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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.34II

।। अध्याय      11.34 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.34

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्‌ ।

मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्‌ ॥

“droṇaḿ ca bhīṣmaḿ ca jayadrathaḿ ca

karṇaḿ tathānyān api yodha-vīrān..।

mayā hatāḿs tvaḿ jahi mā vyathiṣṭhā,

yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān”..।।

भावार्थ: 

द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और भी अन्य अनेक मेरे द्वारा मारे हुए इन महान योद्धाओं से तू बिना किसी भय से विचलित हुए युद्ध कर, इस युद्ध में तू ही निश्चित रूप से शत्रुओं को जीतेगा। (३४)

Meaning:

Drona, Bheeshma and Jayadratha, Karna and other brave warriors have also been slain by me. So you kill them, do not be disturbed. Fight, and you will conquer your enemies in battle.

Explanation:

By this time, Arjuna’s mind had lost all sense of composure. Never in his life had he gone through so many unimaginable visions in such a short span of time. First, he saw Ishvara’s pleasant cosmic form, then the fearful cosmic form, then he came to know the real nature of Ishvara’s destructive power, and finally he came to know that every action in the universe was determined by Ishvara. Shri Krishna recognized this state of mind and gave clear, simple and precise instructions to Arjuna: do not worry, just fight.

What was the source of Arjuna’s worry? Many of the generals on the side of the Kauravas were heretofore undefeated in combat. Even since the war began, Arjuna was fearful of facing the most prominent warriors in the Kaurava army. Shri Krishna pointed them out here, maintaining the hierarchy of seniority: their guru Drona, the grandsire Bheeshma, Jayadratha who was protected by a divine boon, and Karna who was equal to Arjuna in prowess.  Jayadrath had the boon that whoever caused his head to fall on the ground would instantly have his own head burst into pieces. Karn had a special weapon called “Śhakti” given to him by Indra, which would slay anyone against whom it was used. But it could only be used once, and so Karn had kept it to take vengeance on Arjun. Dronacharya had received the knowledge of all weapons and how to neutralize them from Parshuram, who was an Avatār of God. Bheeshma had a boon that he would only die when he chose to do so. And yet, if God wished them to die in the battle, then nothing could save them. He mentioned each of their names, implying that their fate was already sealed. There was no point in Arjuna worrying any more.

So then, what could Arjuna do? Shri Krishna said: just fight. Since all these mighty warriors have already killed by me, you kill them, not out of a sense of enmity or superiority, but out of a sense of performing your duty as a karma yogi. You just be an instrument of Ishvara, that is the idea. Put the teaching of the Geeta into practice. If you perform actions in this manner, you will vanquish your enemies.

There is a saying: vindhya na īndhana pāiye, sāgara juai na nīra parai upas kuber ghara, jyo vipakha raghubīra [v11]

“If Lord Ram decides to be against you, then you may live in the Vindhyachal forest, but you will not be able to get firewood to light a fire; you may be by the side of the ocean, but water will be scarce for your usage; and you may live in the house of Kuber, the god of wealth, but you will not have enough to eat.” Thus, even the biggest arrangements for security cannot avert a person’s death if God has willed it to happen.

Sanjaya stepped in to describe Arjuna’s reaction in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

यहाँ भगवान् कौरव सेना उन अजेय योद्धाओं के नामोल्लेख कर के बताते हैं कि ये वीर पुरुष भी सर्वभक्षक काल के द्वारा मारे जा चुके हैं। द्रोणाचार्य अर्जुन के गुरु थे, जिन्होंने उसे धनुर्विद्या सिखायी थी। उन के पास कुछ विशेष शस्त्रास्त्र थे और अर्जुन उनका विशेष रूप से आदर और सम्मान करता था। भीष्म पितामह को स्वेच्छा से मरण प्राप्ति का वरदान मिला हुआ था तथा उनके पास भी अत्यन्त शक्तिशाली दिव्यास्त्र थे। एक बार उन्होंने वीर परशुराम तक को धूल चटा दी थी। जयद्रथ की अजेयता का कारण उस के पिता द्वारा किया जा रहा तप था। उन्होंने यह दृढ़ निश्चय किया था कि जो कोई भी व्यक्ति मेरे पुत्र जयद्रथ का शिर पृथ्वी पर गिरायेगा, उस व्यक्ति का सिर भी नीचे गिर पड़ेगा। कर्ण से भय का कारण यह था कि उसे भी इन्द्र से दिव्यास्त्र प्राप्त हुआ था। वह परशुराम जी शिष्य था और युद्ध कला में किसी भी मायने में अर्जुन से कम नही था। उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट होता है कि भगवान् ने इन चारों पुरुषों का ही विशेषत उल्लेख क्यों किया है। ये महारथी लोग भी काल का ग्रास बन चुके थे, अत अर्जुन को चाहिए कि वह राज सिंहासन की ओर अग्रसर हो और सम्पूर्ण वैभव का स्वामी बन जाये।

