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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.45 II

।। अध्याय      11.45 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.45

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।

तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास  ॥

“adṛṣṭa-pūrvaḿ hṛṣito ‘smi dṛṣṭvā,

bhayena ca pravyathitaḿ mano me..।

tad eva me darśaya deva rūpaḿ,

prasīda deveśa jagan- nivāsa”..।।

भावार्थ: 

पहले कभी न देखे गये आपके इस रूप को देख कर मैं हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही मेरा मन भय के कारण विचलित भी हो रहा है, इसलिए हे देवताओं के स्वामी! हे जगत के आश्रय! आप मुझ पर प्रसन्न होकर अपने पुरूषोत्तम रूप को मुझे दिखलाइये। (४५)

Meaning:

Seeing you form that was never seen before, I am overjoyed and (yet) fearful, my mind is disturbed. Show me that divine form. Be pleased, O Lord of lords, O abode of the universe.

Explanation:

Fear is one of our most primal emotions. At some point or the other in our lives, we have encountered fear of losing our job, losing a loved one, fear of an angry confrontation, stage fright and so on. But we can boil all kinds of fear down to three things. First, the fear of losing something that is “ours”. This is the fear of losing our life, our job, our loved ones and so on. Next is the fear of loss of knowledge or being duped. Third is the fear of losing joy and happiness, fear of sorrow in other words. We can sum it up in this manner: we are afraid of losing our existence, knowledge and happiness.

Bhayam is more dominant; it is only because divya cakṣuḥ is an artificial onso,given by Bhagavān; Divya cakṣuḥ should be claimed by us by our own sādanā; so by sufficient karma yoga sādhanā rāga dvēṣās; ahamkāra mamakārās comes down; that mind has got naturally developed divya cakṣu; And when we have got naturally developed divya cakṣuḥ; Viśva rūpa will not be frightening; but in the case of Arjuna; it is artificially given; and therefore Arjuna is not able to totally enjoy.

However, if we recall the teaching of the Gita so far, especially from the second chapter, we know that our true nature is the aatmaa, the eternal essence which is infinite existence, knowledge, and happiness. So then, the cause of fear is the ego, the delusion that we are not the eternal essence. There is no scope for fear when we know our true nature as the infinite eternal essence. But if we assume that “I am the body”, then all the problems and fears of the body such as disease, old age, death etc become our problems. The fear of death, which is actually the fear of losing the existence of the body, becomes our fear.

So then, why did Arjuna fear Shri Krishna’s cosmic form? For a moment, Arjuna’s ego had vanished when he considered himself part and parcel of the cosmic form. When his ego came back, it brought with it all the incorrect associations with the body, mind and so on. Arjuna then saw the cosmic form as something outside of himself, something that could destroy him.

There are two kinds of bhakti — aiśhwarya bhakti and mādhurya bhakti. Aiśhwarya bhakti is that where the devotee is motivated to engage in devotion by contemplating upon the almighty aspect of God. The dominant sentiment in aiśhwarya bhakti is of awe and reverence. In such devotion, the feeling of remoteness from God and the need for maintaining propriety of conduct is always perceived. Examples of aiśhwarya bhakti are the residents of Dwaraka and the residents of Ayodhya, who worshipped Shree Krishna and Lord Ram respectively as their kings. Ordinary citizens are highly respectful and obedient toward their king, although they never feel intimate with him.

Mādhurya bhakti is that where the devotee feels an intimate personal relationship with God. The dominant sentiment in such devotion is “Shree Krishna is mine and I am his.” Examples of mādhurya bhakti are the cowherd boys of Vrindavan who loved Krishna as their friend, Yashoda and Nand baba, who loved Krishna as their child, and the gopīs who loved him as their beloved. Mādhurya bhakti is infinitely sweeter than aiśhwarya bhakti.

Hence, Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj states: sabai sarasa rasa dwārikā, mathurā aru braja māhiñ; madhura, madhuratara, madhuratama, rasa brajarasa sama nāhiñ (Bhakti Śhatak verse 70)[v22] The divine bliss of God is immensely sweet in all his forms. Yet, there is a gradation in itthe bliss of his Dwaraka pastimes is sweet, the bliss of his Mathura pastimes is sweeter, and the bliss of his Braj pastimes is the sweetest.

