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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.53 II

।। अध्याय      11.53 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.53

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।

शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा॥

“nāhaḿ vedair na tapasā,

na dānena na cejyayā..।

śakya evaḿ-vidho draṣṭuḿ,

dṛṣṭavān asi māḿ yathā”..।।

भावार्थ: 

मेरे इस चतुर्भुज रूप को जिसको तेरे द्वारा देखा गया है इस रूप को न वेदों के अध्यन से, न तपस्या से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जाना संभव है। (५३)

Meaning:

Not through the Vedas, penance, charity, nor through worship can I be seen, in the manner in which you have seen me.

Explanation:

In this shloka, Shri Krishna lists tools that help us lead a fruitful life. First, he lists the Vedas, which refer to material and spiritual teachings, give us knowledge to lead a purposeful and ethical life. By encouraging action in life’s early stages, then emphasizing renunciation in the later stages, they get us from harbouring selfish desires to desirelessness. Austerity and charity further reduce our ego, and penance strengthens us internally and externally. Worship invokes Ishvara’s grace and blessings.

However, Shri Krishna reminds us that none of these methods will give us attainment of Ishvara as their result. This point is of such importance that he brings it up for the second time in the same chapter.This is not possible by any amount of Vedic studies, austerities, or fire sacrifices. The basic spiritual principle is that God cannot be known by the strength of one’s efforts. However, those who engage in devotion to him become recipients of his grace. Then, by virtue of his grace, they are easily able to know him. The Muṇḍakopanihad states:

nāyamātmā pravachanena labhyo na medhayā na bahunā śhrutena (3.2.3)[v26]

“God cannot be known either by spiritual discourses or through the intellect; nor can he be known by hearing various kinds of teachings.” If none of these means can help realize God in his personal form, then how can he be seen in this manner? He now reveals the secret.

Each of the means outlined above have their own results which are valid in life’s various stages, but they can only purify us, not give us Ishvara directly. If we don’t understand this, we are like the child who wants to go to a dentist not to take care of a tooth issue, but to get the lollipop at the end of the visit.

Attainment of Ishvara is purely in the hands of Ishvara himself, as we saw earlier. It is his choice as to whom he will bestow his grace upon. But so far, Shri Krishna himself has described that there is no bias in the way he has set up the machinery of the universe. This leads us to believe that Ishvara will not arbitrarily bestow his grace upon anyone randomly. There has to be a logic to it. Shri Krishna reveals this answer next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

परमात्मा परम् तत्व है तो उस के बराबर या उस से ऊपर कुछ भी नही। बाजार के नियम से यदि कोई वस्तु खरीदने जाए तो वस्तु के वास्तविक मूल्य से कुछ अधिक दाम देने से वह आप को मिल सकती है अर्थात जो आप के पास है वह उस मूल्य का नहीं है जिसे दे कर आप ने खरीदा है क्योंकि उस मे बेचने वाले का लाभ एवम कर जुड़ा होगा। किसी को प्राप्त करने के लिये उस के वास्तविक मूल्य से अधिक व्यय करने पर ही वह वस्तु आप को प्राप्त हो सकती है। इसी तरह अनेक वेदों का अध्ययन करने पर, बहुत बड़ी तपस्या करनेपर, बहुत बड़ा दान देने पर तथा बहुत बड़ा यज्ञ-अनुष्ठान करने पर भगवान् मिल जायँगे–ऐसी बात नहीं है। कितनी ही महान् क्रिया क्यों न हो, कितनी ही योग्यता सम्पन्न क्यों न की जाय, उसके द्वारा भगवान् खरीदे नहीं जा सकते। वे सब-के-सब मिलकर भी भगवत्प्राप्ति का मूल्य नहीं हो सकते। उनके द्वारा भगवान् पर अधिकार नहीं जमाया जा सकता।

आध्यात्मिकता का मुख्य सिद्धान्त यह है कि भगवान को हम अपने प्रयत्नों या सामर्थ्य द्वारा नहीं जान सकते किन्तु जो भगवान की भक्ति में तल्लीन है ऐसे भक्त उनकी कृपा से उन्हें जानने की पात्रता प्राप्त कर लेते हैं तब उनकी कृपा से वे उन्हें सुगमता से देखने में समर्थ हो जाते हैं। मुंडकोपनिषद् में वर्णन है;

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेध्या न बहुना श्रुतेना।(मुंडकोपनिषद्-3.2.3)

भगवान को आध्यात्मिक प्रवचनों या बुद्धि द्वारा जाना नहीं जा सकता। उसे विभिन्न प्रकार के उपदेशों को सुनकर भी नहीं जाना जा सकता”।

सांसारिक चीजों में तो अधिक योग्यतावाला कम योग्यतावाले पर आधिपत्य कर सकता है, अधिक बुद्धिमान् कम बुद्धिवालों पर अपना रोब जमा सकता है, अधिक धनवान् निर्धनों पर अपनी अधिकता प्रकट कर सकता है; परन्तु भगवान् किसी बल, बुद्धि, योग्यता, व्यक्ति, वस्तु आदि से खरीदे नहीं जा सकते। कारण कि जिस भगवान् के संकल्प मात्र से तत्काल अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना हो जाती है, उसे एक ब्रह्माण्ड के भी किसी अंश में रहनेवाले किसी वस्तु, व्यक्ति आदि से कैसे खरीदा जा सकता है?

