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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.31II

।। अध्याय      11.31 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.31

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपोनमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।

विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यंन हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्‌ ॥

“ākhyāhi me ko bhavān ugra-rūpo,

namo ‘stu te deva-vara prasīda..।

vijñātum icchāmi bhavantam ādyaḿ,

na hi prajānāmi tava pravṛttim”..।।

भावार्थ: 

हे सभी देवताओं में श्रेष्ठ! कृपा करके आप मुझे बतलाइए कि आप इतने भयानक रूप वाले कौन हैं? मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आप मुझ पर प्रसन्न हों, आप ही निश्चित रूप से आदि भगवान हैं, मैं आपको विशेष रूप से जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपके स्वभाव को नहीं जानता हूँ। (३१)

Meaning:

Please reveal who you are, with such a fierce form. I bow to you, O best among deities, be gracious. I wish to know you, O ancient being, for I do not understand your purpose.

Explanation:

In the seventh book or canto of the Srimad Bhagavatam, Lord Vishnu incarnates as the Lion Man Narasimha to slay Hiranyakashipu, the king of the demons. He then proceeds to destroy Hiranyakashipu’s army. But his anger is not appeased even after doing so. Extremely scared and worried, the heavenly deities send Prahalada, Lord Vishnu’s devotee, to talk to Narasimha. He first praises Lord Vishnu, after which he asks him several questions. Appeasement, followed by humble questioning, is the best way to pacify an angry person, which is what Arjuna did to the fearful cosmic form of Ishvara in this shloka.

Earlier, Arjun had requested to see the universal form. When Shree Krishna exhibited it, Arjun became bewildered and agitated. Having witnessed an almost unbelievable cosmic spectacle, he now wants to know the very heart of God’s nature and purpose. Hence, he asks the question, “Who are you and what is your purpose?”

Arjuna requested him to reveal who he was at this moment, and what was his mission and purpose for destroying everything. Even in his request there was humility and surrender, because Arjuna asked for the Lord’s grace, knowing fully well that he was the “Aadyam”, the original primal being of this universe.

The word “Aadyam” is used by Sant Jnyaneshwar in the first stanza of his commentary on the Gita known as the Jnyaaneshwari : “Om Namoji Aadya”, meaning “my salutations to that primal being”. This word is extremely significant in the context of this shloka. For someone or something to take on the responsibility of destruction, it has to be present before and after creation. It also has to be beyond all names and forms, because it is names and forms that are created and destroyed. So when the entire universe is dissolved, the same original being creates, sustains and destroys the universe again.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अर्जुन श्री कृष्ण को सखा, गोपाल एवम अभी सारथी के रूप में जानता था। विराट रूप में भगवान् का पहला अवतार विराट् (संसार) रूप में ही हुआ था। अर्जुन विश्वरूप में जिस रूप की कल्पना कर रहे थे उस के विपरीत यह विराट रूप अत्यंत उग्र हो कर कौरव एवम पांडव पक्ष के योद्धाओं को खा रहा है। इतना ही नही, भयंकर स्वरूप में जीभ से चाट चाट कर खा रहे है एवम मुख से ज्वाला निकल रही है।

इस अवसर पर अर्जुन, भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति की पवित्रता एवं दिव्यता को समझ पाता है। उससे अनुप्रमाणित हुआ सम्मान के साथ नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम करता है। अपने आप को भगवान् के चरणों में समर्पित करके उन्हीं से विनती करता है, हे वेदों के जानने योग्य, त्रिभुवन के आदिकरण, विश्ववन्द्य! आप मुझे बताइये कि मेरे अंदर विश्व रूप में जो कल्पना थी, उस के विपरीत यह संसार को निगलने वाले स्वरूप में आप कौन है? मैं आपको जानना चाहता हूँ। 

यह सुविदित तथ्य है कि अध्यात्मशास्त्र के ग्रन्थों में सत्य के ज्ञान के लिए प्रखर जिज्ञासा को अत्यन्त महत्व का स्थान दिया गया है, क्योंकि वही वास्तव में साधकों की प्रेरणा होती है। उस की यह जिज्ञासा अपनी भावनाओं से अतिरंजित है और उस के साथ ही उस में युद्ध परिणाम को जानने की व्याकुलता भी है। यह बात उस के इन शब्दों में स्पष्ट होती है कि मैं आपके प्रयोजन को नहीं जान पा रहा हूँ। उस की जिज्ञासा का अभिप्राय यह है कि इस भयंकर रूप को धारण करके अर्जुन को कौरवों का विनाश दिखाने में भगवान् का क्या उद्देश्य है जब वह किसी घटना के घटने की तीव्रता से कामना कर रहा है और उसके समक्ष ऐसे लक्षण उपस्थित होते हैं, जो युद्ध में उसकी निश्चित विजय की भविष्यवाणी कर रहे हैं,तो वह दूसरों से उसकी पुष्टि चाहता है।

