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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.29 II

।। अध्याय      11.29 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.29

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।

तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥

“yathā pradīptaḿ jvalanaḿ patańgā,

viśanti nāśāya samṛddha- vegāḥ..।

tathaiva nāśāya viśanti lokās,

tavāpi vaktrāṇi samṛddha- vegāḥ”..।।

भावार्थ: 

जिस प्रकार पतंगे अपने विनाश के लिये जलती हुयी अग्नि में बड़ी तेजी से प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार यह सभी लोग भी अपने विनाश के लिए बहुत तेजी से आपके मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। (२९)

Meaning:

Like moths enter a blazing fire with great speed for their destruction, so also do these people enter your mouths with great speed for their destruction.

Explanation:

In the previous shloka, Arjuna gave the example of rivers flowing into the ocean to indicate the ultimate dissolution of all names and forms back to their source, Ishvara. Some may raise a doubt here. They may say, water is inert so naturally it goes wherever the flow takes it.

Now, there were also many others, who fought out of greed and self-interest. Arjun compares them with moths being lured ignorantly into the incinerating fire. But in both cases, they are marching rapidly toward their imminent death.

Moths that rush towards a flame and are eventually destroyed. Sant Jnyaneshwar gives the example of water droplets evaporating on a hot iron rod in his commentary.

By showing the process of destruction at such a grand scale, Shri Krishna also wants to remove Arjuna’s fear of death. Since the physical body goes away after death, there is no question of pain once we die. We are scared not about the pain of death, but about losing all of our identity as a so-and so, with all his possessions and attachments. The name-and-form to which we have become attached, and its network of relationships with other names and forms, is what ultimately gets dissolved.

But when we know that death is nothing but a return of our name and form into that of Ishvara’s, our fear of death will go away, or at least, diminish to a great extent. In fact, when we become a devotee of Ishvara, death loses its unpleasantness because now it means a return to the original source of the universe. We begin to lead our lives with a great degree of courage and fearlessness, because we know how it will all end.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जीवन मे अनेक गूढ़ तत्व ऐसे है जिन्हें जीव न तो समझ सकता एवम न ही देख सकता है, इस के लिये स्मार्त एवम वैष्णव दोनों मत में कहा गया है ” नास्ति तत्वों गुरोः परम्” अर्थात जीव गुरु की दया से सहज में ही  अगम्य तत्वों को जान लेता है।

पूर्व श्लोक में समुन्द्र में नदी के प्रवाह के सहज उदाहरण के बाद, मृत्यु के भयानक स्वरूप में छुपी शांति और मुक्ति के साथ, प्रेम से अमृतत्व में डूबी उपमा कीट-पतंगों की ज्वाला के साथ की गई है।

ऐसे कई लोग भी थे, जो लालच और स्वार्थ के कारण लड़े थे। अर्जुन उनकी तुलना पतंगों से करते हैं, जिन्हें अनजाने में जलती हुई आग में फंसा दिया जाता है। लेकिन दोनों ही मामलों में, वे अपनी आसन्न मृत्यु की ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं।

अर्जुन कह रहे है जैसे बड़ी भारी प्रकाशवान अग्नि की ज्वाला को देख कर बड़े वेग से नाश होने से अनभिज्ञ पतंगे प्रवेश करते है वैसे ही यह सभी लोग कौरव दल के एवम कुछ हमारे दल के भी सात्यकि विराट आदि ज्वाला निकलते हुए आप के भयानक मुख में प्रवेश ने दौड़ते हुए अपने नाश के लिये प्रवेश कर रहे हैं।

यहाँ यह दर्शाने के लिए कि जीवधारी प्राणी भी अपने स्वभाव से विवश हुए मृत्यु के मुख की ओर बरबस खिंचे चले जाते हैं। भोग भोगने और संग्रह करनेमें ही तत्परतापूर्वक लगे रहना और मन में भोगों और संग्रह का ही चिन्तन होते रहना, यह बढ़ा हुआ सांसारिक वेग है।  व्यासजी को सम्पूर्ण प्रकृति ही धर्मशास्त्र की खुली पुस्तक प्रतीत होती है। वे अनेक घटनाओं एवं उदाहरणों के द्वारा इन्हीं मूलभूत तथ्यों को समझाते हैं कि अव्यक्त का व्यक्त अवस्था में प्रक्षेपण ही सृष्टि की प्रक्रिया है और व्यक्त का अपने अव्यक्त स्वरूप में मिल जाना ही नाश या मृत्यु है।

