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% % - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.39II

।। अध्याय      11.39 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.39

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्‍क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।

नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥

‘vāyur yamo ‘gnir varuṇaḥ śaśāńkaḥ,

prajāpatis tvaḿ prapitāmahaś ca..।

namo namas te ‘stu sahasra-kṛtvaḥ,

punaś ca bhūyo ‘pi namo namas te”..।।

भावार्थ: 

आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा तथा सभी प्राणीयों के पिता ब्रह्मा भी है और आप ही ब्रह्मा के पिता भी हैं, आपको बारम्बार नमस्कार! आपको हजारों बार नमस्कार! नमस्कार हो!! फिर भी आपको बार-बार नमस्कार! करता हूँ। (३९)

Meaning:

You are Vayu, Yama, Agni, Varuna, Shashaanka, Prajaapati and Prapitaamaha. Salutations to you a thousand times. Salutations to you, again and again.

Explanation:

Arjuna understood that the source of nature’s power was none other than Ishvara. He saw Ishvara in all the primal forces of nature and listed their presiding deities: Vayu, the lord of wind who sustains all living beings. Yama, the lord of death who ensures justice for everyone. Agni, the lord of fire who provides energy to all beings. Varuna, the lord of life-giving water. Shashaanka, the moon, who nourishes all plants and herbs.

How could Ishvara manifest as all these deities? Because Ishvara functions as Prajaapati, also known as Lord Brahmaa, creator of the universe who brought all the deities into existence. Vedic texts refer to Brahmaa as Hiranyagarbha, the golden womb that brought forth the universe. But Ishvara existed even before Brahmaa was created, he is the Prapitaamaha, the great- grandfather, the original person.

You should know the logic behind it also; what is the logic; in the seventh chapter itself Krishna has introduced that Bhagavān is the kāraṇam; and the whole creation is the kāryam; and we know the fundamental law that the kāraṇam alone appears in the form of manifold kāryam. Cause alone with different names and forms appears as various effects; just as one gold alone with different nāmās and rūpās appears as different forms of ornaments. There are no ornaments separate from gold; there are no furniture separate from wood; there are no waves and oceans separate from water; generalising, there are no products separate from cause. And the cause being God; there are no creations other than God. Therefore God alone is in the form of ākāśa, Agni, vāyuḥ, āpaḥ, that logic you should remember. It is given in one particular section of Brahmā sūtra.

So this logic is a powerful adikāraṇam; tat ananyatvam araṁbha śabdadibhyaḥ. It is called ārambhanādi kāraṇa nyāyā. So what is the logic; Effects do not exist separate from cause. Or to put in another language; cause alone appears as manifold effects.

Hence, in this verse, Arjun says that Shree Krishna is also Vāyu, Yamrāj, Agni, Varuṇ, Chandra, and Brahma. Similarly, the celestial gods have their distinct personalities and unique set of duties to discharge in the administration of the world. However, the same one God sitting in all of them manifests the special powers they possess.

When we are humbled, when we come in the presence of someone who is infinitely more capable than we are, we could have one of two reactions. If we have no respect for that person, we could harbour feelings of resentment and anger. But in this case, Arjuna was humbled by Ishvara for whom he had the utmost reverence. Knowing that the source of the universe was on his side, all he could do was repeatedly prostrate and offer his salutations. Knowing that it was Ishvara who was doing his work all along, Arjuna’s completely surrendered his pride.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व में परमात्मा में स्वयं को सभी प्राणियों के बीज स्वरूप में अर्जुन को कहा था एवम यह भी कहा था कि कुछ ज्ञानी मन मे कामना ले कर विभिन्न देवी देवताओं को पूजते है, वे अज्ञान वश मुझे ही पूजते है, क्योंकि मैं ही उन सभी देवी देवताओं के द्वारा उन की योग्यताओं के अनुसार फल देता हूँ। अतः अर्जुन ने विराट विश्वरूप में इस सत्य को भी देखा, इस लिए प्रार्थना करते हुए कहते है।

वायुः- जिस से सब को प्राण मिल रहे हैं। वह वायु आप ही हैं। यमः – जो संयमनी पुरी के अधिपति हैं और सम्पूर्ण संसार पर जिन का शासन चलता है, वे यम आप ही हैं। अग्निः – जो सब में व्याप्त रह कर शक्ति देता है एवम प्रकट हो कर प्रकाश देता है, वह अग्नि आप ही हैं। वरुणः – जिस के द्वारा सब को जीवन मिल रहा है, उस जल के अधिपति वरुण आप ही हैं। शशाङ्क – जिस से सम्पूर्ण ओषधियों का,  वनस्पतियों का पोषण होता है,  वह चन्द्रमा आप ही हैं। प्रजापतिः – प्रजा को उत्पन्न करनेवाले दक्ष आदि प्रजापति आप ही हैं। अभी तक 14 प्रजापति हुए है जिन की कई पत्नियां है, सृष्टि की रचना में जीव की उत्पत्ति में इन का अपना योगदान है।

पितामह: इन सभी प्रजापतियों की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई है क्योंकि संपूर्ण सृष्टि की रचना का दायित्व ब्रह्मा जी का है।

प्रपितामहः – पितामह ब्रह्माजी को भी प्रकट करने वाले आप प्रपितामह हैं। इन्द्र आदि जितने भी देवता हैं, वे सब के सब आप ही हैं। आप अनन्तस्वरूप हैं। आप की मैं क्या स्तुति करूँ क्या महिमा गाऊँ मैं तो आपको हजारों बार नमस्कार ही कर सकता हूँ एवम कर रहा हूँ।