In Mādhurya bhakti, forgetting the almightiness of God, devotees establish four kinds of relationships with Shree Krishna:

Dāsya bhāv—Shree Krishna is our Master, and I am his servant. The devotion of Shree Krishna’s personal servants, such as Raktak, Patrak, etc. was in dāsya bhāv. The sentiment that God is our Father or Mother is a variation of dāsya bhāv and is included in it.

Sakhya bhāv—Shree Krishna is our Friend, and I am his intimate companion. The devotion of the cowherd boys of Vrindavan, such as Shreedama, Madhumangal, Dhansukh, Mansukh, etc. was in sakhya bhāv.

Vātsalya bhāv—Shree Krishna is our Child, and I am his parent. The devotion of Yashoda and Nand baba was in vātsalya bhāv.

Mādhurya bhāvShree Krishna is our Beloved and I am his lover. The devotion of the gopīs of Vrindavan was in mādhurya bhāv.

Arjun is a sakhya bhāv devotee and relishes a fraternal relationship with the Lord. On seeing the universal form of God, Arjun experienced tremendous awe and reverence, and yet he longed for the sweetness of sakhya bhāv that he was used to savoring. Hence, he prays to Shree Krishna to hide the almighty form that he is now seeing and again show his human form.

।। हिंदी समीक्षा ।।

भगवान् का विश्वरूप दिव्य है, अविनाशी है, अक्षय है। इस विश्वरूप में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं तथा उन ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाले ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी अनन्त हैं। इस नित्य विश्वरूप से अनन्त विश्व (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हो-होकर उस में लीन होते रहते हैं, पर यह विश्वरूप अव्यय होने से ज्यों-का-त्यों ही रहता है। यह विश्वरूप इतना दिव्य, अलौकिक है कि हजारों भौतिक सूर्योंका प्रकाश भी इसके प्रकाशका उपमेय नहीं हो सकता । इसलिये इस विश्वरूप को ‘दिव्यचक्षुके’ बिना कोई भी देख नहीं सकता। ‘ज्ञानचक्षुके’ द्वारा संसार के मूल में सत्तारूप में जो परमात्मतत्त्व है, उस का बोध होता है और ‘भावचक्षु से’ संसार भगवत्स्वरूप दीखता है, पर इन दोनों ही चक्षुओं से विश्वरूप का दर्शन नहीं होता। ‘चर्मचक्षु से’ न तो तत्त्व का बोध होता है, न संसार भगवत्स्वरूप दीखता है और न विश्वरूप का दर्शन ही होता है; क्योंकि चर्मचक्षु प्रकृति का कार्य है। इसलिये चर्मचक्षु से प्रकृति के स्थूल कार्य को ही देखा जा सकता है।

भयम् अधिक प्रबल है; ऐसा केवल इसलिए है क्योंकि दिव्य चक्षु भगवान द्वारा दिया गया एक कृत्रिम रूप है; दिव्य चक्षु को हमें अपनी साधना द्वारा प्राप्त करना चाहिए; अतः पर्याप्त कर्म योग साधना द्वारा राग द्वेष; अहंकार ममकार नीचे आता है; मन में स्वाभाविक रूप से विकसित दिव्य चक्षु है; और जब हममें स्वाभाविक रूप से विकसित दिव्य चक्षु है; विश्व रूप भयावह नहीं होगा; लेकिन अर्जुन के मामले में; यह कृत्रिम रूप से दिया गया है; और इसलिए अर्जुन पूरी तरह से आनंद लेने में सक्षम नहीं है।

