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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.28 II

।। अध्याय      11.28 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.28

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।

तथा तवामी नरलोकवीराविशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥

“yathā nadīnāḿ bahavo ‘mbu- vegāḥ,

samudram evābhimukhā dravanti..।

tathā tavāmī nara- loka- vīrā,

viśanti vaktrāṇy abhivijvalanti”..।।

भावार्थ: 

जिस प्रकार नदियों की अनेकों जल धारायें बड़े वेग से समुद्र की ओर दौड़तीं हुयी प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार सभी मनुष्य लोक के वीर योद्धा भी आपके आग उगलते हुए मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। (२८)

Meaning:

Like torrents of several rivers rush towards the ocean, so do those brave men of this earth run to your blazing mouths.

Explanation:

Putumayo, Caqueta, Vaupes, Guainea, Morona, Pastaza, Nucuray, Urituyacu, Chambira, Tigre, Nanay, Napo, and Huallaga. These are names of just a handful of 1100 rivers that feed the Amazon, the largest river in the world by volume. It covers almost 7 million square kilometres of land in South America and empties 300,000 cubic metres per second into the Atlantic Ocean. The most distant source of the Andes is a glacier on the western edge of South America, near the Pacific Ocean, on the other side of the continent.

Arjuna, on seeing the hordes of warriors rushing into Ishvara’s mouths, compares them to the water in a river rushing with great speed into the ocean. It reminds him of Shri Krishna’s description of the water cycle as a sacrifice when he was explaining karma yoga. A drop of water which originated from the ocean evaporates into the sky, falls down as rain into a water body, and eventually finds its way into a flowing river that goes right back into its source, the ocean. At one point it thinks that it is rain, or it is a pond, a lake, a stream and so on, forgetting its true nature as water.

Arjun has comparison for death for two types of people, one who works as performance of duty and other works due to their lust, need and greed. Both have same life cycle with little difference.

He compares first with river and ocean. He says that there were many noble kings and warriors in the war, who fought as their duty and laid down their lives on the battlefield. Arjun compares them to river waves willingly merging into the ocean.

So, this is not a lot of the soldiers alone; but this is the lot of all the living beings; because all of them will have to be ultimately resolved; because life is nothing but avyaktha avastha and vyakthavastha. We have all come; we have to go back to the Lord; and again, punarapi jananam and punarapi maranam. This is the very course of life.

Similarly, we tend to think of ourselves as children, students, engineers, executives, rich people, poor people at different points in our lives, and forgetting that our journey is just a cycle that begins from Ishvara, the source, and ends back into that same source. So even though Arjuna was scared of Ishvara’s monstrous form, he understood that there was nothing to be scared about destruction. It was a bona fide part of Ishvara’s creative process.

Arjuna illustrates another aspect of this scene in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

परमात्मा के संहारक स्वरूप में सृष्टि का सृजन, यज्ञ, कर्म आदि सभी निहित है, इसलिये इस श्लोक पर जितना अधिक हम विचार करेंगे उतना अधिक उसमें निहित आनन्द हमें प्राप्त होगा।

जीवन – मृत्य के क्रम में जीव को दो प्रकार के उदाहरण में विश्वरूप दर्शन में व्यक्त हुए है, जिन में प्रथम वे लोग है जो अपना जीवन कर्तव्य पथ पर निछावर करते है और द्वितीय वे लोग जो जीव को अपनी आवश्यकताओं, राग – द्वेष और मोह में निछावर कर देते है। अर्जुन प्रथम प्रकार के लोगो के लिए कहते है कि युद्ध में कई महान राजा और योद्धा थे, जिन्होंने अपना कर्तव्य समझकर युद्ध लड़ा और युद्ध के मैदान में अपने प्राणों की आहुति दे दी। अर्जुन उनकी तुलना नदी की लहरों से करते हैं जो स्वेच्छा से समुद्र में विलीन हो जाती हैं।

तो यह केवल सैनिकों का भाग्य नहीं है; बल्कि यह सभी जीवों का भाग्य है; क्योंकि उन सभी को अंततः हल होना ही है; क्योंकि जीवन कुछ और नहीं बल्कि अव्यक्त अवस्था और व्यक्त अवस्था है। हम सभी यहाँ आए हैं; हमें भगवान के पास वापस जाना है; और फिर से पुनरापि जननम और पुनरापि मरणम। यही जीवन का वास्तविक क्रम है।

अर्जुन संहार के विभित्सक दृश्य की तुलना प्रकृति के स्वरूप में अपने सामने वाले दृश्य को देख कर कहते है वे किस प्रकार मुखों में प्रवेश करते हैं, जैसे चलती हुई नदियों के बहुत से जलप्रवाह बड़े वेग से समुद्र के सम्मुख हुए ही दौड़ते हैं – समुद्र में ही प्रवेश करते हैं, वैसे ही यह मनुष्यलोक के शूरवीर भीष्मादि आप के प्रज्वलित प्रकाशमान मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।

