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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.32II

।। अध्याय      11.32 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.32

श्रीभगवानुवाच

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।

ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥

“śrī-bhagavān uvāca,

kālo ‘smi loka- kṣaya- kṛt pravṛddho,

lokān samāhartum iha pravṛttaḥ..।

ṛte ‘pi tvāḿ na bhaviṣyanti,

sarve ye ‘vasthitāḥ pratyanīkeṣu yodhāḥ”..।।

भावार्थ: 

श्री भगवान ने कहा – मैं इस सम्पूर्ण संसार का नष्ट करने वाला महाकाल हूँ, इस समय इन समस्त प्राणीयों का नाश करने के लिए लगा हुआ हूँ, यहाँ स्थित सभी विपक्षी पक्ष के योद्धा तेरे युद्ध न करने पर भी भविष्य में नही रहेंगे। (३२)

Meaning:

Shree Bhagavaan said:

I am time, the seasoned annihilator of the worlds, engaged in destroying all these people. Even without your (effort), all those hostile warriors will not exist in the future.

Explanation:

After a long wait, Shri Krishna, as the cosmic form, spoke to Arjuna, revealing himself and his mission of destroying the universe and all the living beings residing in it.   When Oppenheimer, who was a part of the first atom bomb project, witnessed the destruction of Hiroshima and Nagasaki, he quoted this verse of Shree Krishna in the following manner: “Time…I am the destroyer of all the worlds.”  Shri Krishna declared himself to be “kaala”, which means time as well as death. They mean the same thing because in time, everything dies. He also used the word “pravruddha” which means mature or seasoned, indicating that he was well versed in the task of destruction, that it wasn’t a onetime thing.

Our mind works within the gamut of space and time, therefore it is difficult to comprehend what Arjuna saw. He probably saw the past, the present and the future happening in an instant, all at the same time. With this vision, Shri Krishna was able to show the future to Arjuna. The Mahaabharata war had ended, leaving few Kaurava warriors alive. In other words, Shri Krishna himself had determined that the war would be won by the Paandavas. They fought like any other army would, but the real work behind the scenes was done by Shri Krishna.

That is why in Vēdānta; we talk about two planes of reality; one is called vyāvahāriha satyam and other is called pārāmārthika satyam; Vyāvahāriha satyam is a plane in which time principle is integral, intrinsic, inherent feature aspect and therefore in vyāvahāriḥ plane and everything will have corresponding opposite. So, arrival- departure, growth- decay; union- disassociation; birth- death; it is an integral part which is called vyāvahāriḥ satyam. Vēdāntins advice is what; with regard to vyāvahāriḥ satyam, we have only two options; either you accept it totally or you reject it totally.

And the other one is called pārāmārthika satyam where there is no time, there is no space and therefore there is no pairs of opposite also; anyathra dharmāt; anyathra adharmāt; dharmam is not; adharmam is also not there; good is not there; bad is also not there; birth is not there; death is also not there; na jāyatē mriyatē vā kadācit nāyaṃ bhūtvā bhavitā vā na bhūyaḥ.

Many of us sometimes think, what will happen if I stop working one day? Lest we attach undue importance to our actions and puff up our ego, Shri Krishna gives us a lesson in humility. He reveals that ultimately, it is he who is running the show. If he wants to do something, he will do it with whatever means available, even if it means generating a thought in one person or in a million people.

Now, if we hear this, we may think, why should I do anything at all? I can retire right away since it is ultimately Ishvara who is doing everything. Arjuna probably had the same thought. He would have wondered what the need for him was to fight, reinforcing the argument he made in the first chapter when we wanted to run away from the war.

And then Krishna gives the warning. Arjuna, this is going to happen whether you decide to start the war or whether you decide against the war. Because I have decided to destroy; whether you want to cooperate with Me or not; if you are not there; like if one tyre is punctured; what do you do; you do not stop the journey; with another tyre you proceed.