परमात्मा कहते है तुम्हारी दृष्टि में गुरु द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य जितने प्रतिपक्ष के नामी शूरवीर हैं, जिन पर विजय करना बड़ा कठिन काम है, उन सबकी आयु समाप्त हो चुकी है अर्थात् वे सब कालरूप मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। उन्होंने युद्ध के परिणाम का निर्णय पहले ही कर रखा है लेकिन वह चाहते हैं कि अर्जुन उनकी इच्छा को पूरा करने का माध्यम बने और युद्ध में विजयी होकर यश प्राप्त करे। जिस प्रकार भक्त भगवान की महिमा मंडित करता है। उसी प्रकार से भगवान की प्रकृति भी अपने भक्त की प्रशंसा करने की होती है। इसलिए श्रीकृष्ण युद्ध में मिलने वाली विजय का श्रेय अपने ऊपर नहीं लेना चाहते थे। उनकी यह इच्छा थी कि लोग यह कहें कि “अर्जुन ने अति शौर्य के साथ युद्ध लड़ते हुए पांडवों की विजय सुनिश्चित की।” इसलिये हे अर्जुन मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरों को तुम मार दो।

इसलिए कहा जाता है: विंध्या न ईंधन पाईये, सागर जुदाई न नीर। पराई उपस कुबेर घर, ज्यों विपक्ष रघुबीर।।

अगर भगवान राम किसी के विरुद्ध होने का निर्णय कर लें तब तुम संभवतः विंध्याचल वन में निवास करने लगो किन्तु वहाँ तुम्हें जलाने के लिए लकड़ियाँ प्राप्त नहीं होगी अगर तुम समुद्र के किनारे भी रहो तब भी तुम्हें अपनी आवश्यकता के लिए जल उपलब्ध नहीं होगा। यदि तुम धन के देवता कुबेर के घर में वास करते हो तब तुम्हें पर्याप्त भोजन भी नहीं मिल सकता।” यहाँ तक कि अगर भगवान किसी को मारना चाहें तब उस व्यक्ति को मृत्यु से बचाने के लिए कितने ही कड़े सुरक्षा प्रबन्ध भी क्यों न कर लिए जाएँ तब भी उसकी मृत्यु को टाला नहीं जा सकता।

अर्जुन पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्य को मारने में पाप समझते थे, यही अर्जुन के मन में व्यथा थी। अतः भगवान् कह रहे हैं कि वह व्यथा भी तुम मत करो अर्थात् भीष्म और द्रोण आदि को मारने से हिंसा आदि दोषों का विचार करने की तुम्हें किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। तुम अपने क्षात्रधर्म का अनुष्ठान करो अर्थात् युद्ध करो। इस का त्याग मत करो।

अर्जुन मोह से ग्रसित है, इसलिए भगवान कहते है कि यह बहुत कठिन है; आपको ऐसा करना ही होगा; क्या? देखते ही गोली मार देने का आदेश; द्रोण, आप के अपने गुरु ठीक हैं; लेकिन दुर्भाग्य से वे अधार्मिक पक्ष में हैं; इसलिए यह कड़वा है; यह दर्दनाक है, लेकिन आपको कभी भी भावनाओं के द्वारा नहीं जाना चाहिए; आपको मनोमय कोष के द्वारा नहीं जाना चाहिए, आपको विज्ञान माया कोष के द्वारा जाना होगा। विवेक को आपके कार्य पर हावी होना चाहिए; आवेग पर नहीं।

हे अर्जुन! तुम इस युद्ध में भाग लो; क्योंकि तुम जन्मजात क्षत्रिय हो। यदि तुम ब्राह्मण हो, तो तुम सब से दूर जाकर कहीं बैठ सकते हो और जप आदि कर सकते हो; ये सब बातें, क्षत्रिय का कर्तव्य क्या है; पुलिसकर्मी। तुम यह नहीं कह सकते कि मैं बंदूक या लाठी नहीं छूता; सेना के लोग काम के हिस्से के रूप में ऐसा करते हैं; एक क्षत्रिय के रूप में तुम्हारा कर्तव्य है क्षतात् त्रायते अर्थात क्षत्रिय; समाज को अधर्म से बचाना क्षत्रिय का कर्तव्य है; क्षथम का अर्थ है अधर्म।

अर्जुन को संदेह भी था, इसलिए उस में कहा भी कि मैं यह भी नहीं जानता कि हम उन्हें हराएंगे या वे हमें हराएंगे; कृष्ण कहते हैं कि तुम युद्ध जीतोगे; इसलिए नहीं कि तुम शक्तिशाली हो; बल्कि इसलिए कि धर्म तुम्हारे पक्ष में है।

वस्तुतः यह सृष्टि परब्रह्म के संकल्प से उत्पन्न हुई, जिस का संचालन प्रकृति योगमाया से करती है। इस कि पटकथा, सब का रोल, समस्त क्रियाएं प्रकृति कर्म-विपाक से सुनिश्चित करती हुई चलती है। जो इस तथ्य को जानता है, वो उस दर्शक के समान है, जिसे चलचित्र के अंत का पता है, अतः वह मध्य में हुई किसी भी परेशानी या योग से विचलित नही होता। परमात्मा को इस युद्ध के अंत का पता है, इसलिये वह अर्जुन को आश्वत करते हुए, उपरोक्त कथन कहते है।

