।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.19 II
।। अध्याय 11.19 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.19॥
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥
“anādi-madhyāntam ananta-vīryam,
ananta-bāhuḿ śaśi- sūrya- netram..
paśyāmi tvāḿ dīpta- hutāśa- vaktraḿ,
sva-tejasā viśvam idaḿ tapantam”..।।
भावार्थ:
आप अनादि है, अनन्त है और मध्य-रहित हैं, आपकी महिमा अनन्त है, आप की असंख्य भुजाएँ है, चन्द्र और सूर्य आप की आँखें है, मैं आप के मुख से जलती हुई अग्नि के निकलने वाले तेज के कारण इस संसार को तपते हुए देख रहा हूँ। (१९)
Meaning:
I see you without beginning, middle and end, with infinite prowess and infinite arms, with the moon and sun as your eyes, with blazing fire out of your mouth. Your radiance burns this universe.
Explanation:
In the sixteenth verse, Arjun had said that the form of the Lord is without beginning, middle, or end. He repeats this after just three verses, out of his excitement over what he is seeing. If a statement is uttered repeatedly in amazement, it is taken as an expression of wonder and not considered a literary flaw. For example, on seeing a snake, one may scream, “Look, a snake! A snake! A snake!” Similarly, Arjun repeats his words in amazement. In another view he is seeing lord everywhere in all directions, means all directions are part of the lord statue in vishva roop darshan.
He does find something for his mind to hold onto. He is seeing every deity in Lord. So, he starts from eyes and compare the same with, the moon and the sun. He says Sun and moon are seen as the eyes of the cosmic form. This is useful because it lets us, to the best of our mind’s ability, as a pointer to remembering Ishvara’s cosmic form when we see the moon or the sun that he is seeing world in day and night. Further, the sun, moon, and stars receive their energy from the Lord. Thus, it is he who provides warmth to the universe through these entities.
Next, Arjuna describes Ishvara’s powerful prana shakti. Our prana powers all of our physiological functions. It enables us to digest food, move our hands and legs, circulate the blood and so on. Similarly, the cosmic prana of Ishvara also powers the universe, but is infinitely more powerful than our prana. This is revealed through the infinite arms seen by Arjuna, which represent the infinite prowess and power to perform actions.
Now, Arjuna begins to see a transformation in the cosmic form. It shifts from a pleasant picture to something a little different. Ishvara’s mouth begins to emit fire, representing the prana in him that consumes food. The food here, however, refers to the offerings we make in the form of sacrifices. The offering, or “hutam”, is consumed by Ishvara resulting in the fire from his mouth heating or powering the universe.