Even if you are not there; even without your involvement in the Mahābhāratha battle. All these people have to disappear. The time has come for the world to be vacated of a huge mass of people; and who are they? All the people; the ocean of humanity that is in front of you. Your site warrior on dharmam path and opposite site warrior are Adharmam site. But kaal works its own principle and therefore, people shall dies both sites. Times when starts destroying the creation, it is not created discrimination of good and bad.

It is cleared warning that ultimate, doer is GOD, He does, and person thinks that he is doing like Arjun who in first lesson misunderstood that he is going to kill his relatives.

Anticipating this, Shri Krishna makes a bold statement in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अर्जुन ने प्रश्न किया था कि उग्र रूपवाले आप कौन हैं एवम मैं आप की प्रवृत्तिको नहीं जान रहा हूँ। अर्जुन ने गीता के प्रारंभ में यह कह दिया था कि मै युद्ध मे इन सब का वध नहीं करूंगा। अतः अपने विराट स्वरूप को समेट कर भगवान कहते है।

श्रीकृष्ण सर्वशक्तिशाली काल और ब्रह्माण्ड के विनाशक के रूप में अपनी प्रकृति प्रकट करते हैं। ‘काल’ शब्द की उत्पत्ति ‘कलयति’ से हुई है जिसका सामानार्थक शब्द गणयति है। इसका अर्थ है “काल का स्मरण करते रहे हैं।” सृष्टि की सभी घटनाएँ काल के गर्भ में समा जाती है।

‘ओपन हाइमर’ जो प्रथम अणु बम बनाने की योजना के सदस्य थे और हिरोशिमा और नागासाकी के विनाश के साक्षी थे। उन्होंने श्रीकृष्ण के इस श्लोक को निम्न प्रकार से उद्धृत किया है-‘काल’-मैं समस्त जगत का विनाशक हूँ। काल सभी जीवों के जीवन की गणना और उसे नियंत्रित करता है। वह यह निश्चित करेगा कि कब भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महानुभावों के जीवन का अन्त होगा। यह अर्जुन के युद्ध में भाग न लेने के पश्चात भी युद्ध भूमि की व्यूह रचना में खड़ी शत्रु सेना का विनाश कर देगा क्योंकि भगवान की संसार निर्माण की विशाल योजना के अनुसार ऐसा होना भगवान की इच्छा है।

मैं सम्पूर्ण लोकों का क्षय (नाश) करने वाला बड़े भयंकर रूप से बढ़ा हुआ अक्षय काल हूँ एवम मैं इस समय दोनों सेनाओं का संहार करने के लिये ही यहाँ आया हूँ। इस से तेरे बिना भी ( अर्थात् तेरे युद्ध न करनेपर भी ) ये सब भीष्म, द्रोण और कर्ण प्रभृति शूरवीर योद्धालोग जिन से तुझे आशङ्का हो रही है एवं जो प्रतिपक्षियों की प्रत्येक सेना में अलग अलग डटे हुए हैं, नहीं रहेंगे।

फिर कृष्ण चेतावनी देते हैं। अर्जुन, यह तो होने ही वाला है, चाहे तुम युद्ध शुरू करने का निर्णय लो या युद्ध के विरुद्ध। क्योंकि मैंने विनाश करने का निर्णय लिया है; चाहे तुम मेरा सहयोग करना चाहो या नहीं; यदि तुम वहाँ नहीं हो; जैसे यदि एक टायर पंचर हो जाए तो तुम क्या करोगे। तुम यात्रा नहीं रोकोगे, दूसरे टायर के साथ तुम आगे बढ़ोगे। इसलिए कृष्ण अर्जुन को चेतावनी देते हैं, भले ही तुम वहाँ न हो, महाभारत युद्ध में तुम्हारी भागीदारी के बिना भी, इन सभी लोगों को नष्ट हो जाना है। समय आ गया है कि दुनिया से लोगों का एक विशाल समूह खाली हो जाए; और वे कौन हैं?  सभी लोग; मानवता का सागर जो आपके सामने है।

