।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.50 II Additional II
।। अध्याय 11.50 II विशेष II
।। निजी धर्म और विराट स्वरूप दर्शन ।। विशेष – 11.50 ।।
यह मेरा निजी मत है अतः सत्य नहीं भी हो। किन्तु यदि हम किसी भी भावना से, ज्ञान से, परिस्थिति से, समय से या स्थान से कोई कदम उठा लेते है तो क्या उस पर अडिग रहना ही धर्म है। समय, स्थान, परिस्थितियां, भावना या ज्ञान परिवर्तनशील है। फिर धर्म के नियम क्यों नही? निर्णय वर्तमान के अनुसार होता है, भूतकाल दृष्टिकोण दे सकता है किन्तु वर्तमान नही हो सकता। भविष्य आप का आने वाला वर्तमान ही है। भगवान श्री कृष्ण को 64 कलाओं में निपुण बताया गया था, उन्होंने वर्तमान को ही जिया, इसलिये कभी किसी बंधन को स्वीकार नही किया, जो किया वो सनातन सत्य के धर्म के निष्काम कर्म के पालन के लिये किया।
युद्ध भूमि में गीता सनातन धर्म का उपदेश है, विराट स्वरूप सृष्टि से सृजन तक ब्रह्मा-विष्णु – महेश का था। किंतु हम पूर्ण सत्य को स्वीकार नही कर सकते क्यों कि जो परमात्मा है वो जीव नही हो सकता। अर्जुन नर है और कृष्ण नारायण। अर्जुन नारायण नहीं हो सकता, इसलिये परमात्मा के विराट विश्वरूप से भयभीत है। उसे अपना ही प्राकृतिक सत्य ही सही लगता है, भक्ति- समर्पण एवम अनन्य भाव से स्मरण। उस का अपना सत्य एवम धर्म है वो सौम्य रूप में ही विश्वरूप के आनन्दित हो सकता है।
महाभारत का युद्ध सब के द्वारा अपने अपने विचारधाराओं के धर्म की धारणा का युद्ध था। कोई भी सनातन संस्कृति के जीव के प्रकृति और ब्रह्म के संबंधों को आत्मशुद्धि से साथ नहीं समझता था।
भीष्म के लिये पितृभक्ति एवम उन की प्रतिज्ञा धर्म थी।
युधिष्टर के लिये द्यूत क्रीड़ा क्षत्रिय धर्म था।
द्रोण द्वारा राज परिवार को धन के बदले ज्ञान का धर्म था।
कर्ण के मित्रता एवम दान ही धर्म था।
अर्जुन के कृष्ण भक्ति ही उस का धर्म था
धृष्टराष्ट्र के लिए राज्य भोग एवम पुत्रमोह ही धर्म था।
शकुनि के लिये असहाय हो कर बदला लेने के लिये कुटिलता धर्म था।
द्रुपद के लिये अहम केलिए प्रतिशोध ही धर्म था।
भीम के लिए बदला लेने के लिये बर्बरता ही धर्म था। इस के लिये वह अपने भाइयों का रक्त तक पीने हो उपलब्धि समझता था।
दुर्योधन के राज्य का लोभ एवम ईर्षा ही उस का धर्म था।
कुंती के लिये लोक लाज के अपने पुत्र का त्याग ही धर्म था।
द्रोपदी के अहम एवम घमंड में अपवंचन बोल देना ही धर्म था।
विदुर ज्ञानी थे किंतु यह ज्ञान उस व्यक्ति के पास था, जिस के पास न सामर्थ्य था और न ही इतिहास रचने की क्षमता। उस ने उस दार्शनिक ज्ञान को ही अपना धर्म समझा।
यह सब लोग वही है जिन्होंने अपना अपना धर्म निश्चित कर लिया और उस के तले अपना विवेक, ज्ञान, आत्मा और मन को रख दिया। यही मतान्धनता, अंधविश्वास और कट्टरपन है। जिस पर आज सनातन धर्म को छोड़ कर सभी चल रहे है। आश्चर्य यह है कि ये सभी ज्ञानी, विवेकशील और धर्म के रास्ते पर चलने वाले लोग है। व्यक्ति राग और द्वेष में धर्म की परिभाषा भी अपने अनुकूल कर लेता है।
यह वही लोग है जिन्हें हम महान ज्ञानी, उपदेशक भी कहते है किंतु अपने तथाकथित धर्म के प्रति इन की निष्ठा इतनी अधिक है कि किसी भी अनैतिक, अमान्य एवम अधर्म के कर्म में भी यह अपना धर्म नही छोड़ कर, धर्म के नाम पर अधर्म के साथ खड़े हो जाते है।
आज के युग के मुगल और अग्रेजो के साथ भारतीय लोगो से भारतीय लोगों ने ही युद्ध किये, फिर चाहे वह जलियावाला बाग ही क्यों न हो? कर्तव्य पालन में निहत्थे और शांति प्रिय लोगों को गोलियों से छलनी करते वक्त, सिपाही का कर्तव्य बढ़ा होता है या विवेक?
