।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.23 II
।। अध्याय 11.23 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.23॥
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रंमहाबाहो बहुबाहूरूपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालंदृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥
“rūpaḿ mahat te bahu- vaktra- netraḿ,
mahā-bāho bahu- bāhūru- pādam..।
bahūdaraḿ bahu- daḿṣṭrā- karālaḿ,
dṛṣṭvā lokāḥ pravyathitās tathāham”..।।
भावार्थ:
हे महाबाहु! आपके अनेकों मुख, आँखें, अनेको हाथ, जंघा, पैरों, अनेकों पेट और अनेक दाँतों के कारण विराट रूप को देखकर सभी लोक व्याकुल हो रहे हैं और उन्ही की तरह मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ। (२३)
Meaning:
Seeing your grand form with several mouths and eyes, O mighty armed, with several arms, thighs, feet and bellies, with fearful fangs, all beings are disturbed, and (so too am) I.
Explanation:
Blessed by Lord Krishna with divya cakṣuḥ, that means an appropriate mind by which a person can appreciate the whole universe as the body of the Lord; Arjuna is having Viśva rūpa darśanam of the Lord. And Arjuna goes through three phases and in each phase, Arjuna response is different; and of these three phases, the first stage is one of wonder; because anything you appreciate in totality, in mass scale, it produces wonderment.
Arjuna’s amazement turned into fear as he witnessed the transformation of Ishvara’s cosmic form. The “soumya roopa” or the pleasant form morphed into into the “ugra roopa”, the fear-inducing form. Shri Krishna’s kind, shining face was no more visible. It now was the face of a monster, with long sharp teeth that were “kaarala”, ready to take a bite.
Hence, considering several mouths etc. as kaal “time” which has three phases birth, live and death. In name of God Brahma, Vishnu and Mahesh. Now seeing the death is fearful.
When we see someone who has power but is benevolent and kind, we feel at peace. But when someone with power is clearly intent on causing destruction, we are afraid. When a general of a country army is disciplined and respects civilian authority, people are happy, otherwise he becomes a dictator and scares people. So therefore, seeing this terrible form of Ishvara, Arjuna saw that all beings in all of the worlds were cowering in fear of this form.
He describes the Vishva roopa as numerous hands, legs, faces, and stomach of God are everywhere. The Śhwetāśhvatar Upaniṣhad states:
“sahasraśhīrṣhā puruṣhaḥ sahasrākṣhaḥ sahasrapāt
sa bhūmiṁ viśhwato vṛitvātyatiṣhṭhaddaśhāṅgulam (3.14)[v5]”
“The Supreme Entity has thousands of heads, thousands of eyes, and thousands of feet. He envelopes the universe but is transcendental to it. He resides in all humans, about ten fingers above the navel, in the lotus of the heart.” Those who are beholding and those who are being beheld, the terrified and the terrifying, are all within the universal form of the Lord. Again, the Kaṭhopaniṣhad states:
“bhayādasyāgnistapati bhayāt tapati sūryaḥ
bhayādindraśhcha vāyuśhcha mṛityurdhāvati pañchamaḥ (2.3.3)[v6]”
“It is from the fear of God that the fire burns and the sun shines. It is out of fear of him that the wind blows, and Indra causes the rain to fall. Even Yamraj, the god of death, trembles before him.”
Why did Ishvara show this form to Arjuna? Didn’t Shri Krishna want everyone to remember his pleasant form only? There is a reason to this. Earlier, we learned about the tendency of our mind to demarcate certain aspect of the world as “good” or “bad”. But if we use the cosmic form as a means to meditate upon Ishvara, we need think like Ishvara. Ishvara comprises the entire creation where everything is necessary, and everything has its place. We cannot demarcate anything good or bad. Only by discarding our prior conceptions of good and bad can we truly understand this terrible form of Ishvara.