प्रत्येक योद्धा अर्थात् दोनों सेनाओं में उपस्थित सैनिक; इस में कोई संदेह नहीं कि अपनी अपनी सेना धर्म के लिए खड़ी है और विपरीत सेना अधर्म के लिए खड़ी है; यह धर्मयुद्ध ही है, किन्तु फिर भी, धर्म के पक्ष में होने पर भी; धर्म के साथ होने पर भी; दोनो ओर की सेना में भी बहुत से लोगों को मरना पड़ेगा। इसीलिए दोनों ओर के सैनिकों को मरना ही है, कोई रास्ता नहीं है। प्रारब्ध समाप्त हो गया है और इसलिएअर्जुन ध्यान से देखो।

किसी वस्तु की एक अवस्था का नाश किये बिना उसका नवनिर्मांण नहीं हो सकता। निरन्तर नाश की प्रक्रिया से ही जगत् का निर्माण होता है। बीते हुये काल के शवागर्त से ही वर्तमान आज की उत्पत्ति हुई है। इस रचनात्मक विनाश के पीछे जो शक्ति दृश्य रूप में कार्य कर रही है वही मूलभूत शक्ति है जो प्राणियों के जीवन के ऊपर शासन कर रही है। 

एक टूटे हुए पुल को या जीर्ण बांध को अथवा प्राचीन इमारत को तोड़ना उक्त बात के उदाहरण हैं। उन्हें तोड़कर गिराना दया का ही एक कार्य है, जो कोई भी विचारशील शासन समाज के लिए कर सकता है। यही सिद्धांत यहाँ पर लागू होता है।इस उग्र रूप को धारण करने में भगवान् का उद्देश्य उन समस्त नकारात्मक शक्तियों का नाश करना है जो राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन को नष्ट करने पर तुली हुई हैं। भगवान् के इस कथन से अर्जुन के विजय की आशा विश्वास में परिवर्तित हो जाती है। परन्तु भगवान् इस बात को भी स्पष्ट कर देते हैं कि पुनर्निर्माण के इस कार्य को करने के लिए वे किसी एक व्यक्ति या समुदाय पर आश्रित नहीं है। इस कार्य को करने में एक अकेला काल ही समर्थ है। वही समाज में इस पुनरुत्थान और पुनर्जीवन को लायेगा। सार्वभौमिक पुनर्वास के इस अतिविशाल कार्य में व्यष्टि जीवमात्र भाग्य के प्राणी हैं। उन के होने या नहीं होने पर भी काल की योजना निश्चित ही कार्यान्वित होकर रहेगी। राष्ट्र के लिए यह पुनर्जीवन आवश्यक है मानव के पुनर्वास की मांग जगत् की है। भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि तुम्हारे बिना भी इन भौतिकवादी योद्धाओं में से कोई भी इस निश्चित विनाश में जीवित नहीं रह पायेगा।महाभारत की कथा के सन्दर्भ में, भगवान् के कथन का यह तात्पर्य स्पष्ट होता है कि कौरव सेना तो काल के द्वारा पहले ही मारी जा चुकी है और पुनरुत्थान की सेना के साथ सहयोग करके अर्जुन, निश्चित सफलता का केवल साथ ही दे रहा है।इसलिए सर्वकालीन मनुष्य के प्रतिनिधि अर्जुन को यह उपदेश दिया जाता है कि वह निर्भय होकर अपने जीवन में कर्तव्य का पालन करे।

समस्त कार्य प्रकृति ही करती है, जीव निमित्त मात्र है, जिस ने सत-रज-तम के गुणों के आधार पर जो भी व्यक्तित्व बना रखा है, प्रकृति भी उसी के आधार पर अपना निमित्त तलाशती है। अच्छे और लोकसंग्रह के लिये कर्म करनेवालो के लिये प्रकृति विश्व मे उच्च स्थान तक ले जाने का मार्ग भी प्रशस्त करती है, इसलिये यह कहा गया कि कर्म पर तुम्हारा अधिकार है, उस के फल पर नही। अच्छे कर्म करते रहने से जो भी पात्रता या व्यकितत्व तैयार होता है, उसी के आधार पर प्रकृति निमित्त बना कर जीव को अवसर देती है। ज्ञानी पुरुष जानता है कि वह कुछ नही कर रहा, जो कुछ कर रही है वह प्रकृति है, किन्तु अज्ञानी पुरुष अहम के कारण कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव मे फस कर कर्मफलों को भोक्ता है।