अब तक अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के पर, अक्षर और निर्गुण स्वरूप का स्तुतिगान कर रहा था। एक उपासक के मन में यह प्रश्न आ सकता है कि इस सर्वातीत निर्गुण स्वरूप सत्य का उसके अपने इष्ट देवता (उपास्य) के साथ निश्चित रूप से क्या सम्बन्ध है।

प्राचीनकाल में प्राय प्राकृतिक शक्तियों के अधिष्ठातृ देवताओं की श्रद्धापूर्वक आराधना, प्रार्थना और उपासना की जाती थी।वेदकालीन साधकगण अन्तकरण की शुद्धि तथा एकाग्रता के लिए जिन देवताओं की उपासना करते थे, उन में प्रमुख वायु, यम, अग्नि, वरुण (जल का देवता), शशांङ्क (चन्द्रमा) और सृष्टिकर्ता प्रजापति। इन देवताओं का आह्वान स्त्रोतगान, पूजा तथा यज्ञयागादि के द्वारा किया जाता था। उस काल के शिक्षित वर्ग के लोगों के मन को भी ईश्वर के यही रूप इष्ट थे। प्राय सर्वत्र लोग साधन को ही साध्य (लक्ष्य) समझने की गलती करते हैं। परन्तु, यहाँ अर्जुन प्रामाणिक ज्ञान के आधार पर यह दर्शाता है कि वस्तुत अनन्त तत्त्व ही समस्त देवताओं का मूल स्वरूप है। तथापि उस अनन्त को अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में देखता है। वेदान्त का यह सिद्धांत है कि एक ही परमात्मा विविध उपाधियों के द्वारा व्यक्त होकर इन देवताओं के रूप में प्राप्त होता है। वर्तमान काल में भी भक्तगण अपने इष्ट देवता के रूप में परमेश्वर का आह्वान कर अपने इष्ट को ही देवाधिदेव कहते हैं। इस देवेश को ही अर्जुन प्रणाम करता है।

अर्जुन की यह प्रार्थना उस के अहम को भी नष्ट करती है क्योंकि वह यह स्वीकार करने लग गया है सम्पूर्ण कार्यो को परमात्मा द्वारा ही विभिन्न रूप में किया जा रहा है।

गीता उन सभी पुराणों को एक स्थान पर लाने का प्रयास करती है, जिस में ब्रह्म स्वरूप अलग अलग देवी देवताओं को जैसे, माँ भगवती, शिव, विष्णु आदि को ब्रह्म स्वरूप एवम आदि सृष्टि के रचयिता का रूप दिया है। यह उन समस्त उपासक देवी -देवताओं को भी यह स्वरूप में देखने को प्रेरित करती है।

हमे इस प्रार्थना के पीछे का तर्क भी जानना चाहिए। तर्क यह है कि सातवें अध्याय में ही कृष्ण ने कहा है कि भगवान कारण हैं और सारी सृष्टि कार्य है और हम इस मूलभूत नियम को जानते हैं कि कारण ही अनेक कार्यों के रूप में प्रकट होता है। अलग-अलग नामों और रूपों के साथ अकेला कारण ही विभिन्न प्रभावों के रूप में प्रकट होता है; जैसे अलग-अलग नामों और रूपों के साथ अकेला सोना ही विभिन्न आभूषणों के रूप में प्रकट होता है। सोने से अलग कोई आभूषण नहीं है। लकड़ी से अलग कोई फर्नीचर नहीं है। पानी से अलग कोई लहरें और समुद्र नहीं हैं। सामान्य तौर पर, कारण से अलग कोई उत्पाद नहीं है। और कारण भगवान है, भगवान के अलावा कोई रचना नहीं है। इसलिए भगवान ही आकाश, अग्नि, वायु, आप के रूप में हैं, वह तर्क आपको याद रखना चाहिए। यह ब्रह्म सूत्र के एक विशेष खंड में दिया गया है।  तो यह तर्क एक शक्तिशाली अधिकरणम है। तत् अनन्यत्वं आरम्भ शब्दादिभ्यः। इसे आरम्भनादि कारण न्याय कहते हैं। तो तर्क यह है कि प्रभाव कारण से अलग नहीं होते। या दूसरे शब्दों में कहें तो कारण ही अनेक प्रभावों के रूप में प्रकट होता है।

इसलिए, इस श्लोक में अर्जुन कहते हैं कि श्रीकृष्ण वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्र और ब्रह्मा भी हैं। इसी तरह, स्वर्ग के देवताओं के पास दुनिया के प्रशासन में निर्वहन करने के लिए अपने अलग-अलग व्यक्तित्व और विशिष्ट कर्तव्य हैं। हालाँकि, उन सभी में बैठा एक ही भगवान उनकी विशेष शक्तियों को प्रकट करता है।

ज्ञान की विभिन्न शाखाएँ जैसे भौतिक, रसायन, तांत्रिक, ज्योतिषी आदि हो सकती है किंतु ज्ञान तो एक ही है। एक व्यक्ति ही पिता, पुत्र, भाई, पति, साला, बहनोई, सगा, ससुर हो सकता है, परंतु वह विभिन्न व्यक्तित्व में है एक ही।

प्रस्तुत श्लोक में अर्जुन नमस्कार एक या दो बार नही करते हुए बार बार अर्थात सहस्त्र बार कर रहे है। वह परमात्मा के स्वरूप से इतने अधिक प्रभावित है कि उन्हें उनको उन के प्रत्येक स्वरूप को नमस्कार के अतिरिक्त कुछ भी नही सूझ रहा है। इसलिये सहस्त्र बार नमस्कार करने के बाद, भी वह आगे क्या कहते है, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 11. 39।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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