भगवान् में अनन्त-असीम ऐश्वर्य, माधुर्य,  सौन्दर्य, औदार्य आदि दिव्य गुण हैं। उन अनन्त दिव्य गुणोंके सहित भगवान् का विश्वरूप है। भगवान् जिस-किसी को ऐसा विश्वरूप दिखाते हैं, उसे पहले दिव्यदृष्टि देते हैं। दिव्यदृष्टि देने पर भी वह जैसा पात्र होता है, जैसी योग्यता और रुचिवाला होता है, उसीके अनुसार भगवान् उस को अपने विश्वरूप के स्तरों का दर्शन कराते हैं। यहाँ ग्यारहवें अध्याय के पंद्रहवें से तीसवें श्लोक तक भगवान् विश्वरूप से अनेक स्तरों से प्रकट होते गये, जिसमें पहले देवरूपकी , फिर उग्ररूपकी और उसके बाद अत्युग्ररूप की  प्रधानता रही। अत्युग्ररूप को देखकर जब अर्जुन भयभीत हो गये, तब भगवान् ने अपने दिव्यातिदिव्य विश्वरूपके स्तरों को दिखाना बंद कर दिया अर्थात् अर्जुन के भयभीत होनेके कारण भगवान् ने अगले रूपोंके दर्शन नहीं कराये। तात्पर्य है कि भगवान् ने दिव्य विराट्रूप के अनन्त स्तरों में से उतने ही स्तर अर्जुन को दिखाये, जितने स्तरों को दिखाने की आवश्यकता थी और जितने स्तर देखने की अर्जुन में योग्यता थी।

अर्जुन ने प्रार्थना की उसे समस्त विभूतियो के बारे में बताए जिस से वह उन्हें स्मरण कर सके, तो परमात्मा ने विशिष्ट अनुभूतियों से अवगत कराया। अर्जुन की जिज्ञासा युद्ध के भविष्य को भी देखने की थी, जिस को उस ने काल से परे महाकाल स्वरूप में अत्यंत भयंकर स्वरूप में सभी का भक्षण होते हुए देखा। श्रवण आनन्द दायक हो सकता है किंतु दर्शन की भांति प्रभावशाली नही। अतः अर्जुन ने एक विश्वरूप के दर्शन की अभिलाषा की तो परमात्मा ने प्रेमवश उसे दिव्य नेत्र दे कर अपना विश्वरूप, उग्रविश्वरूप एवम अतिउग्राविश्वरूप कालमय दिखाया। यह दिव्यदर्शन हम सब ने विस्तार से पढ़ते हुये किया। इस अदभुत विश्वदर्शन जिस की कल्पना भी नही जा सकती थी, जिसे आज तक किसी ने भी नही देखा था, जो कालातीत था, जिस में सम्पूर्ण ब्रह्मांड, देवी देवता, ऋषि मुनि, जन्म मृत्यु में काल अपने भूतकाल,वर्तमान एवम भविष्य काल को एक स्थान में ले कर रखा था। जहां भय का वातावरण भी था और आनन्द भी था। जहां चिल्लाहट भी थी एवम वेदविद लोगो द्वारा स्तुति गान भी था।

इस अभूतपूर्व दृश्य देख कर आनन्द भी हो रहा था किंतु भय भी लग रहा था। सत्य को सत्य के रूप में देखना अत्यंत कठिन होता है वहां साक्षात विश्वरूप के दर्शन के कारण अर्जुन के अंदर आंतरिक आनंद के साथ भय भी उत्पन्न हो रहा था। काल द्वारा सभी का भक्षण करना निश्चय ही उस व्यक्ति के अंदर भी भय पैदा कर देगा जिस ने अभी तक अपने को अनश्वर आत्मा नही माना, उस का शरीर एवम प्रकृति की तरफ़ मोह उस के अहम को नष्ट होता नहीं देख सकता। वो इस दृश्य को देख कर नत मस्तक हो कर स्तुति करने लगा था। इसलिये वह आगे कहता है।

आप का ऐसा अलौकिक आश्चर्यमय विशालरूप मैंने पहले कभी नहीं देखा। आपका ऐसा भी रूप है — ऐसी मेरे मन में सम्भावना भी नहीं थी। ऐसा रूप देखने की मेरे में कोई योग्यता भी नहीं थी। यह तो केवल आपने अपनी तरफ से ही कृपा करके दिखाया है। इस से मैं अपने आप को बड़ा सौभाग्यशाली मानकर हर्षित हो रहा हूँ। आप की कृपा को देखकर गद्गद हो रहा हूँ। परन्तु साथ ही साथ आप के स्वरूप की उग्रता को देखकर मेरा मन भय के कारण अत्यन्त व्यथित हो रहा है, व्याकुल हो रहा है, घबरा रहा है।