What else about the form scared Arjuna? He continues in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
सांतवे श्लोक में परमात्मा में कहा था कि अर्जुन तू इस मे चर-अचर समस्त प्राणियों -ब्रह्मांड को इस शरीर मे देख और जो भी तू देखना चाहता है वह भी देख।
भगवान कृष्ण द्वारा दिव्य चक्षुः का आशीर्वाद प्राप्त, इसका अर्थ है एक उपयुक्त दिमाग जिसके द्वारा एक व्यक्ति पूरे ब्रह्मांड को भगवान के शरीर के रूप में सराह सकता है; अर्जुन को भगवान के विश्व रूप दर्शन हो रहे हैं। अर्जुन तीन चरणों से गुजरता है और प्रत्येक चरण में, अर्जुन की प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है; और इन तीन चरणों में से पहला चरण आश्चर्य का है; क्योंकि आप किसी भी चीज़ की समग्रता में, बड़े पैमाने पर सराहना करते हैं, वह आश्चर्य पैदा करती है, यह हम ने श्लोक 22 तक पढ़ा। अब आगे भय का वातावरण श्लोक 25 तक पढ़ते है।
अर्जुन परमात्मा से विभूतियो को सुनने के बाद मात्र चतुर्भुज विश्वरूप ही देखने की प्रार्थना करता है किंतु उसे परमात्मा विराट रूप में समस्त ब्रह्मांड पूर्ण विभूतियो, चर-अचर के साथ, पूर्ण ग्रह, नक्षत्र एवम अधिआत्म, अधिभूत एवम अधिदेव के साथ दिखा रहे है। विराट स्वरूप में परमात्मा अर्जुन को वह सब दिखा रहे जो अर्जुन देखना चाहता है, इसलिये विराट स्वरूप काल का रूप ले रहा है। अर्जुन ने पूर्व में 33 कोटि देवगण एवम मरुतगण, ऋषि-मुनि आदि देखने के बाद परमात्मा के पल पल बदलते स्वरूप में आगे देखते हुए कहते है।
यह स्वरूप यद्यपि एक है किंतु अनेक प्रकार के विचित्र और भयानक मुखों, अनेक नेत्रों, सशस्त्र अगिनत हाथों, अगिनत जांघों, अगिनत भुजदंडों तथा चरणों, अनेक उदरों तथा वर्णो से युक्त है। आप के मुख एक दूसरे से नहीं मिलते। कई मुख सौम्य हैं और कई विकराल हैं। कई मुख छोटे हैं और कई मुख बड़े हैं। ऐसे ही आप के जो नेत्र हैं, वे भी सभी एक समान नहीं दीख रहे हैं। कई नेत्र सौम्य हैं और कई विकराल हैं। कई नेत्र छोटे हैं, कई बड़े हैं, कई लम्बे हैं, कई चौड़े हैं, कई गोल हैं, कई टेढ़े हैं, आदिआदि। हाथोंकी बनावट, वर्ण, आकृति और उनके कार्य विलक्षण विलक्षण हैं। जंघाएँ विचित्र विचित्र हैं और चरण भी तरह तरह के हैं।पेट भी एक समान नहीं हैं। कोई बड़ा, कोई छोटा, कोई भयंकर आदि कई तरहके पेट हैं। मुखों में बहुत प्रकार की विकराल दाढ़ें हैं। ऐसा लग रहा है कि आप महामृत्यु के समुद्र है। मुख से अग्नि के समान ज्वाला निकल रही है। भयंकर दांतो में प्रलय के नाश के रक्त से लथपथ दाढ़े दिख रही है। ऐसे महान् भयंकर, विकराल रूप को देखकर सब प्राणी व्याकुल हो रहे हैं और मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ।
सभी ओर प्रभु के असंख्य हाथ, टांगें, मुख और उदर दिखाई दे रहे थे जिसका श्वेताश्वतरोपनिषद् में इस प्रकार से वर्णन किया गया है
“सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्, स भूमिम् विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् (श्वेताश्वतरोपनिषद्-3.14)”
“परम सत्ता के हजारों सिर, हजारों आंखें और हजारों पाँव हैं। उन्होंने समस्त ब्रह्माण्ड को अपने आवरण में समेट रखा है किन्तु फिर भी वे इससे परे हैं। वह सब मनुष्यों में लगभग नाभि से दस अंगुल ऊपर हृदय कमल में रहते हैं।” वे जो उन्हें देख रहे हैं और जो उन्हें देख चुके हैं, भयभीत हो चुके और भयतीत हो रहे ये सभी भगवान के विश्वरूप के भीतर हैं। *कठोपनिषद् में पुनः वर्णन किया गया है