इसी प्रकार आज के युग मे हम अपनी अपनी सुविधा के अनुसार अपना अपना धर्म स्थापित कर लेते है। उस के बाहर सोचने, समझने और व्यवहार करने में कठनाई महसूस करते है। सत्य को जानने की चेष्टा तक नही कर पाते क्योंकि उस को जानने, समझने और देखने मे असुविधा महसूस होती है। गीता अध्ययन तक समझने की बजाए, रटने और नियमित पाठ करने और उस के अर्थ का पुस्तकीय विवेचन करने में ही अपने कर्तव्यधर्म को पूर्ण मानते है। जिस सनातन धर्म मे गीता जैसे अमूल्य ग्रन्थ की धरोहर हो उस धर्म मे स्वार्थ, मानसिक गुलामी, हीन भावना या आपसी सामंजस्य की कमी होना क्या इस बात का प्रतीक नही है। गीता का पाठ करने वाला अभ्यार्थी निर्भय, मोह से मुक्त, वीर, किसी भी परिस्थिति में भयभीत न होने वाला, धर्म के अनुसार आचरण करने वाला, अहिंसक शंका से रहित ज्ञानवान, शत्रु का नाश करने वाला, तटस्थ, निष्काम कर्मयोगी होता है। क्या हम गीता पाठ करने वाले इन गुणों से युक्त है। सहिष्णुता, उदारवादिता, अहिंसा, धर्मनिरपेक्षता आदि आदि धर्म के पाठ गीता में सही शब्दो मे व्याख्या किये गए है किंतु लोग आज भी स्वार्थ में इसे अपने अपने अर्थानुसार अपना धर्म का मार्ग बना रहे है।
बात राजनैतिक ही होगी किंतु यदि कोई अपनी आस्था को किसी पार्टी विशेष या व्यक्ति विशेष बनाता है तो उस के लिए वह सनातन सत्य को भी अपने स्वार्थ, अंधविश्वास या आस्था के अनुकूल बना लेता है, वह सनातन के सत्य स्वरूप को स्वीकार ही नही कर सकता। इसी कारण वह इतिहास को भूल कर उन लोगों के साथ खड़ा हो जाता है जिन्होंने भूतकाल में सनातन संस्कृति को खंड खंड करने का प्रयास किया था। वह धर्म का मार्ग छोड़ कर अन्याय करने वालों के साथ खड़ा हो कर सनातन संस्कृति को नष्ट करने के लिए भी तैयार हो जाता है। इसी लिए दुर्योधन के भीष्म, कर्ण या द्रोण कितने भी न्यायप्रिय और योग्य हो, धर्म की रक्षा के लिए इन को भी समाप्त होना जरूरी है और वैसे ही आज राजनीति में भी चुनाव धर्म युद्ध ही है। जो इस धर्म के विरुद्ध है तो उस से कोई मोह, ममता या राग से संबंध नहीं रखते हुए, निष्काम और निस्वार्थ भाव से अपने मत के अधिकार का प्रयोग करना ही चाहिए।
500 वर्षो से अधिक समय भगवान राम सनातन आस्था के प्रतीक टेंट में रह रहे थे और जब उन का भव्य मंदिर बना तो उस पर विरोध करने वाले राजनीति करने से नहीं चूकते और उन के साथ वहीं लोग खड़े हो जाते है जो राम पर प्रश्न चिन्ह नहीं भी लगा पाए तो उस संस्कृति की रक्षा के लिए जो तत्पर है, उन पर प्रश्न चिन्ह लगाते है। यही तामसी स्वार्थ, राग – द्वेष और लोभ की राजनीति है। इसी कारण रावण, कंस, या अंग्रेज या मुगल के साथ देने वालो की कमी कभी भी कम नहीं हुई।
