।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.38II
।। अध्याय 11.38 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.38॥
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥
“tvam ādi-devaḥ puruṣaḥ purāṇas,
tvam asya viśvasya paraḿ nidhānam..।
vettāsi vedyaḿ ca paraḿ ca dhāma,
tvayā tataḿ viśvam ananta-rūpa”..।।
भावार्थ:
आप आदि देव सनातन पुरुष हैं, आप इस संसार के परम आश्रय हैं, आप जानने योग्य हैं तथा आप ही जानने वाले हैं, आप ही परम धाम हैं और आप के ही द्वारा यह संसार अनन्त रूपों में व्याप्त हैं। (३८)
Meaning:
You are the primal lord, the ancient person. This universe is your supreme abode. You are the knower, the knowable and the supreme abode. By you is this universe pervaded, O one with infinite forms.
Explanation:
Arjun addresses Shree Krishna as the original Divine Person, the cause of all causes. Previously his namaskāra was a mere mechanical act, because we have been taught to do namaskāra in front of the Lord right from the childhood and since we have mechanically practised it; it is only a physical exercise; but for an enlightened person; every namaskāra is a very very significant inner expression of his attitude. The Lord represents the law of karma; and my namaskāra represents; I will never question the law of karma and that unquestioned acceptance is indicated by a physical action.
Every object and every personality has a cause, or a source, from which it came into being. Arjuna’s understanding of Ishvara becomes clearer and clearer as this chapter unfolds. He acknowledges Ishvara’s creative power by addressing him as “aadideva”, the primal or first lord, the one who created Brahmaa, the creator. He also acknowledges that Ishvara has the power to create “anantaroopam”, an infinite number of forms, which is what we experience as “vishwam”, this magnificent universe. The first name of Ishvara in the Vishnu Sahasranama, the thousand names of Vishnu, is vishwam.
Even Brahma prays to him:
īśhwaraḥ paramaḥ kṛiṣhaṇaḥ sachchidānanda vigrahaḥ; anādirādi govindaḥ sarva kāraṇa kāraṇam (Brahma Samhitā 5.1)[v12]
“Shree Krishna is the original form of the Supreme Lord. His personality is full of knowledge and Bliss. He is the origin of all, but he is without origin. He is the cause of all causes.”
Ishvara has not created the universe and stepped aside from it. He dwells in it as the ancient “purusha” or person, just like we dwell as the person in our body, the “city of nine gates” from the fifth chapter. Also, Ishvara is not located in just one specific area or corner of this universe. He is present everywhere. He is the “tatam” in the phrase “yenam sarvam idam tatam” from the second chapter. He pervades this entire creation, just like water pervades all ocean waves.
We know that even an inert object like a TV screen can conjure up an infinite number of names and forms. But Ishvara is far from inert. He is of the nature of awareness, of knowledge. He is the knower of everything that is to be known, all the forms that he has created. And when all these forms are dissolved, they end up in him, the final resting place, the “parama dhaama” or supreme abode.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अर्जुन स्तुति करते हुए कहते है