संत ज्ञानेश्वर जी कहते है कि जैसे तप्त लोह में जल की बूंदे तुरंत सूख जाती है, वैसे ही आप के विशाल मुख में तप्त अग्नि में यह विशाल कौरव और पांडव की सेना स्वतः ही कूद कूद कर प्रविष्ट हो रही है और तुरन्त ही राख हो रही है। यह एक नदी के प्रवाह की भांति प्राकृतिक सा प्रतीत हो रहा है।

जब हम इस भयंकर या राक्षसी प्रतीत होने वाली मृत्यु को यथार्थ दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न करते हैं, तब वह छद्मवेष को त्यागकर अपने प्रसन्न और प्रफुल्ल मुख को प्रकट,करती है।अर्जुन के मानसिक तनाव का मुख्य कारण यह था कि उसने कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर होने वाले बहुत बड़े नाश का शीघ्रतावश त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन कर लिया था। उसके उपचार का एकमात्र उपाय यही था कि उसकी दृष्टि उस ऊँचाई तक उठाई जाये, जहाँ से वह, एक ही दृष्टिक्षेप में, मृत्यु की इस अपरिहार्य प्रकृतिक घटना को देख और समझ सके। श्रीकृष्ण ने उसका यही उपचार किया। किसी भी घटना का समीप से पूर्ण अध्ययन करने पर उसके भयानक फनों के विषदन्त दूर हो जाते हैं

जब मनुष्य की विवेकशील बुद्धि अज्ञान से आवृत्त हो जाती है, केवल तभी उसके आसपास होने वाली घटनाएं उसका गला घोंटकर उसे धराशायी कर देती हैं। जैसे नदियां समुद्र में तथा पतंगे अग्नि के मुख में तेजी से प्रवेश करते हैं, वैसे ही सभी रूप अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं। मृत्यु की घटना को इस प्रकार समझ लेने पर मनुष्य उससे भयमुक्त होकर अपने जीवन का सामना कर सकता है क्योंकि उसके लिए सम्पूर्ण जीवन का अर्थ परिवर्तनों की एक अखण्ड धारा हो जाती है।इसलिए काल की क्रीड़ा के रूप में मृत्यु एक डंकरहित घटना बन जाती है।

और इसलिए अर्जुन भगवान के मुख द्वारा प्रदर्शित काल तत्व को देखता है जो युद्ध के मैदान में सैनिकों सहित अनेक जीवों को खा या निगल रहा है। यदि अर्जुन के पास संपूर्ण दृष्टि होती; यदि अर्जुन ने विश्व रूप को एक अभिन्न अंग के रूप में देखा होता, जिसमें जन्म और मृत्यु दोनों विश्व रूप के दो पहलू होते; तो वह दोनों को मंगलम के रूप में देखता। यदि मुझे संपूर्ण दृष्टि मिल गई होती; चूंकि दोनों भगवान के पहलू हैं, मैं कभी भी एक को स्वीकार और एक को अस्वीकार नहीं कर सकता; मुझे चाहिए कि जन्म भी भगवान है; मंगल स्वरूप; मृत्यु भगवान मंगल स्वरूप है। मिलन भी भगवान मंगल स्वरूप है; वियोग भी संग है, मंगलम है; वियोग भी मंगलम है; वृद्धि भी मंगलम है;  क्षय भी मंगलम् है; स्वास्थ्य भी मंगलम् है; और अस्वस्थता भी मंगलम् है।

संसार को देखने का अन्य दृष्टि कोण संसार में जन्म – मरण को दुख का कारण भी देखा जाता है, फिर एक संन्यासी की भांति प्रत्येक कार्य में अमंगल दिखेगा जिस से विरक्ति भाव उत्पन्न होगा।

अगले श्लोक में इस मृत्यु को उस के सम्पूर्ण भयंकर सौन्दर्य के साथ गौरवान्वित करते हुए अर्जुन क्या कहते है, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 11.29।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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