Ultimate seeing deities like all directions, sun and moon in shape of eyes, Varun in shape of tongue and fire in shape of mouth shows that vishavrupa darshan contains all deities being part of his body.
This image reinforces the sacrificial wheel of the universe that was described in the third chapter.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अर्जुन दिव्य नेत्रों से परमात्मा के स्वरूप को देख रहा है किंतु वह ज्ञानवान एवम प्रवीण योद्धा है, कोई ब्रह्मविद योगी नही। इसलिये वो भय, शंका, आकांक्षा एवम जिज्ञासा से परे नही है। जब भी हम कोई आश्चर्य मिश्रित वस्तु को देखते है तो हमारे अंदर तरह तरह के भाव उमड़ने लगते है और हम दिखने वाले वस्तु की तुलना अपने ज्ञान से करने लगते है।
श्लोक 16 में अर्जुन आदि, अंत एवम मध्य नही देख पा रहे थे, इसलिये अब स्तुति करते हुए कहते है। आप आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं अर्थात् आपकी कोई सीमा नहीं है। आप उत्पत्ति, वृद्धि, क्षय, परिणाम एवम विनाश से परे अनादिमध्यान्त है। आप में अपार पराक्रम, सामर्थ्य, बल और तेज है। आप अनन्त, असीम, शक्तिशाली अर्थात अनन्तवीर्य हैं।
यदि किसी कथन को विस्मय के कारण दोहराया जाता है तो उसे चमत्कार की अभिव्यक्ति के रूप में लेना चाहिए और उसे साहित्यिक दोष नहीं समझना चाहिए। उदाहरणार्थ किसी सांप को देखने के पश्चात कोई चिल्ला कर कहता है-‘देखो सांप! सांप! सांप!’ इसी प्रकार अर्जुन भी आश्चर्यचकित होकर अपने कथनों को दोहराता है। भगवान वास्तव में आदि और अंत से रहित हैं क्योंकि स्थान, काल, कारण-कार्य-संबंध उन्हीं के प्रभुत्त्व में हैं। इसलिए वे उनके परिणाम से परे हैं।
साहित्यिक आधार पर एक छोटी सी कथा है, कि एक महान संस्कृत कवि, महान विद्वान, वह अत्यंत गरीब था, सामान्यतः जहाँ सरस्वती होती है, वहाँ लक्ष्मी उस के साथ नहीं जाती। ऐसा लगता है कि उनके बीच कुछ झगड़ा है! तो यह व्यक्ति बहुत बड़ा विद्वान है और इस के पास भी सरस्वती है, किंतु लक्ष्मी नहीं है। इसलिए वह केवल चीथड़े पहने हुए था; फटा हुआ कपड़े और कवि होने के नाते वह हर चीज़ को पद्य के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं। वह देख रहा था। फटे हुए चिथड़े और यह श्लोक जप रहा था।
“आदिमध्यन्त रहितम्, दश हीनम् पुराणम्, अद्वितीयम् अहम वंदे, मदवस्त्र सदृशं हरीम्।”
मैं आदि, मध्य और अंत रहित प्रभु को साष्टांग प्रणाम करता हूं। जो मेरे वस्त्रों से तुलनीय है। उसका कपड़ा कैसा है और प्रभु की तुलना की जाए। वह कहते हैं आदिमध्ययंता रहितम्; फटे हुए चिथड़े होना; आप यह पता नहीं चल पाता कि आरंभ, मध्य या अंत क्या है। दश हीनम्, दश शब्द है दो अर्थ; एक कपड़े का अंत है, जिसे दशा कहा जाता है; और विभिन्न स्थितियाँ जैसे बुढ़ापा, रोग आदि को भी दशा कहा जाता है; या यहां तक कि ज्योतिषीय शनि दशा; राह दशा, वह दशा है। तो यह कवि कहता है। मेरा कपड़ा भी दश हीनम् है। सब कुछ फटा हुआ है और भगवान दश हीनम् हैं। उसके पास कोई दशा नहीं है। शनि, राहु दशा; आप भी इसके साथ ही दश हीन है। हे प्रभु! और मेरी पोशाक भी दश हीनम् है। पुराणम्; मेरी पोशाक भी है सब से प्राचीन; और हे भगवान्! आप पुराणनः हैं; फिर अद्वितीयम्; अतुलनीय, तुम भी अतुलनीय हो और मेरे जैसा वस्त्र तुम्हें कभी नहीं मिलेगा अद्वितीयम् अहम् वन्दे, मदवस्त्र सदृशं हारिम, वह भगवान जो मेरे वस्त्रम के समान है, उस भगवान को, मैं साष्टांग प्रणाम; नमस्कार करता हूं। ज्ञान के मध्य साहित्यिक हास्य होना वैसे वह अलग बात है और अर्जुन यहां कोई हास्य नही कर रहा इसलिए उस का बार बार यह कहना कि आप अनादिमाध्यन्तमनन्तवीर्यम्; यह बताता है कि परमात्मा का ऐश्वर्या कितना बड़ा है। अर्जुन कहते है आप अनंत शक्ति के स्वामी हैं और अनंतवीर्य अनंत शक्तिमान, सर्वशक्तिमान है जिस से आप ब्रह्मांड ही इसे बना पाते हैं।