आप सम्पूर्ण देवताओं के आदिदेव हैं क्योंकि सब से पहले आप ही प्रकट होते हैं। आप पुराण पुरुष हैं क्योंकि आप सदा से हैं और सदा ही रहनेवाले हैं। देखने, सुनने, समझने और जानने में जो कुछ संसार आता है और संसार की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि जो कुछ होता है, उस सबके परम आधार आप हैं। आप सम्पूर्ण संसार को जाननेवाले हैं अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान काल तथा देश, वस्तु, व्यक्ति आदि जो कुछ है, उन सबको जाननेवाले (सर्वज्ञ) आप ही हैं। वेदों, शास्त्रों, सन्त महात्माओं आदि के द्वारा जानने योग्य केवल आप ही हैं। जिस को मुक्ति परमपद आदि नामों से कहते हैं, जिस में जाकर फिर लौटकर नहीं आना पड़ता और जिस को प्राप्त करने पर करना, जानना और पाना कुछ भी बाकी नहीं रहता, ऐसे परमधाम आप हैं। विराट् रुप से प्रकट हुए आप के रूपों का कोई पारावार नहीं है। सब तरफ से ही आप के अनन्त रूप हैं। आप से यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है अर्थात् संसार के कण कण में आप ही व्याप्त हो रहे हैं।
अर्जुन श्रीकृष्ण को दिव्य सनातन पुरुष के रूप में संबोधित करता है जो सभी कारणों के कारण हैं। सभी वस्तुओं और सभी जीवन रूपों का कोई कारण या मूल होता है जिससे उनकी उत्पत्ति होती है।
तुलसीदास जी के वचन ” सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोई सर्वग्य रामु भगवाना ।।” इसी को पुष्टि करते है।
आदिदेव आत्मा ही आदिकर्ता है। चैतन्यस्वरूप आत्मा से ही सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई है। समष्टि मन और बुद्धि से अविच्छिन्न (मर्यादित, सीमित) आत्मा ही ब्रह्माजी कहलाता है। विश्व के परम आश्रय सम्पूर्ण विश्व परमात्मा में निवास करता है, इसलिए उसे यहाँ विश्व का परम आश्रय कहा गया है। विश्व शब्द सत् और असत् (व्यक्त और अव्यक्त) का सम्मिलित रूप ही है। ब्रह्मा जी भी प्रार्थना करते हुए कहते है:
ईश्वरः परमः कृष्णः सचिदानंद विग्रहः अनादिरादी गोविन्दः सर्वकारणकरणम् (ब्रह्मसंहिता-5.1)
” श्रीकृष्ण परमात्मा का मूल स्वरूप हैं। वे सर्वज्ञाता और परम आनंद हैं। वे सबके कारण और स्वयं कारण रहित हैं। वह सब कारणों के कारण हैं।” श्रीकृष्ण सर्वांतर्यामी हैं। वे सर्वज्ञ और ज्ञेय दोनों हैं। श्रीमद्भागवतम् (4.29.49) में वर्णन है- “सा विद्या तन्मतिर्यया” में वर्णन किया गया है-“वास्तविक ज्ञान वही है जो भगवान को जानने में सहायता करे।”
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज कहते है;
जो हरि सेवा हेतु हो, सोई कर्म बखान। जो हरि भगति बढ़ावे, सोई समुझिय ज्ञान ।।(भक्ति शतक श्लोक-66)
कोई भी कर्म यदि भगवान की सेवा के लिए किया जाता है तो उसे वास्तव में कर्म कहते हैं। जो ज्ञान भगवान से प्रेम को बढ़ाये वही वास्तविक ज्ञान है। अतः भगवान ज्ञाता और ज्ञेय दोनों हैं।
हम यह नहीं कह सकते कि जड़ जगत् की उत्पत्ति किसी अन्य स्वतन्त्र कारण से हुई है, क्योंकि आत्मा ही सर्वव्यापी, एकमेव अद्वितीय सत्य है। इसलिए, वेदान्त में कहा गया है कि यह विश्व परम सत्य ब्रह्म पर अध्यस्त (अध्यारोपित) है। यहाँ अर्जुन परमात्मा का निर्देश अत्यन्त सुन्दर प्रकार से विश्व के विधान कहकर करता है। आप ज्ञाता और ज्ञेय हैं चैतन्य ही वह तत्त्व है, जो हमारे अनुभवों को सत्यत्व प्रदान करता है। चैतन्य से प्रकाशित हुए बिना इस जड़ जगत् का ज्ञान सम्भव नहीं होता, इसलिए यहाँ चैतन्य स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को ज्ञाता कहा गया है। आत्म साक्षात्कार हेतु उपदिष्ट सभी साधनाओं की प्रक्रिया यह है कि इन्द्रियादि के द्वारा विचलित होने वाला मन का ध्यान बाह्य विषयों से निवृत्त कर उसे आत्मस्वरूप में स्थिर किया