।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.55 II
।। अध्याय 11.55 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.55॥
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥
mat-karma-kṛn mat-paramo
mad-bhaktaḥ sańga-varjitaḥ
nirvairaḥ sarva-bhūteṣu
yaḥ sa mām eti pāṇḍava
भावार्थ:
हे पाण्डुपुत्र! जो मनुष्य केवल मेरी शरण होकर मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करता है, मेरी भक्ति में स्थित रहता है, सभी कामनाओं से मुक्त रहता है और समस्त प्राणियों से मैत्रीभाव रखता है, वह मनुष्य निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करता है। (५५)
Meaning:
One who performs actions for me, considers me as supreme, is devoted to me, is free from attachment and without enmity towards all beings, that person attains me, O Paandava.
Explanation:
What do we get as a reward for studying one of the longest chapters of the Gita? It is this concluding shloka of the eleventh chapter which Shankaraachaarya considers the essence of the entire Bhagavad Gita. Shri Krishna says that Isvara can be attained by following five guidelines: perform actions for the sake of Ishvara, fix Ishvara as the ultimate goal, observe single- pointed devotion to Ishvara, remain free from worldly attachments, do not harbour likes or dislikes.
Now, he concludes this chapter by highlighting five characteristics of those who are engaged in exclusive devotion:
1.They perform all their duties for my sake. Accomplished devotees do not divide their works into material and spiritual. They perform every work for the pleasure of God, thus consecrating every act of theirs to him. The Saint Kabir states:
“When I walk, I think I am circumambulating the Lord; when I work, I think I am serving the Lord; and when I sleep, I think I am offering him obeisance. In this manner, I perform no activity other than that which is offered to him.”
2.They depend upon me. Those who rely upon their spiritual practices to reach God are not exclusively dependent upon him.
3.They are devoted to me.
4.They are free of attachment. Devotion requires the engagement of the mind. This is only possible if the mind is detached from the world.
5.They are without malice toward all beings.
Furthermore, all five steps are interconnected and strengthen each other. The mind cannot fully detach itself from everything. Like a child that drops attachment to toys and is attached to higher ideals as an adult, Shri Krishna advises us to drop attachments to material things and develop attachment for Ishvara. When we begin to see everything as Ishvara, and see ourselves as part of Ishvara, we will not generate feelings of dislike towards anyone or anything, just like we do not have enmity towards any part of our own body. This is the theme of this chapter, where the individual essence sees itself as part of the universal eternal essence.
।। हिंदी समीक्षा ।।
जो जीव परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है उस के एकादश अध्याय यह अंतिम श्लोक एक मंत्र के समान है। इस भौतिक संसार मे जीव प्रकृति एवम अध्यात्म में सामंजस्य को इस श्लोक द्वारा समझा जा सकता है और मोक्ष किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है।