मैं आपको अनन्त भुजाओं से युक्त, चन्द्रमा और सूर्यरूप के समान तेजस्वी एवम शीतलता प्रदान करने वाले नेत्रोंवाला, प्रज्वलित अग्निरूप अनेक मुखोंवाला और अपने तेजसे इस जगत् को तपायमान करते हुए देखता हूँ अर्थात् जिस रूपके अनन्त हाथ हों, चन्द्रमा और सूर्य ही जिसके नेत्र हों, प्रज्वलित अग्नि ही जिसका मुख हो और जो अपने तेज से इस सारे विश्व को तपायमान करता हो, ऐसा रूप धारण किये आपको देख रहा हूँ।
पंचभूत में जितने भी देवता है उस में सूर्य – चंद्र की तुलना नेत्रों से कर के दिन और रात दोनो को उन के स्वरूप में सम्मलित कर लिया और वरुण को जिव्हा में, मुख में अग्नि तत्व और तेज को चेहरे पर धारण कर के बताया गया। विश्वरूप में जो भी है वह परमात्मा की विभूति है तो उस के वर्णन को दर्शन में अर्जुन के मुख से स्तुति द्वारा वर्णित करने का साहित्यिक ज्ञान व्यास से अधिक किसी का हो, मुझे नहीं लगता।
व्यास के प्रभावशाली काव्य द्वारा चित्रित यह शब्दचित्र ऐसा आभास निर्माण करता है कि मानों इस कविता की विषयवस्तु बाह्यजगत् की कोई दृश्य वस्तु हैं। इसे केवल गम्भीर अध्ययनकर्ता सूक्ष्मदर्शी विद्यार्थी ही समझ, सकते हैं। कोई भी चित्रकार कितना बड़ा केनवास ले ले किन्तु इस अनदिमध्यान्त स्वरूप का जिस से अनन्त हाथ एवम मुख हो, जिन के मुख से अग्नि से सामान ज्वाला निकल रही हो। जिन की आंखे सूर्य के समान प्रकाशवान एवम चंद्रमा जैसी शीतल हो, तो तेजस्वी, बलवान असीम शक्तिशाली हो, चित्रित कर सके। यद्यपि हमे इस स्वरूप के चित्र मिलते है किंतु कोई भी इस परिभाषा को पूर्ण नही कर सका।
मनोविज्ञान के अनुसार अर्जुन द्वारा विराट स्वरूप देखने के बाद स्तुति करना, स्वयं को अप्रत्याशित दृश्य के अनुरूप अपने आत्मविश्वास को पैदा करना ही है। मन मे भविष्य जानने की कामना और विराट स्वरूप में सम्पूर्ण सृष्टि का दर्शन को देख कर अर्जुन अपने धैर्य एवम आत्मविश्वास को भी बनाये रखना चाहते है, इसलिये जो पहले देखा है, उसे स्तुति के माध्यम से दोहरा भी रहे है। अर्जुन ऐसा विराट रूप में वो सब देख रहा था जो उस की जिज्ञासा में भविष्य जानने में था। किंतु सत्य जब विराट स्वरूप में हमारे समक्ष हो तो निश्चय ही वह हमारी उन समस्त आकांक्षाओं के अनुरूप नही होता, इसलिये अर्जुन अब भय भी महसूस करने लग गया है।
श्लोक 2 में अर्जुन ने कहा था कि मैंने आप को भूतो की उत्पत्ति एवम प्रलय का विस्तार से श्रवण किया और आप के अविनाशी महात्म्य को भी सुना। यह सब मे आप के स्वरूप को देखना चाहता हूँ। सृजन जितना आनंद एवम सुख दायक होता है, उस से अधिक संहार और विसृजन होता है। परमात्मा का स्वरूप सौम्य सृजन से विनाश के भयानक रूप में काल द्वारा जीव का संहार चहुंओर बिना किसी क्षोर के देखने से अर्जुन की मानसिक स्थिति अप्रत्यशित भय एवम आशंका में घिरने लगी थी। अतः वह अपनी स्थिति को स्तुति में वर्णित करते हुए आगे क्या देखते हुए कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.19।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)