।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.36II
।। अध्याय 11.36 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.36॥
अर्जुन उवाच,
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा:॥
“arjuna uvāca,
sthāne hṛṣīkeśa tava prakīrtyā,
jagat prahṛṣyaty anurajyate ca..।
rakṣāḿsi bhītāni diśo dravanti,
sarve namasyanti ca siddha-sańghāḥ”..।।
भावार्थ:
अर्जुन ने कहा – हे अन्तर्यामी प्रभु! यह उचित ही है कि आप के नाम के कीर्तन से सम्पूर्ण संसार अत्यन्त हर्षित होकर आप के प्रति अनुरक्त हो रहा है तथा आसुरी स्वभाव के प्राणी आप के भय के कारण इधर- उधर भाग रहे हैं और सभी सिद्ध पुरुष आप को नमस्कार कर रहे हैं। (३६)
Meaning:
Arjuna said:
Rightly, O Hrisheekesha, the universe is elated and enamoured by your glories. Demons run in all directions out of fear, and the hosts of siddhas bow to you.
Explanation:
Having understood the workings of Ishvara’s universe, Arjuna is in third stage of understanding that all are working under law of Karma. The whole creation is working under set rule, and it cannot be changed or modify on needs or wishes of any person. Arjuna responds with the powerful word “sthaane”, which means everything that is going on is right, everything is in its place. “sthāne”, meaning “it is but apt.” It is but natural that the people of a kingdom who accept the sovereignty of their king delight in glorifying him. As we saw earlier, we tend to question Ishvara every time there is a massive calamity, either at a personal level or at a global level. Or, we sometimes ask Ishvara to let things be a certain way. But when we understand that Ishvara is behind it all and is orchestrating events for the benefit of the entire universe and not just a subset, we too, are compelled to say “sthaane”, it is all right.
In fact, according to vēdānta, only through Viśva rūpa appreciation, we can go to nirguṇam brahma. From ēkarūpa bhakthi, one has to necessarily come to the Viśva rūpa appreciation, the universal law of karma; the law of dharma- adharma. There is no question of skirting that and aham brahmāsmi; that story will not work; and even if you avoid that and come to vēdānta and repeat Aham Brahmāsmi, suddhōsmi, buddhōsmi, etc. you will that on the lips aham brahmāsmi is there; in the heart, fear will be there.
If you want to conquer fear; if you want to conquer insecurity, you have to necessarily expand your mind; appreciate the totality; and see the laws of the creation; not only the physical laws but also the moral laws, which extent not only to the present janma, but which extends to the past janmās and innumerable future janmās, and you should see that as an individual, you cannot escape the law.
With this knowledge, we now know why people in our world are happy and unhappy at the same time. Those who view the world through Ishvara, those who have the vision of Ishvara, take delight in everything and hence they are happy. But those who view the world through their ego- driven vision fear Ishvara’s destructive process, and then become unhappy. Rakshasas or demons run in fear, while siddhas or perfected beings salute Ishvara.
Furthermore, Arjuna understands a wonderful technique by which we can gain immense dispassion towards the world. A child drops his attachment to his toys when he becomes an adult and gets attached to something higher than toys, like his career for instance. So when we develop a strong attachment to Ishvara, when we are enamoured, “anurajjyate”, by Ishvara, we automatically drop our worldly attachments. All we need to do is to direct our senses to Hrisheekesha, the master of the senses.
This shloka and the upcoming ten shlokas are one of the most beautiful prayers to Ishvara ever written.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अब आगे के ग्यारह श्लोक में अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति की गई है। यह अर्जुन की तीसरी प्रतिक्रिया विराट विश्व रूप दर्शन को समझने के बाद की है। निर्गुणाकार परम ब्रह्म स्वरूप परमात्मा के सौम्य स्वरूप से ले कर काल भक्षण भयंकर स्वरूप के दर्शन करने वाला संभवतः अर्जुन की प्रथम व्यक्ति होगा। इसलिये यह स्तुति हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार अत्यंत गूढ़ अर्थ के सम्पूर्ण परमात्मा की स्तुति है। केवल परमात्मा को जानने वाला ही परमात्मा के प्रत्येक कार्य को उचित एवम सही बोल सकता है।