इसलिये हे देव, मुझे अपना वही रूप दिखलाइये जो मेरा मित्ररूप है। हे देवेश, हे जगन्निवास आप प्रसन्न होइये।

अर्जुन हम सब का प्रतिनिधित्व करते है, वह क्षत्रिय योद्धा है, कर्म उस के जीवन का आधार है। उस का आनंद एवम संतोष परमात्मा के सखा स्वरूप व्यवहार में ही है। इसलिये परब्रह्म के समक्ष उस की स्थिति असमंजस जैसी है, वह पुनः अपने ही संसार मे लौट आना चाहता है, जिस में परमात्मा का सौंदर्य स्वरूप से मन को शान्ति प्राप्त हो।

प्रत्येक भक्त अपने इष्ट देवता के रूप में भगवान् से प्रेम करता है। जब उस आकार के द्वारा वह भगवान् के अनन्त, परात्पर, निराकार स्वरूप का साक्षात्कार करता है, तब निसन्देह वह परमानन्द का अनुभव करता है।

साधना के फलस्वरूप प्राप्त आन्तरिक शान्ति परमानन्द दायक होती है, परन्तु अचानक साधक के मन में विचित्र भय समा जाता है, जो उसे पुन देहभाव को प्राप्त कराकर मन के विक्षेपों का कारण बनता है। आत्मानुभव के उदय पर यह परिच्छिन्न जीव अपने बन्धनों से मुक्त होकर, अदृष्टपूर्व आनन्दलोक में प्रवेश करता है, जहाँ वह अपनी ही विशालता और प्रभाव का अनुभव कर प्रसन्न हो जाता है।  परन्तु प्रारम्भिक प्रयत्नों में एक साधक में यह सार्मथ्य नहीं होती कि वह अपने मन को दीर्घकाल तक वृत्तिशून्य स्थिति में रख सके। ध्यान में निश्चल प्रतीत हो रहा उसका मन पुन जाग्रत होकर क्रियाशील हो जाता है। साधकों का यह अनुभव है कि ऐसे समय मन में सर्वप्रथम जो वृत्ति उठती है वह भय की ही होती है। निराकार अनुभव से भयभीत होकर मन पुन शरीर भाव में स्थित हो जाता है। ऐसे अवसरों पर भक्तजन प्रेम और भक्ति के साथ अपने साकार इष्टदेव को अपने चंचल मन्दस्मित के रूप में व्यक्त होने के लिए प्रार्थना करते हैं। वे अपने इष्टदेव को पुन सस्मित और कोमल तथा प्रेमपूर्ण दृष्टि और संगीतमय शब्दों के साथ देखना चाहते हैं।

हमे हमारा पिछला जन्म याद नही रहता, न ही हम किसी के मन मे क्या चल रहा है, पढ़ नही पाते। हमे हमारा भविष्य भी ज्ञात नही रहता। किन्तु इस के अभाव में हमे वर्तमान में जीने और भविष्य के संघर्ष करने का अवसर मिलता है। जीवन का आनंद का प्रतिक्षण वर्तमान ही होता है क्योंकि भविष्य अज्ञात है। किंतु कल्पना करे कि यदि पूर्व जन्म की स्मृति बनी रहे और हम भविष्य को जान जाए, किसी के भी मन को पढ़ सके तो स्थिति कितनी भयानक होगी। हम अपना जीवन का कोई भी क्षण भी नही जी पाएंगे और पूर्व जन्म से भविष्य तक और व्यवहार में छुपी भावनाओ के कारण समस्त आनन्द भय में परिवर्तित हो जाएगा। अर्जुन ने भी वस्तुतः भूत, भविष्य एक साथ देख लिया, इसलिये जिसे वह आनन्द समझ रहा था, उस को कष्ट दे रहा था। इसलिये वह पुनः उसी स्थिति में लौट आना चाहता था।