साधक को अपने साधन में बाधक रूप से नाशवान् पदार्थों का, व्यक्तियों का जो आकर्षण दीखता है, उस से वह घबरा जाता है कि मेरा उद्योग कुछ भी काम नहीं कर रहा है अतः यह आकर्षण कैसे मिटे भगवान् का यह आश्वासन कि तुम्हारे को अपने साधन में जो वस्तुओँ आदि का आकर्षण दिखायी देता है और वृत्तियाँ खराब होती हुई दीखती हैं, ये सब के सब विघ्न नाशवान् हैं और मेरे द्वारा नष्ट किये हुए हैं। इसलिये साधक इन को महत्त्व न दे। दुर्गुण, दुराचार दूर नहीं हो रहे हैं,  क्या करूँ ? ऐसी चिन्ता होने में तो साधक का अभिमान ही कारण है और ये दूर होने चाहिये और जल्दी होने चाहिये,  इस में भगवान् के विश्वास की, भरोसे की, आश्रय की कमी है। दुर्गुण, दुराचार अच्छे नहीं लगते, सुहाते नहीं, इसमें दोष नहीं है। दोष है चिन्ता करने में। इसलिये साधक को कभी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।

इसलिये स्वार्थ और अहंकार का त्याग कर के निष्काम भाव कर्तव्यपालन करने से काल स्वयं साधक की सहायता को खड़ा हो जाता है।

पूर्व के भाग्यवाद को आगे बढ़ाए तो यह समझ लेना होगा  कि भविष्य में कर्मो के फल ही भोगने होते है जिसे भाग्यवाद अर्थात भगवान को कोसते हुए  भोगे या नियतिवाद अर्थात पुरुषार्थ द्वारा सात्विक और कर्तव्य कर्म को करते हुए अपने भाग्य खुद बनाए। जो पुरुषार्थ करते है उन के सामर्थ्य को देख कर ही भाग्य उन्हे निमित्त भी बनाता है। जीव का अपने कर्मो पर अधिकार अपने भाग्य को लिखने जैसा है, क्योंकि संसार तो भगवान अर्थात काल के अंतर्गत कार्य करता है।

प्रश्न यह भी है कि प्रेरित करने के साथ परमात्मा अर्जुन को  कीर्ति प्राप्ति एवम सत्ता का सुख भोगने के लिए भी कहते है। कर्म का फल अवश्य मिलता है, चाहे किसी भी उद्देश्य पूर्ति के साथ किया जाए, यदि कर्म निषेध कर्मो का हो तो पाप लगता ही है। इस से तभी बचा जा सकता है, जब निष्काम भाव से किया जाए। ऐसे ही कर्मो के फल स्वरूप सांसारिक संसाधन भी प्राप्त होते एवम लोक कीर्ति भी। अच्छे कर्मों के साथ यह यश के साथ होती है, जिस का उपभोग करना हर जीव का नैसर्गिक अधिकार है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे जीने के स्वादिष्ट एवम पौष्टिक भोजन करना इस स्वादिष्ट भोजन के लिये जीना। वस्तुतः विकारों के अंत के साथ परमात्मा की स्थिति ही वास्तविक समृद्धि है, जो स्थिर सम्पति है, जिस का विनाश नही होता और यही कर्म योगी का राजयोग होता है।

व्यवहार में परमात्मा पर श्रद्धा, विश्वास और प्रेम रख कर कोई निष्काम भाव से अपने कर्तव्यधर्म  का पालन करता है, तो प्रकृति भी उस के असाध्य एवम दुर्गम रुकावटो को खत्म करती है। हमारे मन मे कपट, द्वेष, ईर्ष्या या स्वार्थ न हो तो हम यदि अपने कार्य पर ध्यान दे कर कर्म करते जाए, तो मार्ग की वो बाधाए भी प्रकृति द्वारा दूर कर दी जाती है, जिन्हें हम सामान्य तौर पर सोच भी नही सकते। जिन्हें हम मोह, कामना, लोभ से छोड़ या हरा नही सकते, वह भी समय के अनुसार स्वतः ही हटती जाती है। इसलिये कहा जाता है कि अपने काम पर ध्यान दो, बाकी भगवान पर छोड़ दो। वह तुम्हे तुम्हारे कर्मो के अनुसार फल भी देगा।

भगवान निष्काम कर्मयोगी को अपने कर्तव्य पालन हेतु संसार से पलायन या विरक्ति का संदेश नही देती, यही भगवान अर्जुन को भी कह रहे है। भगवान द्वारा कर्तव्य पालन करने के आह्वान को सुनकर अर्जुन ने क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की। इस की व्याख्या अगले श्लोक में की गयी है।

।। हरि ॐ तत सत।। 11.34।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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