।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.20 II
।। अध्याय 11.20 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.20॥
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदंलोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥
“dyāv ā-pṛthivyor idam antaraḿ hi,
vyāptaḿ tvayaikena diśaś ca sarvāḥ..
dṛṣṭvādbhutaḿ rūpam ugraḿ tavedaḿ,
loka- trayaḿ pravyathitaḿ mahātman”..
भावार्थ:
हे महापुरूष! सम्पूर्ण आकाश से लेकर पृथ्वी तक के बीच केवल आप ही अकेले सभी दिशाओं में व्याप्त हैं और आप के इस भयंकर आश्चर्यजनक रूप को देखकर तीनों लोक भयभीत हो रहे हैं। (२०)
Meaning:
This distance between heaven, earth is, and all directions is pervaded only by you alone. Having seen this, you’re fascinating and terrible form, the three worlds are afraid, O great one.
Explanation:
Arjun says, “O Omnipresent Lord, you are pervading in all ten directions, the whole earth, the sky above, and the space in- between. All living beings are shuddering in fear of you.” Why should the three worlds shudder before the universal form when they have not even seen it? Arjun implies that everyone is functioning in fear of God’s laws. His edicts are in place, and everyone is obliged to submit to them.
Nowadays, computers can be trained to recognize objects and faces. They do this by first taking a snapshot of a scene, and then differentiating between what is space is what is not. If they can do this differentiation correctly, they can compare the outlines of the “not- space” with outlines of familiar objects to arrive at a conclusion such as “this is a box” and so on.
Our eyes work in pretty much the same way. Whenever they see space, they do three things. First, they separate whatever they see as not-space and call those things “objects”. Next, they send those objects to the mind which uses its memory to say, “this is a box and a key”. But in addition to recognizing objects, the mind also automatically adds another thought. Since the box and key are separated by space, they are far away from me and therefore not a part of me.
Our minds are conditioned to believe that Ishvara is sitting somewhere far away. He is separated from us by space, by distance. But when Arjuna saw the cosmic form, he realized that space is not different from Ishvara. In fact, Shri Krishna himself said that space is part of his nature in the seventh chapter. Ishvara is not separate and far away from us, he is with us all the time. In fact, he only exists, “ekena”, all alone, by himself. We are not different from him. This is the main point of this shloka. Only by constantly remembering the cosmic form will we truly understand this message.
Now, Ishvara’s ugra roopa, his terrible form, slowly replaces his saumya roopa, his pleasant for. For every pleasant experience in the world, there has to be a corresponding unpleasant experience as well. Once you label something as “good”, there will be something “bad” by default. Seeing this frightful form of Ishvara, with fire coming out of all his mouths, all the three worlds were beginning to worry.
Lord as the creative principle, we all enjoy; Lord as the sustaining principle we all admire; but there is a third facet of Lord; not only sr̥iṣṭi kāraṇam, not only stithi kāraṇam; but the very same Lord is the laya kāraṇam; which is represented by the fiery mouth. When Arjuna saw the Lord as the death principle, the destroyer principle, Arjuna has got fear also. Therefore, now Arjuna has got a mixed feeling, one side is wonder; another side is fear also. And therefore, he adds both words; adbhudham and ugraṃ; it is wonderful and also frightening.
