखी है, वही पर्याप्त है। सत्य के प्रकाश को देख पाना और समझ पाना सभी के लिये कठिन है। हम सरलता चाहते है, जिस से मानसिक कष्ट न हो, बिना कष्ट उठाये ज्ञान और भगवद कृपा चाहते है, क्योंकि पढ़ने और समझने की अपेक्षा दैनिक दिनचर्या और व्यापार ज्यादा आवश्यक है। गम्भीर विषय भी पानी मे घोल कर पीने की दवा समान चाहिये। किन्तु जब बार बार प्रयास करते है, तो ही ज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है।
आइए! अर्जुन के मोह भंग होने के साथ उस की परमात्मा के विश्वरूप दर्शन की इच्छा को प्रकट करने आग्रह का लाभ हम लोग भी लेते है।
।। हरि ॐ तत सत।। प्रस्तावना – अध्याय 11 ।।
विशिष्ट प्रार्थना
अध्याय 10 में परमात्मा ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया जो हमे यह बतलाता है कि परमात्मा हमारे चहुँ ओर है। अर्जुन उन के दर्शन का अभिलाषी हो गया, वो भी यह जान कर भी उस के समुख सारथी बन कर जो खड़ा उसे ज्ञान दे रहा है, वह भी तो ईश्वर है। अर्थात परमात्मा को हम अपने उस मानसिक स्वरूप में ही देख कर स्वीकार कर सकते है, जो हम ने बचपन से आज तक पढ़ा है। इसलिए अर्जुन ने जब उन के वास्तविक स्वरूप के दर्शन करने चाहे तो भगवान ने उसे दिव्य दृष्टि दी। संजय को दिव्य दृष्टि वेद व्यास जी ने दी और वेद व्यास जी ने वही दिव्य दृष्टि महाभारत की रचना करते हुए, सभी पाठकों को दी। किंतु उस दिव्य दृष्टि को धारण वही कर सकता है, जो मन, बुद्धि और हृदय से परमात्मा के प्रति प्रेम, श्रद्धा, विश्वास के साथ स्मरण करता हुआ समर्पित हो। प्रस्तुत अध्याय 11, पढ़ते वक्त यदि जो व्यक्ति इन गुणों से ओत प्रोत हो कर शंका रहित समर्पित भाव रखता है, तो व्यास जी की लेखनी के सशक्त माध्यम से परमात्मा के दिव्य स्वरूप के दर्शन उस को निश्चित होते ही है। अतः मैं प्रार्थना ही कर सकता हूं कि ईश्वर के विराट स्वरूप को हम सब भी अध्ययन की दिव्य दृष्टि से दर्शन करे। किसी भी जाति, धर्म और संप्रदाय में परमात्मा के मोहक स्वरूप के अतिरिक्त महाकाल का विलक्षण स्वरूप में प्रस्तुत कर सकने का साहस नहीं है, परंतु सनातन धर्म नहीं संस्कृति और सत्य है, इसलिए ही हम विराट दिव्य स्वरूप परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को दर्शन भी करते है और समझते है।
तुलसी और कबीर की वाणी को समझे और पठन के साथ दर्शन भी करे।
“बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥ जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता”
अर्थ है: श्री रामचंद्रजी की भोली और सुंदर बाल लीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों ने गान किया है. जिनका मन इन लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआ, विधाता ने उन मनुष्यों को वंचित कर दिया यानी नितांत भाग्यहीन बनाया॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं । सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ।।
“जब तक मेरा ‘मैं‘ अर्थात अहंकार था तब हरि (ब्रह्म) का साक्षात्कार नहीं हुआ, लेकिन हरि के साक्षात्कार से साथ मेरा अहंकार अथवा निजपन खत्म हो गया। जब दीपक रूपी ज्ञान मिला तो मोह अथवा अहंकार रूपी अँधियारा खत्म हो गया।”
किंतु गीता हो या कोई भी धार्मिक ग्रंथ, तुलसीदास जी ने सही लिख दिया “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी”।
प्रणाम
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)