मृत्यु लोक का प्राणी जरा सा सामर्थ्यवान होते ही स्वयं को यम से बढ़ा एवम ईश्वर की सृष्टि को तुच्छ समझने लगता है, किन्तु जब ईश्वर अपने विराट रूप में सामने आता है तो ही उसे अपने बौने पन का आभास हो जाता है। आज कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया की ताकत को उस की औकात  दिखा दी।

परमात्मा ने विराट विश्वरूप में अर्जुन को युद्ध का भविष्य दिखाने के महाकाल स्वरूप दिखाया, जो परमात्मा के अनन्त स्वरूपो में एक अंश का मायविक स्वरूप था, जिस में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि युद्ध मे मृत्यु को प्राप्त योद्धा महाकाल के ग्रास बन रहे है, उन्हें जो मारने वाला है, वह मात्र निमित्त है। भविष्य निश्चित और तय है। कर्म के अधिकार में यदि जिसे निमित्त तय किया है, वह यदि इनकार भी कर दे, तो भी महाकाल अपना कार्य करता रहेगा।

इसीलिए वेदान्त में हम वास्तविकता के दो स्तरों की बात करते हैं। एक को व्यवहारिक सत्यम कहते हैं और दूसरे को पारमार्थिक सत्यम कहते हैं। व्यवहारिक सत्यम एक ऐसा स्तर है जिस में समय सिद्धांत अभिन्न, अंतर्निहित, अंतर्निहित विशेषता पहलू है और इसलिए व्यवहारिक स्तर में और हर चीज का एक संगत विपरीत होगा। इसलिए आगमन- प्रस्थान, वृद्धि- क्षय; मिलन- वियोग; जन्म- मृत्यु; यह एक अभिन्न अंग है जिसे व्यवहारिक सत्यम कहते हैं। वेदान्ती की सलाह यही है कि व्यवहारिक सत्यम् के सम्बन्ध में हमारे पास दो ही विकल्प हैं; या तो आप इसे पूर्णतः स्वीकार कर लें या पूर्णतः अस्वीकार कर दें।

दूसरे को पारमार्थिक सत्यम कहते हैं, जहाँ समय नहीं है; स्थान नहीं है; और इसलिए विपरीत युग्म भी नहीं है। अच्छा नहीं है तो बुरा भी नहीं है। जन्म नहीं है तो मृत्यु भी नहीं है।

इसलिए या तो पारमार्थिक के लिए वोट करें और व्यवहार को पूरी तरह से अस्वीकार करें या आप व्यवहार को पूरी तरह से स्वीकार करना सीखें। एक बात पूर्ण अस्वीकृति के लिए भी आपको मानसिक शक्ति की आवश्यकता होती है; पूर्ण त्याग के लिए मानसिक शक्ति की आवश्यकता होती है। आपको सब कुछ त्यागना होगा। इसलिए शत्रु भी त्यागते हैं, हम खुशी से करते हैं।लेकिन वेदान्त कहता है, मित्रों को भी त्यागें, रोगों को त्यागें, तो स्वास्थ्य को भी त्यागें। वियोग को त्यागें तो संगति को भी त्यागें। मृत्यु को त्यागें तो जन्म को भी त्यागें। पूर्ण त्याग के लिए आंतरिक शक्ति की आवश्यकता होती है; पूर्ण स्वीकृति के लिए भी आंतरिक शक्ति की आवश्यकता होती है। दोनों के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है; वेदान्त कहता है कि शक्ति आपको केवल एक स्रोत से मिलती है। और वह है आत्म- ज्ञान।

इसलिये परमात्मा अर्जुन को जो संदेश देते है, आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 11.32।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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