So one thing we do not want anything around is death, either for me or for a few people around; this is the fundamental insecurity and everybody has got this running sense of insecurity constantly throughout and therefore Arjuna says; lōkatrayaṃ; all the lōkās; even the animals have got instinctive fear of death; therefore all the three lōkās including dēvās, asurās; manuṣyās, paśus, pakṣis, insects, even an ant; they are all frightened of You; the death principle, represented by the fiery mouth. Hey Mahātman means Viśva rūpa; mahān; ātma śarīram yasya mahātma; sambodhana is hey mahātman.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अर्जुन कहता है कि हे सर्वव्यापी महापुरुष! आप सारी पृथ्वी और उसके ऊपर आकाश और उस के बीच के स्थान में सभी दस दिशाओं में व्याप्त हैं। सभी जीव आप के भय से कांपते दिखाई दे रहे हैं। तीनों लोक भगवान के विश्वरूप के समक्ष क्यों थरथरा रहे हैं? जबकि उन्होंने भगवान का विश्वरूप देखा ही नहीं हैं। सभी उसका पालन करने के लिए बाध्य हो रहे हैं। अर्जुन कहता है कि सभी भगवान के नियम के भय से कार्य कर रहे हैं। उनकी आज्ञाएँ अटल हैं और सभी उनका पालन करने के लिए बाध्य होते हैं।
अर्जुन विराट रूप परमेश्वर का दर्शन कर रहे थे उस मे उस ने अनेक आश्चर्यजनक स्वरूप देखे। काल से परे वो भूत, वर्तमान, भविष्य सब देख रहा था किंतु इस विराट स्वरूप से उस के अंदर भय मिश्रित जिज्ञासा बढ़ रही कि भविष्य क्या है, क्योंकि वो जिस भूमि में खड़ा था वो युद्ध भूमि थी।
विसर्ग एवम प्रलय सृष्टि के दो ही स्वरूप है। एक ओर 33 कोटि देवगण एवम मरुत गण का विश्वरूप है तो दूसरी ओर प्रलय को ले कर काल सब को निगल रहा है। यह दृश्य का आदि, मध्य या अंत भी नही और कालातीत होने से सम्पूर्ण भूत-वर्तमान- भविष्य को भी दिखा रहा था। अर्जुन ने पूर्व अध्याय विभूतियोग में जिस ऐष्वर्य रूप की कल्पना की थी, उस के विपरीत अर्जुन भविष्य में युद्ध की वीभत्सता को भी देख पा रहा था। अतः अपने को संयत करने की कोशिश में स्तुति करते जा रहा था।
अर्जुन कहते है “स्वर्ग और पाताल, पृथ्वी और अंतराल, दसो दिशाए और चतुर्दिक छाए हुए क्षितिज के वर्तुल – इन सब को एकमात्र आप से ही भरा हुआ कुतूहल से देख रहा हूँ। आकाश सहित समस्त त्रिभुवन को आप के स्वरूप ने मानो निगल लिया हो। यह असदाहरण व्यापकता अमर्यादित सी लग रही है और फिर हजारो सूर्य के समान तेज के कारण आंखे चोउंधियाँ से गई है। इस के कारण यह दृश्य देख कर विराम की जगह भय महसूस होने लग रहा है।”
कर्म प्रधान बिश्वकरी राखा ।जो जस करइ सो तस फल चाखा ।।(रामचरितमानस)
“संसार का कार्य कर्म के नियमों के अधीन होता है। हम जो भी कर्म करते हैं उससे हमारे कर्मफल संचित होते हैं।” कर्म के नियमों के समान असंख्य नियम अस्तित्त्व में हैं। कई वैज्ञानिक जीवन निर्वाह के लिए खोज और अविष्कार करते हुए भौतिक सिद्धान्त बनाते हैं किन्तु वह नियम नहीं बना सकते। भगवान सर्वोच्च विधि निर्माता है और सभी उस के नियमों के प्रभुत्त्व के अधीन हैं।
परमेश्वर का अनन्त विराट स्वरूप ऊपर स्वर्ग से ले कर पाताल तक विस्तृत था। अर्जुन उस मे परिवर्तन देख रहा था। उसे लग रहा था वो विराट स्वरूप में वो सभीकुछ देख रहा था, जो आने वाली घटनाओं को बता रही है। अनेक हाथ, पैर, मुख, नेत्र दांत कुछ भी एक जैसा नहीं जिस के कारण स्वरूप सौम्य न हो कर भयानक स्वरूप में परिवर्तित होता दिख रहा था।