अति या कम आत्मविश्वास में प्रायः व्यक्ति जो देखता है, उस की पुष्टि भी शब्दो से सुनना चाहता है। आंखों से देखा और शब्दों से सुना सत्य अधिक प्रमाणिक होता है। इसलिए यहाँ अर्जुन उसी घटना को देख रहा है, जिसे वह घटित होते देखना चाहता है अत वह स्वयं भगवान् के मुख से ही उसकी पुष्टि चाहता है। इसलिये उसका यह प्रश्न है।सत्य की ही एक अभिव्यक्ति है विनाश। विनाश जिस का विकराल स्वरूप को स्वीकार करना भी अपने आप मे चुनोती है।

ऐसा कहा जाता है वो नियति विकराल रूप ले लेती है, तो वो अच्छा बुरा कुछ नही समझती और संहार में लग जाती है। उसे रोकने के लिए सिर्फ प्रार्थना की जा सकती है। यही हिरण्यकश्यप के वध के बाद नरसिंह को शांत करने के प्रह्लाद ने की थी। माँ काली के क्रोध को शांत करने भगवान शंकर ने की थी और यही अर्जुन ने इस भयानक रुद्र विराट रूप से कर रहे है।

अर्जुन को परमात्मा की सृष्टि की रचना के हेतु पर संदेह उत्पन्न हो रहा था। वह प्रार्थना करते हुए कहता है कि आप ही बताइए, क्योंकि अब मुझे मूलभूत संदेह हो गया है। जब भी जीवन में समस्याएँ आएंगी; हम सभी दार्शनिक और ज्ञानी  बन जाएँगे। उस समय तक गीता का चिंतन आध्यात्मिक नहीं होगा; केवल जब समस्याएँ सताएँगी तो मूलभूत प्रश्न मन में उठने लगता है कि भगवान ने सृष्टि क्यों की? अब तक ये विचार नहीं उठे थे; क्योंकि हम नियमित रूप से भोजन करते और पढ़ते रहते थे। मच्छर कैसे काटता है या कोई समस्या आती है तो ही हम प्रश्न करते है कि भगवान ने इस संसार की रचना क्यों की? क्या वे चुप नहीं रह सकते थे? यदि उन्होंने शब्द ब्रह्म की रचना की ही थी, तो वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं; उन्हें अद्भुत संसार बनाना चाहिए था; सभी  को सदाचारी और सम्पन्न बनाना चाहिए था। केवल संपन्न ही क्यों? सभी को मुक्त भी बनाना चाहिए था। मनो राज्य में अर्ध राज्य क्यों होना चाहिए? तो सभी रत्न क्यों नहीं हो सकते; अद्भुत लोग और सारा संसार अद्भुत है; मच्छर नहीं हैं;  कोई रोग नहीं; भगवान क्यों सृजन करें; और यदि करें भी; तो भोग के साथ दुःख भी क्यों रचें; वे केवल मजा, मजा और मजा ही क्यों नहीं रच सकते और फिर अचानक मृत्यु और वह भी अचानक? अधिमानतः नींद में। तो ये मनुष्य की प्रकृति है, समस्याएं आती हैं, गीता का विचार; उपनिषद का विचार; गुरु का विचार; दो दिनों के बाद हम भूल जाते हैं; पुनः प्रारंभिक स्थिति में आ जाते हैं; इसे शमशान वैराग्य कहा जाता है। कुछ कुछ संदेह की स्थिति में अर्जुन भी विकराल स्वरूप में परमात्मा को देख कर घिरता जा रहा है।आखिर यह दृश्य क्यों उसे दिखाया जा रहा है, जब उस में प्रार्थना में विश्वरूप दर्शन विभूतियों के दर्शन के रूप में मांगे थे।

विश्वरूप दर्शन में अर्जुन की प्रतिक्रिया के तीन चरण की बात हुई थी। जिस में प्रथम आश्चर्य या विस्मय था। द्वितीय यह भय का चरण है। तो इसके साथ ही अर्जुन की प्रतिक्रिया का दूसरा चरण समाप्त हो गया है। अब हमें तीसरे चरण में प्रवेश करना है; लेकिन उससे पहले कृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देने जा रहे हैं।

अव्यक्त, निर्गुणाकार एवम अनन्त स्वरूप का सृष्टि से संहार तक का विश्वरूप दर्शन की कल्पना और सृजन सिर्फ व्यास जी कर सकते है, जिसे हम सब ने भी पढ़ कर देखा।

अर्जुन के इस प्रश्न के साथ विराट स्वरूप के दर्शन समाप्त होते है और भगवान श्री कृष्ण जी उसे क्या कहते है, आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 11.31।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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