अर्जुन ने ‘स्थाने’ शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है-यह उचित है।
यह स्वाभाविक है कि किसी राज्य की प्रजा अपने राजा का प्रभुत्व स्वीकार कर उसकी महिमा का गुणगान कर प्रसन्न रहती है। यह भी स्वाभाविक है कि जो लोग अपने राजा से शत्रुता रखते हैं वे उसकी उपस्थिति से भयभीत होकर इधर-उधर भागते रहते हैं। राजा के लिए यह भी आवश्यक है कि उसके अनुचर, मंत्री आदि उसके प्रति निष्ठावान हों। अर्जुन भी इसके समरूप वर्णन करते हुए कहता है कि केवल यही उपयुक्त है कि संसार परम प्रभु की महिमा का गान करता है और असुर उनसे भयभीत रहते हैं और संत पुरुष श्रद्धा भक्ति युक्त होकर उनकी आराधना करते हैं।
वस्तुतः, वेदान्त के अनुसार, केवल विश्व रूप प्रशंसा के माध्यम से ही हम निर्गुण ब्रह्म तक जा सकते हैं। एकरूप भक्ति से, व्यक्ति को अनिवार्य रूप से विश्व रूप प्रशंसा, कर्म के सार्वभौमिक नियम, धर्म- अधर्म के नियम तक आना होगा। उस से और अहम् ब्रह्मास्मि से बचने का कोई प्रश्न ही नहीं है; वह कहानी काम नहीं करेगी; और यदि आप उस से बचकर वेदान्त में आते हैं और अहम् ब्रह्मास्मि, शुद्धोस्मि, बुद्धोस्मि आदि दोहराते हैं, तो भी आप पाएंगे कि होठों पर अहम् ब्रह्मास्मि है; हृदय में भय रहेगा।
यदि आप भय पर विजय पाना चाहते हैं; यदि आप असुरक्षा पर विजय पाना चाहते हैं, तो आपको अनिवार्य रूप से अपने मन का विस्तार करना होगा; समग्रता की सराहना करनी होगी और सृष्टि के नियमों को देखना होगा। न केवल भौतिक नियम, बल्कि नैतिक नियम भी, जो न केवल वर्तमान जन्म तक, बल्कि पिछले जन्मों और असंख्य भावी जन्मों तक फैले हुए हैं, और आप को यह देखना चाहिए कि एक व्यक्ति के रूप में, आप सृष्टि का संचालन नहीं कर सकते, यह सृष्टि संपूर्ण ब्रह्मांड को ले कर चलती है, इसलिए किसी एक से कहने से सृष्टि के नियम नहीं बदलते, यहां कर्म फल के सिद्धांत का कानून चलता है, आप चाहे तो प्रायश्चित कर के अपने कर्मो के फल को कम कर सकते है किंतु प्रकृति वही करेगी जो निश्चित है। फिर यदि आप को निमित्त बना कर वह अवसर देती है तो अपने कर्तव्य धर्म का पालन करे, अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त करे, फिर जो भी होता है उसे स्वीकार भी करे। हम सब अपनी नियति को भोगते है और नियति हमारे कर्मों का परिणाम है।
दृश्य यह है कि अर्जुन दोनों हाथ जोड़े हुए, भयकम्पित और विस्मय से अवरुद्ध कण्ठ से भगवान् की स्तुति कर रहा है। यह चित्र अर्जुन की मनस्थिति का स्पष्ट परिचायक है। ग्यारह श्लोकों के स्तुतिगान का यह खण्ड हिन्दू धर्म में उपलब्ध सर्वोत्तम प्रार्थनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। वस्तुत सामान्य लोगों को यह विदित है कि संकल्पना, सुन्दरता, लय और अर्थ की गम्भीरता की दृष्टि से इससे अधिक श्रेष्ठ किसी सार्वभौमिक प्रार्थना की कल्पना नहीं की जा सकती है। अर्जुन जब तक उस विश्वरूप के प्रत्येक रूप को ही देखने में व्यस्त रहा, तब तक इस विशाल रूप के सारतत्त्व अनन्त स्वरूप को वह नहीं पहचान सका। अब इस खण्ड से यह स्पष्ट होता है कि अर्जुन ने विराट रूप के वास्तविक सत्य और अर्थ को पहचानना प्रारम्भ कर दिया था।
ऐसा भी माना गया है कि यह रक्षोघ्न मंन्त्र भी है, जिसे विपत्ति के समय 12 बार पढ़ लेने से एवम गाय के खुर की मिट्टी प्रेत बाधित व्यक्ति को लगा देने से प्रेत बाधा आदि भी ठीक हो जाती है।
हे हृषीकेश, आप की कीर्ति से अर्थात् आप की महिमा का कीर्तन और श्रवण करने से जो जगत् आप के अनुकूल है, वह हर्षित हो रहा है सो उचित ही है। जगत् जो भगवान् में अनुराग एवम प्रेम करता है, यह उसका अनुराग करना उचित ही है किन्तु जो प्रतिकूल राक्षसगण भय से युक्त हुए सब दिशाओं में भाग रहे हैं, यह भी ठीक ठिकाने की ही बात है। एवं समस्त कपिलादि सिद्धों के समुदाय जो नमस्कार कर रहे हैं, यह भी उचित ही है।
अर्जुन ही एक मात्र विराट स्वरूप का दर्शन कर रहा है, अतः इस स्तुति में उसे जो कुछ विराट स्वरूप में दिख रहा है उस के कारण उसे यह बोध हो रहा है कि अन्य देव, ऋषि आदि सम्पूर्ण जगत इस स्वरूप को देख रहे है, जब कि यह परमात्मा की भक्ति की यह प्रक्रिया संसार मे नित्य होने वाली प्रक्रिया मात्र है। यह सब विराट स्वरूप को देख कर नहीं हो रही। अर्जुन के सामने जो विराट विश्व रूप है, वह कालातीत है, जिस मे भूत- वर्तमान- भविष्य जैसा कुछ नही है, इसलिये उसे सम्पूर्ण जगत, देवता, ऋषिगण आदि परब्रह्म की स्तुति करते दिख रहे है। दैवी प्रवृति से युक्त लोग, परमात्मा की स्तुति कीर्तन, भजन, श्रुतियों से कर के अपने मोक्ष की कामना कर रहे है और असुरवृति के लोग डरे हुए लग रहे है।
अर्जुन आगे कहते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.36।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)