भक्ति दो प्रकार की होती है-एक ऐश्वर्य भक्ति और दूसरी माधुर्य भक्ति। ऐश्वर्य भक्ति में भगवान के सर्वशक्तिशाली स्वरूप के चिन्तन द्वारा भक्त भक्ति में तल्लीन होने के लिए प्रेरित होता है। ऐश्वर्य भक्ति में भय और श्रद्धा के भाव की प्रधानता होती है। ऐसी भक्ति में भगवान से दूरी और औपचारिक रूप से शिष्टाचार का पालन करना सदैव आवश्यक समझा जाता है। द्वारकावासी और अयोध्यावासी ऐश्वर्य भक्ति के उदाहरण हैं जो श्रीकृष्ण और भगवान श्री राम का आदर-सम्मान अपने राजा के रूप में करते थे। सामान्य नागरिक अपने राजा के प्रति अत्यंत निष्ठावान और आज्ञाकारी होते हैं यद्यपि उनके उसके साथ कभी घनिष्ठ सम्बंध नहीं होते।

माधुर्य भक्ति में भक्त भगवान के साथ निजता के संबंध का अनुभव करते हैं। ऐसी भक्ति में यह भाव प्रमुख रहता है कि ‘श्रीकृष्ण मेरे हैं और मैं उनका हूँ।’ वृंदावन के ग्वाल-बाल जो श्रीकृष्ण से सखा भाव का प्रेम करते हैं, यशोदा और नंद बाबा जो कृष्ण से अपने बालक के रूप में प्रेम करते हैं और गोपियाँ जो उनसे अपने प्रियतम के रूप में प्रेम करती हैं, ये सब माधुर्य भक्ति के उदाहरण हैं। माधुर्य भक्ति ऐश्वर्य भक्ति की अपेक्षा अत्यंत मधुर है।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज वर्णन करते हैं; सबै सरस रस द्वारिका, मथुरा अरु ब्रज माहिँ। मधुर, मधुरतर, मधुरतम, रस ब्रजरस सम नाहिँ ।। (भक्ति शतक श्लोक-70) भगवान का दिव्य आनन्द उसके सभी रूपों में अत्यन्त मधुर होता है किन्तु फिर भी इसकी श्रेणियाँ हैं। भगवान की द्वारका की लीलाओं का आनंद मधुरऔर मथुरा की लीलाओं का आनन्द अति मधुरतथा ब्रज की लीलाओं का आंनद मधुरतम है।

माधुर्य भक्ति में भगवान के ऐश्वर्य और सर्वशक्तिशाली स्वरूप को भुला दिया जाता है। भक्त भगवान कृष्ण के साथ चार प्रकार से संबंध स्थापित करता है।

दास्य भावः श्रीकृष्ण हमारे स्वामी हैं और मैं उनका सेवक। स्वयं को श्रीकृष्ण का दास मानने जैसी रक्तक और पत्रक आदि की भक्ति दास्य भाव की भक्ति थी। भगवान को अपनी माता और अपना पिता मानने का भाव भी दास्य भक्ति की श्रेणी है और इसे भी दास्य भाव में सम्मिलित किया गया है।

सख्य भावः श्रीकृष्ण हमारे सखा हैं और मैं उनका अंतरंग सखा हूँ। श्रीदामा, मधुमंगल, धनसुख, मनसुख की भक्ति सखा भाव की भक्ति थी।

वात्सल्य भावः श्रीकृष्ण हमारे बालक हैं और मैं उनका माता-पिता हूँ। यशोदा और नंद की भक्ति वात्सल्य भाव की भक्ति थी।

माधुर्य भावः श्रीकृष्ण हमारे प्रियतम और मैं उनकी प्रेयसी हूँ। वृंदावन की गोपियों की भक्ति माधुर्य भाव की भक्ति थी।

अर्जुन सखा भाव वाले भक्त है और भगवान के साथ भातृ-भाव के संबंध का आनन्द पाते है। भगवान के विराटरूप और दिव्य रूप को देखकर अर्जुन को अद्भुत विस्मय और श्रद्धा का अनुभव होता है किन्तु फिर भी वह सख्य भाव की माधुर्यता चाहता है जिसका स्वाद लेने का वह पहले से ही आदी था।

भगवान् में अनन्त असीम ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, औदार्य आदि दिव्य गुण हैं। उन अनन्त दिव्य गुणोंके सहित भगवान् का विश्वरूप है। जो स्वरूप से आत्मविश्वास में वृद्धि हो, मनमे शान्ति और हर्ष का अनुभव हो, अर्जुन भी ऐसे ही भगवान का किस रूप में दर्शन चाहते है वह हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 11.45।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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