जब विचारधाराएं विपरीत हो जाए और प्रकृति में विकार बढ़ जाए तो महाभारत भी होता है और उस में निर्णायक कृष्ण ही होते है जो किसी अर्जुन को साथ ले कर अपने और पराए के भेद को मिटा कर, पुनः धर्म को स्थापित करते है।
भगवान श्री कृष्ण ने किसी भी नैतिक या शास्त्र की विचारधारा से अधिक महत्व निस्वार्थ लोकसंग्रह की कर्म को दिया। इसलिए जो लोग नैतिकता का दुहाई या धर्म धर्म चिल्लाते है, वे अक्सर लोकसंग्रह या जनकल्याण में निस्वार्थ की भावना के किए कर्म को नही समझते और धर्म की आड़ में अपने लोभ और स्वार्थ की पूर्ति में लगे रहते है।
कर्ण ने अर्जुन से युद्ध नियम से किया किंतु जब उस को निहत्था देख कर मारा जा रहा था तो उस ने धर्म और युद्ध के नियमो की बात की। तब भगवान ने उसे पूर्व में किए अधर्म के कार्य याद करवाए। अतः धर्म और नियम की बात उन्हे ही शोभा देती है जिन्होंने पूरा जीवन उस के अनुसार जिया हो, यह कोई मौका परस्ती की चादर नही है, जब चाहे ओढ़ ली और जब चाहे उतार दी और न ही यह कर्तव्य पालन में कमजोरी बने। जैसे हम पृथ्वीराज चौहान के द्वारा मोहम्मद गौरी को बार बार क्षमा करने के गलतियों में पाते है।
अतः धर्म अर्थात निजी धारणा या विचार पर दृढ़ रहना विवेक को खोने के समान है। सत्य का एक ही पहलू है जो ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना के बाद कहा कि तुम इस सृष्टि के लिये कर्म करो, जो फल प्राप्त हो, उस मे उतने पर ही तुम्हारा हक है जो तुम्हारे जीवन व्यापन के लिये आवश्यक है, शेष पर प्रकृति का हक है, उसे प्रकृति के दायित्व को समझ कर दान कर दो। इस मे जितना तुम प्रकृति में दोगे, देवता उस से अधिक तुम्हे देंगे।
किस ने सोचा कि प्रकृति हम जीवन व्यापन के लिये,अन्न, जल औषधि और सभी वस्तुएँ देती है तो हम उस पर अपना हक किस प्रकार कर सकते है। दुर्योधन को सत्ता चाहिए, जिस पर उस का हक़ नही, धृतराष्ट्र को पुत्र मोह और पद चाहिये, किंतु वह भी शाश्वत नही, भीष्म को अपनी प्रतिज्ञा के पालन की चिंता है और कर्ण को मित्र धर्म की। अर्जुन स्वजनों के मोह में है। इन मे कोई भी सनातन धर्म या सत्य को नही जान पाया। यदि जान पाता तो युद्ध नही हो पाता।
समस्या यही है कि महाभारत काल से आज तक किसी ने भी ब्रह्मा जी कथन के अनुसार धर्म को नही समझा। सब ने अपने अपने धर्म के कीर्तिमान स्थापित किये जो उन की प्रतिष्ठा और सम्मान से जुड़े थे और है।
आज भी हर व्यक्ति अपने अपने धर्म पर चल रहा है। उसे ज्ञान या विवेक की आवश्यकता बांटने के लिये चाहिये और अपने लिये वह स्वार्थ और लोभ में ही जी रहा है। रज गुण निजी कर्म की लालसा का है तो तम गुण मादकता, आलस्य और काम, क्रोध, स्वार्थ, लोभ में किसी भी हद तक जाने का है।