परमात्मा को प्राप्त करने एवम उस के विश्वरूप के दर्शन को प्राप्त करने के जहां वेद, शास्त्र, यज्ञ, पूजा, पाठ को असाध्य बता कर, अनन्य भक्ति का मार्ग बताया गया है। उसी अनन्य भक्ति का स्वरूप क्या हो, इस को स्पष्ट करते हुए, परमात्मा कहते है।
किसी जीव को ईश्वरत्व प्राप्त करने का श्रीकृष्ण द्वारा उपदिष्ट योजना के पांच अंग हैं। उन पांच अंगों या आवश्यक गुणों को इस श्लोक में बताया गया है। वे गुण हैं (1) जो ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करता है, (2) जिसका परम लक्ष्य ईश्वर ही है, (3) जो ईश्वर का भक्त है, (4) जो आसक्तियों से रहित है तथा (5) जो भूतमात्र के प्रति वैरभाव से रहित है। इन पांच आवश्यक गुणों में आत्मसंयम की सम्पूर्ण साधना का सारांश दिया गया है। ईश्वर के अखण्ड स्मरण से ही समस्त उपाधियों के कर्मों में अनासक्ति का भाव दृढ़ होता है।
जो मनुष्य स्वार्थ, ममता और आसक्ति को छोड़ कर, सब कुछ भगवान का समझ कर, अपने को केवल निमित्तमात्र मानता हुआ यज्ञ, दान, तप और खान – पान, व्यवहार आदि समस्त शास्त्र विहित कर्तव्यकर्मो को निष्काम भाव से भगवान की ही प्रसन्नता के लिये भगवान की आज्ञानुसार करता है- वह मत्कर्मकृत कहलाता है।
जो भगवान को ही परम आश्रय परमगति, एक मात्र शरण लेने योग्य, सर्वोत्तम, सर्वाधार, सर्वशक्तिमान, सब के सुहृद, परम् आत्मीय और अपने सर्वस्व समझता है तथा उन के किये हुए प्रत्येक विधान से सदा सुप्रसन्न रहता है – उसे मत्परमः अर्थात भगवान के परायण कहेंगे।
भगवान में अनन्य प्रेम हो जाने के कारण जो भगवान में ही तन्मय हो कर नित्य निरंतर भगवान के नाम, रूप, गुण, प्रभाव और लीला आदि का श्रवण, कीर्तन और मनन आदि करता रहता है: वह मद्भक्त है।
शरीर, स्त्री, पुत्र, घर,धन कुटुंब तथा मान बड़ाई जितने भी लोक परलोक के भोग्य पदार्थ है, उस मे किसी प्रकार की आसक्ति नही रखना ही सर्ववर्जित है।
प्रेम जाग्रत् होने पर राग का अत्यन्त अभाव हो जाता है। राग का अत्यन्त अभाव होने से और सर्वत्र भगवद्भाव होने से उस के शरीर के साथ कोई कितना ही दुर्व्यवहार करे, उस को मारेपीटे, उस का अनिष्ट करे, तो भी उस के हृदय में अनिष्ट करने वाले के प्रति किञ्चिन्मात्र भी वैर भाव उत्पन्न नहीं होता। वह उस में भगवान् की ही मरजी, कृपा मानता है। ऐसे भक्त को भगवान् ने निर्वैरहः सर्वभूतेषु कहा है।
गीता में कर्मयोग, ध्यान योग, बुद्धि अर्थात ज्ञान योग के पश्चात भक्ति योग का विचार है। क्योंकि ईश्वर के शरणागत होने यह तीन मार्ग है। किसी भी प्रकार का कर्म फल के बिना नहीं होगा। अतः कार्य – कारण से सिद्धांत से यदि कर्ता भाव में कर्म के फल मिलते रहे तो मोक्ष नहीं मिल सकता। इसलिए जीव के कर्म, ज्ञान और उपासना का लक्ष्य मुक्ति का तभी होगा, जब यह परमात्मा को समर्पित भाव से होगा। इसलिए भक्ति के पांच गुणों में कर्ता भाव जब अहम को त्याग कर परमात्मा के प्रति समर्पित भाव में परिवर्तित होगा तो जो भी आप करेंगे, वह परमात्मा की भक्ति ही होगी। इसी समर्पित भाव की भक्ति को हम आगे के अध्याय में पढ़ेंगे।
यहाँ मन से यह बात निकाल देनी चाहिये कि भक्त होने का अर्थ कर्म विहीन होना है। कर्म प्रकृति का विधान है, जीव निमित्त है, यदि कर्म को ले कर उस के हाथ मे कुछ है तो सिर्फ कामना, मोह, लालसा एवम अहम। यदि नहीं हो जो भी कर्म है, वो प्रकृति के त्रियामी गुणों के अंतर्गत निमित्त हो सृष्टि के संचालन के लिए है। जीव कर्म से बंधे या परमात्मा से, यह जीव ही निश्चित करता है। यदि परम् गति प्राप्त करनी है तो यह पांच गुण होना आवश्यक है।
हनुमान जी, प्रह्लाद, जनक, कर्ण, भीष्म, राजा बलि आदि अनेक उदाहरण है जिन में इन पांच गुणों में अधिक से अधिक गुण मिलेंगे। कहते है सुदामा में यह पांचों ही गुण थे। सन्त कबीर की इस दोहे में भक्ति का सार है।
जहाँ जहाँ चलु करू परिक्रमा, जो जो करू सो सेवा । जब सौंवु करू दण्डवत, जानु देव न दूजा ।।
।। हरि ॐ तत सत।।11.55।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)