।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.31II Additional II
।। अध्याय 11.31 II विशेष II
।। व्यक्ति की अभिलाषा।। विशेष – 11.31 ।।
अर्जुन का विश्वरूप दर्शन करने की अभिलाषा थी किन्तु उस ने जो कुछ भी विश्वरूप में देखा वो उस की कल्पना के बाहर था। युद्ध भूमि में उस को परमात्मा ने कर्म योग, कर्म सन्यास योग, ज्ञान योग एवम भक्ति योग का पूर्ण ज्ञान दिया। उस की जिज्ञासा को शांत करने के अपनी सम्पूर्ण विभूतियां भी बताई। उस के मोह, भय , ज्ञान के अज्ञान एवम अहम को नष्ट भी किया। वह इस सब को विश्वरूप में दर्शन करना चाहता था। उस की मानवीय अभिलाषा भविष्य को भी जानने की थी। उस की रुचि युद्ध के परिणाम पर अधिक थी।
यह सब हम की स्थिति है, हमारा निर्माण जिस परिस्थितियों में हुआ है, हम ने अपने विचारों की एक सुरक्षा कवच अपने चारों ओर खड़ी कर ली है, वही हमारा वास्तविक व्यक्तित्व है जिस में हम अपना कार्य करते है। जीवन के विभिन्न पहलू में नैतिकता, नियम, स्वार्थ, पद, लोभ आदि अनेक तत्व होते है जो हमारे निर्णय को प्रभावित करते है। इसलिये जब भी हम कोई उत्तम गुण या पढ़ते या देखते है उन्हें इन्ही सब से तौलते है, फिर वही करते है जिस में सर्वप्रथम स्थान स्वार्थ, फिर क्रमशः पद, लोभ, नियम और नैतिकता का होता है, जबकि उत्तम गुण में इस से विपरीत होना चाहिए। व्यवहारिक जीवन मे स्वार्थ और लोभ को प्रथम स्थान में रख कर कार्य करने से कोई भी व्यक्ति निष्काम नही हो सकता। नैतिकता आचरण में झलकती है। पद और प्रतिष्ठा को व्यक्तित्व और सामर्थ्य चाहिए, जो निष्काम कर्मयोगी के पीछे पीछे चलते है, निष्काम कर्मयोगी इन के पीछे पीछे नही चलता।
हम यह कह सकते है कि गीता या जो कुछ भी धार्मिक पुस्तक हम पढ़ते है या अपने सात्विक पक्ष को हम जितना ऊपर उठाते है, उस मे हमारी धारणा या अभिलाषा भविष्य में हमारे द्वारा ही एक चित्रित स्वरूप में स्थिर हो जाती है। परमात्मा जन जन, कण कण और हर क्षण क्षण में है किंतु हम उसे विशिष्ट स्वरूप में ही देखना चाहते है। यह विशिष्ट स्वरूप सौम्य ही होना चाहिये, आत्म शांति का होना चाहिए। यही विशिष्टा द्वैत है, जिस में हम अपने अहम के साथ परमात्मा में विलीन होना चाहते है।
हम सभी गीता की प्रथम बार नही पढ़ रहे। गीता लगभग संसार की सभी भाषा मे उपलब्ध है, इस पर सब से अधिक मीमांसा और विवेचना की गई है। मेरे भेजने से ले कर पढ़ने वालों तक अपने अपने अहम में है और हमारी दुनिया यही मृत्यु लोक ही है, क्योंकि कर्म का अधिकार इसी लोक में मनुष्य योनि को प्राप्त है। हम अपना कल्याण मृत्यु लोक में ही उच्चस्तर पर पहुँच कर चाहते है। किन्तु अहम, स्वार्थ और लोभ में हम परमात्मा भी अपनी अभिलाषा के ही अनुरूप ही चाहते है, इसलिये गीता का अध्ययन भी अपनी सुविधा के अनुरूप करते है। इसलिये भविष्य का दर्शन हमेशा भय उत्पन्न करने वाला ही होता है।
अर्जुन की भांति यदि भविष्य का कुछ पता भी चले तो भी विश्वास पैदा नही होता और जो कुछ घटित होने वाला है तो उस का अनुमोदन भी परमात्मा से चाहते है। निष्काम होना नही चाहते निष्काम होने का स्वांग जरूर है।
जीवन लक्ष्य प्राप्ति का कठिन मार्ग है, कर्मयोगी ही निष्काम हो कर लक्ष्य का निमित बनता है, यदि वह न चाहे तो भी वही होगा क्योंकि नियति ने सब चलचित्र की भांति सभी कुछ लिख रखा है। नायक बनो या मत बनो, काल किसी के लिये नही रुकता। गीता अध्ययन भी एक अवसर है, नायक बन कर निष्काम योगी होने का, किन्तु होना या न होना यह निर्भर है, गीता अध्ययन के बाद आत्मसात करने पर।
प्रकृति को कार्य करने के लिये किसी न किसी जीव को निमित्त तय करना ही होता है, वह जीव के कर्मो के अनुसार निमित्त को तलाश कर के अपना कार्य करती है। इसलिये यदि हम अपने कर्म को सही दिशा में नियमित रूप से करते रहे तो कोई कारण नही की प्रकृति हम को उस महान कार्य के लिये निमित्त न होने का अवसर दे।
अर्जुन महान योद्धा है, वह सात्विक-राजसी गुणों से युक्त है, इसलिये परमात्मा ने उसे गीता का ज्ञान भी दिया और अपना विराट विश्वरूप भविष्य दर्शन के साथ दिखाया कि समस्त कार्य प्रकृति ही कर रही है, उसे उस के कर्मो के कारण ही निमित्त प्रकृति ने ही चुना है।
इसलिये यह अध्ययन का मनन और चिंतन करते रहे कि अर्जुन ने पूरी गीता को सुनने के बाद भी, अंत मे अपने सर्वश्रेष्ठ योद्धा होने का अभिमान नही छोड़ा। इसलिये गीता अध्ययन करते करते रहने से ही व्यक्तित्व का विकास आप की अभिलाषा के अनुसार स्वतः ही होना शुरू हो जाएगा। अपना ध्यान अपने कर्मो में लगाये और उसे करते है, आप स्वयं आश्चर्य करेंगे कि प्रकृति आप को किस प्रकार् महान कार्य करने के लिये आप के कर्मो के अनुसार निमित्त बनाती है।
विश्व दर्शन में कोशिश सजीव वर्णन करने की ज्यादा रहने से काफी बढ़ा कर लिखा। आशा है सब ने इस का आनन्द लिया होगा।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष – 11.31 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)