आज भी धर्म मे कर्म कांड और मत को ले कर मतान्धनता ने मनुष्य को घेर लिया है। सभी अपने अपने मत को सत्य सिद्ध करने में लगे है। एक दूसरे से राग और द्वेष में रहते है। सृष्टि का यही पल ऐसा था जब इन सब को समाप्त होना चाहिए, इसलिये परब्रह्म ने महाकाल स्वरूप में सभी को नष्ट करते हुए अपने स्वरूप को अर्जुन को दिखलाया। आज भी यदि अर्जुन परमात्मा से विराट स्वरुप के दर्शन की अभिलाषा रखते तो उसे यही स्वरूप देखने को मिलता। विभिन्न राष्ट्रों द्वारा अपने प्रभुत्व की महत्वकांक्षा ने तीसरे विश्व युद्ध की संभावना को जगा रखा है। लोगों धर्म के नाम मे जेहाद कर रहे है। सभी राष्ट्र और लोग प्रकृति का दोहन ब्रह्मा जी के कथन की अवहेलना करते हुए स्वार्थ और लोभ में अधिक से अधिक कर रहे है।
सत्य यही है कि प्रकृति में कुछ भी स्थायी नही है, जो जन्म लेता है या जो उत्पन्न होगा, वह काल मे क्षय को प्राप्त होगा, वह कोई भी मत, विचार, धर्म, वस्तु, जीव या देवता ही क्यों न हो। सनातन सिर्फ परमात्मा है और वही सत्य है, इसलिये सृष्टि की रचना में जो ब्रह्मा जी कहा वही सत्य और धर्म है।
किन्तु आज भी धर्म और नियम भी ज्यादा से ज्यादा निजी, सभ्यता और संस्कृति का मापदंड विवेक और ज्ञान की बजाए भौतिकवाद का होता जा रहा है। धर्म और संस्कृति, सेवा, समर्पण, दान और कर्तव्य का अर्थ व्यापार और व्यावसायिक स्वरूप में प्रदर्शित हो रहा है। यही संस्कृति का स्वरूप महाभारत का वह काल था जिस के कारण इतना विशाल युद्ध के द्वारा परमात्मा ने पूरी संस्कृति को नष्ट कर के सनातन धर्म को स्थापित करने का कदम उठाया।
छाती ठोक कर भी यह कहने वाला भी मिल जाये कि वह इसे नही मानता तो यह उस का अज्ञान है क्योंकि वह स्वयम ही काल के वश में स्थायी नही है तो उस के मानने या न मानने का कोई अर्थ नही।
संजय द्वारा धृतराष्ट्र को यह संदेश अत्यंत सुंदर स्वरूप में देने के बाद भी धृतराष्ट्र पर कोई असर नही होता क्योंकि वह भी अपने धर्म के अनुसार पुत्र मोह से ग्रस्त है। यह बात गीता का अध्ययन करने वाले न जाने कितने लोगों पर भी सत्य सिद्ध होती है।
यदि यह सब लोग सनातन धर्म को समझते और अपने अपने धर्म की बजाए सनातन धर्म का पालन करते तो संभवतः यह युद्ध न होता। आज भी सभी अपने धर्म का पालन कर रहे है, सभी अपने को सत्य मान कर एक दूसरे से उलझ रहे है। इस कि समाप्ति ही सनातन धर्म की स्थापना है।
काल के गर्भ में क्या है, इसे कृष्ण ही जानते है। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष का सामंजस्य ही ज्ञान है। कृष्ण को अर्जुन की तलाश है, जिसे गीता जैसा ज्ञान पुनः दे सके। वह हम सब मे कोई भी हो सकता है।
।। हरि ॐ तत सत।। विशेष 11.50।।
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