भगवान के रचनात्मक सिद्धांत के रूप में, हम सभी आनंद लेते हैं। भगवान एक सतत सिद्धांत पालक के रूप में हम सभी की प्रशंसा करते हैं। लेकिन भगवान का एक तीसरा पहलू भी है, न केवल सृष्टि कारणम्, न केवल स्थिति कारणम्; लेकिन वही भगवान लय कारणम भी है, जिस का प्रतिनिधित्व उग्र मुख द्वारा किया जाता है। जब अर्जुन ने भगवान को मृत्यु तत्त्व, संहारक तत्त्व के रूप में देखा, तो अर्जुन को भय भी हो गया। इसलिए अब अर्जुन को एक मिश्रित अनुभूति हुई है, एक तरफ आश्चर्य है, दूसरा पक्ष डर का भी है और इसलिए वह दोनों शब्द जोड़ता है,अदभुधम् और उगुग्रं; यह अद्भुत भी है और भयावह भी है।
एक चीज़ जो हम अपने आसपास कुछ भी नहीं चाहते या तो अपने लिए या आसपास के कुछ लोगों के लिए, वह है मृत्यु । यह मूलभूत असुरक्षा है और हर किसी में असुरक्षा की यह भावना लगातार चलती रहती है और इसलिए अर्जुन कहते हैं, “लोकत्रयं;” सभी लोक, यहाँ तक कि जानवरों को भी मृत्यु का सहज भय हो गया है, इसलिए देवों, असुरों सहित सभी तीन लोक, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, यहाँ तक कि एक चींटी भी, वे सब तुझ से डर गए हैं। मृत्यु सिद्धांत, उग्र मुँह द्वारा दर्शाया गया।
युद्ध, महामारी, अकाल एवम हिंसा किसी भी रूप में प्रकट हो, भयानक होती है। ईश्वर की कल्पना मनोरम, शीतल और सौम्य स्वरूप की जाती है, किन्तु जो स्वरूप सृष्टि के कण कण में बस गया है, उस का वास्तविक स्वरूप जन्म से मृत्यु तक संसार के प्रत्येक सत्य को प्रदर्शित करता है, वह कालातीत स्वरूप में सुख- दुख, रोग, हिंसा, मृत्यु और युद्ध जैसी भयानक स्थिति को भी विराट विराट स्वरूप में प्रकट कर दिया। मानो जिस ने समुन्दर का शांत लहरों के स्वरूप की कल्पना कर रखी हो, उस मे काल के समान समुन्दर ही व्यक्त ऊंची ऊंची तूफानी लहरों के साथ प्रकट हो गया हो।
आप के इस अद्भुत, विलक्षण, अलौकिक, आश्चर्यजनक, महान् देदीप्यमान और भयंकर उग्ररूपको देखकर स्वर्ग, मृत्यु और पाताल लोक में रहनेवाले सभी प्राणी व्यथित हो रहे हैं, भयभीत हो रहे हैं। भय एवम संदेह में हमे अपना जैसा ही संसार दिखता है क्योंकि हमारा आत्मविस्वास समाप्त प्रायः हो चुका होता है, इस लिए भय से ग्रसित अर्जुन को भी पूरी सृष्टि व्यथित दिख रही है।
विश्वरूप की विराट छवि को सरलता से ग्रहण नहीं किया जा सकता। जो जितना ही अधिक उसे समझता है, उसका वर्णन करने में उतना ही अधिक वह लड़खड़ाता है। इतने विशाल और भव्य सत्य को देखकर परिच्छिन्न बुद्धि का कम्पित हो जाना स्वाभाविक ही है।अर्जुन का यह कहना कि इस अद्भुत और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक भय कम्पित हो रहे हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य जगत् को उसी रूप में देखता है जैसा कि वह स्वयं होता है। यथा दृष्टि तथा सृष्टि। विराट् का दर्शन करके अर्जुन भयभीत हुआ और उस मनस्थिति में जब वह जगत् को देखता है, तो तीनों लोक भी विस्मित और भय कम्पित दिखाई देते हैं। उसे लग रहा है इस विराट स्वरूप को देवी देवता, पितर, एवम युद्ध मे खड़े सभी मनुष्य देख रहे है, इसलिये विराट स्वरूप में उसे वह सब व्यथित ही दिख रहे है।
आगे दस श्लोकों में अर्जुन विराट स्वरूप का काल रूप देख कर, उन की मनःस्थिति को महृषि व्यास जी जिस अदभुत तरीके से पिरोया है, उस मे वे अर्जुन के माध्यम से क्या कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.20।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)