जाय। जब यह मन वृत्तिशून्य हो जाता है, तब शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा का साक्षात् अनुभवगम्य बोध होता है। इसलिए आत्मा को यहाँ वेद्य अर्थात् जानने योग्य तत्त्व कहा गया है। सम्पूर्ण विश्व आपके द्वारा व्याप्त है जैसे समस्त मिष्ठानों में मधुरता व्याप्त है या तरंगों में जल व्याप्त है, वैसे ही विश्व में परमात्मा व्याप्त है। अभी कहा गया था कि अधिष्ठान के अतिरिक्त अध्यस्त वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं होता। आत्मा ही वह अधिष्ठान है, जिस पर यह नानाविश्व सृष्टि की प्रतीति हो रही है। इसलिए यहाँ उचित ही कहा गया है कि आपके द्वारा यह विश्व व्याप्त है। यह केवल उपनिषद् प्रतिपादित उस सत्य की ही पुनरुक्ति है कि अनन्त ब्रह्म सब को व्याप्त करता है, परन्तु उसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता है। जिसे नैति नैति कह कर व्यापकता का आभास करवाया गया है।
अतः यहाँ विचार व्यक्त किया गया है माण्डूक्य उपनिषद से लिया विचार है। अतः वेत्ता का तात्पर्य विश्व तैजसा प्रज्ञा से है; वेद्यम् का तात्पर्य स्तूल सूक्ष्म, कारण प्रपंच से है। तीन जोड़े; और परम च धाम का अर्थ है वह जो तीन जोड़ों से परे है; वह तुरीय तत्व है; यहाँ एक दार्शनिक विचार व्यक्त किया गया है; परं च धाम परम च धाम; धाम का अर्थ है चैतन्यम; तुरीयं चैतन्यम आप हैं, जिसमें सभी ज्ञाता और ज्ञान की वस्तु विश्राम करती है।
अर्जुन द्वारा स्तुति के परमस्वरूप का वर्णन अर्जुन द्वारा परब्रह्म के साक्षात दर्शन से उत्पन्न ज्ञान को दर्शाता है, जो उसे पहले नही था। पहले वह नमस्कार करते हुए भगवान श्री कृष्ण को गुरुपद के योग्य समझ कर भी अपनी शंकाओं का समाधान खोजता है, अब स्तुति में उसे परब्रह्म के दर्शन से उत्पन्न ज्ञान का आभास हो रहा है।
व्यवहार में जब हम किसी विषय को अंतर्मन से नही समझते और पारंपरिक तरीके से उस का निर्वाह करते है तो मन में श्रद्धा, विश्वास और प्रेम का अभाव तो होता ही है, पूरी तरह से समर्पण भी नही होता। इसलिए मां – बाप या बड़ों के पांव छूना चाहिए और उन का आशीर्वाद लेना चाहिए, मंदिर जा कर भगवान के हाथ जोड़ने आदि का निर्वाह परंपरा में यंत्रवत होता है। किंतु जब बात स्वार्थ, आत्मसम्मान या द्वेष की हो जाए, तो मर्यादा को पार कर के हम उन का अपमान या लड़ने को तैयार रहते है। आज के समाज में ज्ञान के अभाव में यंत्रवत पांव छूने वाला, अपने से बड़ों के प्रति श्रद्धा नही रखता और उन्हे मूर्ख भी समझता है। परिवार में बुजुर्ग होने पर यह अक्सर देखा जाता है, इसलिए में गलती मां – बाप और शिक्षा देने वाले बड़े लोगो की भी क्योंकि उन्होंने भी ज्ञान के अभाव में परंपरा निभाई और ज्ञान अपने आने वाली पीढ़ी को भी नही दिया। दुर्योधन, कंस या रावण में यही परंपराएं ज्ञान के साथ नहीं थी। लेकिन यदि यही ज्ञान, प्रेम, श्रद्धा और विश्वास के साथ संपूर्ण हो तो फिर चाहे यंत्रवत आप पांव नहीं भी छूते लेकिन आप की श्रद्धा और प्रेम हृदय से होगा और आप उन से द्वेष या लड़ाई नहीं कर पाएंगे। अर्जुन के अंदर ज्ञान अभी उपजा है, इसलिए वह ईश्वर के आदि स्वरूप को स्वीकार कर समर्पित भाव से प्रार्थना रहा है। इसलिए परंपराओं का पालन यंत्रवत होने की बजाए ज्ञान और शिक्षा के साथ होना चाहिए, जिस से उस का पालन करने वाले के हृदय में वह अंधविश्वास और भय से यंत्रवत न हो कर, ज्ञान के प्रकाश से युक्त हो और सही प्रकार से पालन किया जाए। परंपराएं समाज को एक नैतिक दिशा में चलाती है किंतु ज्ञान के अभाव में परंपराएं समाज को दूषित और अंधविश्वास में भी धकेल देती है।
अर्जुन आगे स्तुति करते हुए क्या कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.38।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)