“भयादस्याग्निस्तपति भयातत्त्पति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः।।(कठोपनिषद्-2.3.3)”
“भगवान के भय से अग्नि जलती है और सूर्य चमकता है। उन्हीं के भय के कारण वायु प्रवाहित होती है और इन्द्र धरती पर वर्षा करता है। यहाँ तक कि मृत्यु का देवता यमराज भी भगवान के समक्ष भय से कांपता है।”
अर्जुन अभी तक सब के भय भीत होने की बात कर रहे थे, किन्तु अब यह स्वीकार करने लगे कि वह स्वयं भय भीत। वह कहते है कि मुझ से प्रलयकारी रुद्र भी भय खाता है तथा यम भी मुझ से भय भीत है, किन्तु यह विश्वरूप भले ही हो किन्तु यह रूप तो एक महामारी जैसा भयानक है, जिस की भयंकरता से मुझे भी भय लग रहा है। मै तो बस अब तक आप को अन्य का डर बता कर रोक रहा था।
मनुष्य को भविष्य का कौतूहल भले ही हो किन्तु उस को देख पाने का साहस नही हो सकता। अपनी खुद की ज़िंदगी के कितने उतार चढ़ाव आते है और समय से प्रवाह में बह जाते है किंतु कभी सोचो कि यह सब तुम्हारे सामने खड़े हो जाये तो क्या उन को स्वीकार कर सकोगे। कल्पना करें कि जंगल मे सुंदर सौम्य वातावरण की कल्पना में अचानक गहरे जंगल मे हिंसक जानवर से आप अपने को घिरा हुआ पाए तो कितना भी सुरक्षित होने की गारंटी हो, किन्तु भय अपना स्थान आप के मन के बना ही लेगा।
जब कोई व्यक्ति विनाशकारी सिद्धांत को देखता है, तो वह इससे खुश नहीं होगा। तो स्वाभाविक रूप से भावना डर में से एक है। तो भगवान सृष्टि कर्ता के रूप में, हर कोई प्यार करता है; भगवान स्थिति कर्ता के रूप में, हर कोई अधिक प्यार करता है; लेकिन भगवान लय कर्ता के रूप में, हर कोई भयभीत है और अर्जुन उस लय, संहारक को देखता है और इसलिए वह भयभीत हो जाता है; और यह इस सिद्धांत का प्रतिनिधित्व करता है कि विश्व रूप में विपरीत युग्मों का समावेश है।
परमात्मा का सौम्य स्वरूप सृष्टि के विसर्ग से प्रलय की ओर बढ़ कर भयानक हो रहा था। जन्म के साथ मृत्यु भी अटल है, सृजन के साथ विनाश भी अटल है। काल अनंत एवम सब को भक्षण करने वाला है। उसी काल स्वरूप में विराट विश्वरूप को देख कर कौन है, जो भयभीत न हो। अर्जुन भी मनुष्य है, उस डर स्वाभाविक है। परमात्मा के इस स्वरूप की कल्पना सनातन धर्म मे महृषि व्यास जी ने विराट स्वरूप दर्शन में ही कर के दिखाने के साहस किया है, जो अपने आप मे अद्वितीय है। जीवन मे बड़े से बड़ा सुख और बड़े से बड़ा दुख, दुर्घटना, मृत्यु, बीमारी या कष्ट जो भी सामने भोगने को मिले उसे यदि विराट स्वरूप दर्शन की भांति स्वीकार कर के परमात्मा को प्रणाम करने से ही आनन्द की प्राप्ति ही सकती है। दैनिक जीवन मे जो प्रत्यक्ष है, वही परमात्मा का विराट स्वरूप का दर्शन है, फिर चाहे वह युद्ध हो या शांति।
इस दृश्य से स्वयं में डरा अर्जुन समस्त सृष्टि को भयभीत बता रहा है। यह व्यक्ति का अहम होता है कि वह अपनी कमजोरी को स्वीकृत करने की अपेक्षा उसे पूरे विश्व पर थोपना चाहता है। व्यवहार में भी हारने पर अपनी कमजोरी को स्वीकार करने की बजाए हम दूसरो को उस का कारण बताते है।
भयानक स्वरूप को देख कर बदहवास अर्जुन आगे क्या देखते हुए कहते है, अगले श्लोक में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.23।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)