इस बात को भी हमे ध्यान में रखना होगा कि कर्म करने पर अधिकार सिर्फ मृत्यु लोक अर्थात पृथ्वी पर ही है, अन्य लोक में मृत्यु लोक में किये गए  कर्मो को भोगने के लिये जाते है। इस का अर्थ और अधिक स्पष्ट करें तो कर्म को करना ही है क्योंकि वह नियति तय करती है किंतु वह किस प्रकार करे, यह जीव पर निर्भर है कि वह उस कर्म में बंधन को स्वीकार कर के अहम भाव से करे या समर्पित भाव से निष्काम हो कर करें।

परमात्मा कहते है कि जिस प्रकार मुझे तूने देखा है ऐसे पहले दिखलाये हुए रूपवाला मैं न तो ऋक्, यजु, साम और अथर्व आदि चारों वेदोंसे, न चान्द्रायण आदि उग्र तपों से, न गौ, भूमि तथा सुवर्ण आदिके दान से और न यजन से ही देखा जा सकता हूँ अर्थात् यज्ञ या पूजा से भी मैं ( इस प्रकार ) नहीं देखा जा सकता।

परमात्मा परम् तत्व में सब से अधिक अमूल्य है, भगवान् के इस विश्वरूप का दर्शन मिलना किसी के लिए भी सुलभ नहीं है। विराट विश्वरूप को और भी दुर्लभ है।  यहाँ तक कि स्वर्ग के निवासी देवतागण भी अपनी विशाल बुद्धि, दीर्घ जीवन और कठिन साधना के द्वारा भी इस रूप को नहीं देख पाते और सदा उसके लिए लालायित रहते हैं। ऐसा होने पर भी भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने इस विराट् और आश्चर्यमय रूप को अपने मित्र अर्जुन को केवल अनुग्रह करके दर्शाया जैसा कि स्वयं उन्होंने ही स्वीकार किया था।

हम इस बात पर आश्चर्य़ करेंगे कि किस कारण से भगवान् अपनी कृपा की वर्षा किसी एक व्यक्ति पर तो करते हैं और अन्य पर नहीं निश्चय ही यह एक सर्वशक्तिमान् द्वारा किया गया आकस्मिक वितरण नहीं हो सकता, जो स्वच्छन्दतापूर्वक, निरंकुश होकर बिना किसी नियम या कारण के कार्य करता रहता हो क्योंकि उस स्थिति में भगवान् पक्षपात तथा निरंकुशता के दोषी कहे जायेंगे। जो कि उपयुक्त नहीं है।

भगवान कृष्ण जिस साधन का उल्लेख करना चाहते हैं वह है भक्ति। तो उत्सुकता, एक सच्ची इच्छा या लालसा, जिसे तीव्र भक्ति कहा जाता है। वह  विश्व रूप दर्शन के लिए साधना है और कृष्ण इस तीव्र भक्ति का महिमामंडन करना चाहते हैं और शास्त्रों में एक साधना का महिमामंडन करने के लिए, उन्होंने अन्य सभी साधनाओं को नीचे रख दिया। लेकिन हमें बहुत सावधान रहना चाहिए, ऐसा नहीं है कि अन्य साधनाएँ निम्न हैं; वे सभी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं और अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन एक साधना पर ध्यान केंद्रित करें, अन्य साधनाएँ निन्दित हैं और उस न्याय को क्या कहा जाता है, न निंदा न्याय; इसलिए शाब्दिक रूप से यह नीचे लाना नहीं है, लेकिन इस पर ध्यान केंद्रित करना है।

और इसलिए इस श्लोक में, कृष्ण कह रहे हैं कि अन्य सभी साधनाएँ निम्न हैं; बिल्कुल भी महत्वहीन हैं;  भक्ति ही सबसे महत्वपूर्ण साधना है। क्योंकि जब तक जीव में परमात्मा के प्रति समर्पण, श्रद्धा, प्रेम और विश्वास न हो तो ज्ञान या कर्म में उच्चतम स्थान अहंकार को जन्म देता है। प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त होना मोक्ष है, यह तभी संभव है जब जीव प्रकृति के अहंकार और महंत से मुक्त हो कर परम पिता परमेश्वर की शरण ले और अपने सभी कर्म उस को समर्पित करते हुए करे। इसलिए ज्ञान योग या कर्म योग बिना अहम को त्यागे, निम्न कोटि का है।

श्लोक में इसका युक्तियुक्त स्पष्टीकरण किया गया है कि किस कारण से बाध्य होकर भगवान् अपनी विशेष कृपा की वर्षा कभी किसी व्यक्ति पर करते हैं, और सदा सब के ऊपर नहीं। अगर इन प्रचलित साधनों द्वारा भगवान के साकार रूप को जाना नहीं जा सकता तब फिर कैसे उन्हें इस रूप में देखा जा सकता है। अब आगे श्रीकृष्ण इसका रहस्योद्घाटन करेंगे।

।। हरि ॐ तत सत।। 11.53।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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