मूल में जल मात्र समुद्र का है। वही जल बादलों के द्वारा वर्षा रूप में पृथ्वी पर बरस कर झरने, नाले आदि को लेकर नदियों का रूप धारण करता है। उन नदियों के जितने वेग हैं, प्रवाह हैं, वे सभी स्वाभाविक ही समुद्र की तरफ दौड़ते हैं। कारण कि जल का उद्गम स्थान समुद्र ही है। किंतु नदिया पर्वतों से निकलती है और विभिन्न मार्गो से चल कर समुंद्र में मिल जाती है। कुछ यदि यह समझे की नदियों का उद्गम पर्वत है, तो उन्हे ज्ञात होना चाहिए कि वास्तविक उन का उद्गम समुंद्र ही है, जिस का पानी सूर्य की गर्मी से वाष्प हो कर वायु द्वारा पर्वतों तक पहुंचाया और वातावरण द्वारा बर्फ के रूप में जमा किया जाता है।

समुद्र से मिलन के लिए आतुर, उस की ओर वेग से बहने वाली नदियों की उपमा इस श्लोक में दी गई है। जिस स्रोत से नदी का उद्गम होता है, वहीं से उसे अपना विशेष व्यक्तित्व प्राप्त हो जाता है। किसी भी एक बिन्दु पर वह नदी न रुकती है और न आगे बढ़ने से कतराती ही है। अल्पमति का पुरुष यह कह सकता है कि नदी की प्रत्येक बूँद समीप ही किसी स्थान विशेष की ओर बढ़ रही है। परन्तु यथार्थवादी पुरुष जानता है कि सभी नदियां समुद्र की ओर ही बहती जाती हैं और वे जब तक समुद्र से मिल नहीं जाती तब तक मार्ग के मध्य न कहीं रुक सकती हैं और न रुकेंगी। समुद्र के साथ एकरूप हो जाने पर विभिन्न नदियों के समस्त भेद समाप्त हाे जाते हैं।नदी के जल की प्रत्येक बूंद समुद्र से ही आयी है। प्रथम मेघ के रूप में वह ऊपर पर्वतशिखरों तक पहुंची और वहाँ वर्षा के रूप में प्रकट हुई नदी तट के क्षेत्रों को जल प्रदान करके खेतों को जीवन और पोषण देकर वे बूंदें वेगयुक्त प्रवाह के साथ अपने उस प्रभव स्थान में मिल जाती हैं, जहाँ से उन्होंने यह करुणा की उड़ान भरी थी। इसी प्रकार अपने समाज की सेवा और संस्कृति का पोषण करने तथा विश्व के सौन्दर्य की वृद्धि में अपना योगदान देने के लिए समष्टि से ही सभी व्यष्टि जीव प्रकट हुए हैं, परन्तु उनमें से कोई भी व्यक्ति अपनी इस तीर्थयात्रा के मध्य नहीं रुक सकता है। सभी को अपने मूल स्रोत की ओर शीघ्रता से बढ़ना होगा। समुद्र को प्राप्त होने से नदी की कोई हानि नहीं होती है। यद्यपि मार्ग में उसे कुछ विशेष गुण प्राप्त होते हैं, जिनके कारण उसे एक विशेष नाम और आकार प्राप्त हो जाता है तथपि उसका यह स्वरूप क्षणिक है। यह समुद्र के जल द्वारा शुष्क भूमि को बहुलता से समृद्ध करने के लिए लिया गया सुविधाजनक रूप है।

जीवन से मृत्यु तक का काल चक्र इस उपमा में समाहित है। युद्ध मे शामिल लोक असदाहरण योद्धा भीष्म, द्रोण एवम कर्ण आदि शामिल है, इसलिये नरलोकवीरा विश्लेषण का कहा गया, और नदी का प्रवाह सभी को बहा के ले जाता है, इसलिये नदी और समुन्दर का दृष्टांत दे कर अर्जुन अपने भाव व्यक्त कर रहे है। इस के अतिरिक्त “अभिविज्वलित” शब्द समुन्द्र के समान जल अर्थात अग्नि से भरा हुआ है, भगवान से समस्त मुख सब ओर से ज्योतिर्मय अग्नि से भरे हुए है। इसलिये यह शूरवीर इस मे प्रवेश करते हुए अग्नि से ज्योतिर्मय होकर अपने बाह्य स्वरूप को भस्म करते हुए, आप मे समाहित हो रहे है। काव्य रचना में मृत्यु के स्वरूप में ही मोक्ष की सुंदर अभिव्यक्ति महृषि व्यास ही रच सकते है।

आगे अर्जुन अन्य उपमा से इसे स्पष्ट करते है, जिसे हम आगे पढेंगे।

।। हरि ॐ तत सत ।। 11.28।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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