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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.18 II Additional II

।। अध्याय      11.18 II विशेष II

।। विश्वरूप दर्शन में हमारी अक्षमताएं ।।  विशेष – गीता 11.18

एकादश अध्याय परमात्मा के विश्वरूप दर्शन का है, जिसे सब से पहले कृष्ण द्वारा बताया गया, दिव्य दृष्टि देने के बाद संजय ने अर्जुन जिस स्वरूप देख रहे है उसे बताया गया फिर अर्जुन के द्वारा प्रार्थना करते हुए बताया जा रहा है। इसे आगे भी अर्जुन -कृष्ण संवाद से भी पढ़ेंगे।

विश्वरूप का दर्शन युद्ध भूमि में किया गया है जिस में अर्जुन और धृतराष्ट्र दोनों ही मोह ग्रस्त  है किंतु अर्जुन का मोह भंग होने की स्थिति में है जबकि धृतराष्ट्र अभी भी उसी स्थिति में है। अतः अर्जुन विश्वरूप में जो कुछ भी निराकार, अव्यक्त और सूक्ष्म ब्रह्म को देख रहा रहा है उस में युद्ध भूमि की प्रतिछाया भी है। अर्थात मानवीय कमजोरी में उस की संवेदना, भय, आश्चर्य, संदेह, भविष्य के प्रति अनिश्चितता का प्रभाव का निवारण हम ब्रह्म स्वरूप में पाना चाहते है इसलिए जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है और जिस में सौर मंडल एक बिंदु से अधिक नही, उस में मानवीय स्वरूप में  किसी भी व्यक्ति को देख पाना भी संभव नहीं।

भय और आश्चर्य से जब आशंकित हो जाए तो पहला कार्य हम अपने को सुरक्षित करना चाहते है। जीव चाहे कितना भी नित्य हो, प्रकृति से उस का संबंध भी अत्यंत गहरा होता है। इसलिए जीव को अपने प्रकृति से प्राप्त देह से मोह होता ही है और इसलिए वह जिस से सुरक्षा चाहता है उस की स्तुति करने लगता है। यह स्तुति पारंपरिक और वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता से हमे मिलती है किंतु उस का अर्थ हमे समझे या न समझे परंतु हम यही मानते है कि इस से देव प्रसन्न होते है। वास्तव में क्या ऐसा है यह किसी सामाजिक जीव को नहीं मालूम।

अपने को ज्ञानी और परमात्मा तक होने का दावा करने वाले बहुत लोग है, किंतु परमात्मा को समझ सकें और उस मूल्यों को धारण कर सकें, ऐसे लोग विरले ही किसी को मिलेंगे। इसलिए आज भी परमात्मा आप के समझ खड़े हो जाए, तो अनुसुए हो कर कौन उसे पहचान सकेगा। यही स्थिति अब अर्जुन की है कि परमात्मा को देखने की इच्छा करना और उस को देख कर समझ पाना, दोनों में बहुत अंतर है।

यह स्वरूप का वर्णन 55 श्लोक तक विभिन्न रूपो के वर्णन के साथ चलता रहेगा।

निर्गुणाकार परमात्मा का वर्णन करने की क्षमता यदि किसी मे थी वो व्यास जी ही थे। हम इस स्वरूप के अनेक चित्र भी देखते है किंतु जिस का न आदि है, न अंत है और न ही मध्य है उस स्वरूप को कौन चित्रकार अपने केनवास में उतार सकता है।

1.वाक् आदि 5 कर्मेन्द्रियाँ, 2. श्रवण आदि 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 3. प्राणादि 5 वायु, 4. आकाशादि 5 महाभूत, 5. बुद्धि आदि अन्त:करण चतुष्टय, 6. अविद्या, 7. काम और 8.कर्म– ये आठ पुरियों (कुल 27 घटक) से सूक्ष्म शरीर बनता है। किन्तु हम इस पंच तत्व के शरीर को पहचान पाते है, इसलिये उस सूक्ष्म से सूक्ष्म परमात्मा अपने प्रकट स्वरूप में सामने आते है, तो भी हम उन्हें नही देख पाते।

परमात्मा प्राकृतिक नेत्रों से नही देखा जा सकता, उस के लिये दिव्य नेत्र हमारी ह्रदय से प्रार्थना बुद्धिग्राह्य होनी चाहिए। परमात्मा हमारे ह्रदय में बसता है।

अभी तक हम ने कर्मयोग, ज्ञान योग भक्तियोग पढ़ा। मेरा ऐसा मत है यदि आँख बंद कर के अभी तक के अध्ययन को ध्यान में रखते हुए यदि हम परमात्मा के इस विराट स्वरूप को अपने बुद्धि ग्राह्य नेत्रों से देखने की चेष्टा करे तो स्वरूप चाहे न दिखे किन्तु एक स्फुरण अवश्य ही हमे अंदर उत्पन्न होगा। यदि यह करंट है तो आप यह मान कर चलिए कि आप गीता अध्ययन में सही दिशा में जा रहे है।

यह चेष्टा इस अध्याय की समाप्ति तक निरंतर की जा सकती है। बस आप को स्वयं को अर्जुन की जगह महसूस करना है और भगवान श्री कृष्ण को सारथी की जगह। आप बस प्रार्थना करे एवम उन से उन के विराट रूप दर्शन की मंगल कामना करते जाए । परम् परमेश्वर को अपनी ताकत बनाइये।

मेरा निजी अनुभव यही है कि हिन्दू होने के नाते हमारे पास अपने शास्त्रो को पढ़ने का क्रमबद्ध कोई पाठ शाला नही है। जो कुछ भी ज्ञान हमे मिलता है, वह संस्कार, पारिवारिक मेलजोल, सत्संग, कीर्तन या प्रवचनों से मिलता है। आज के इलेक्ट्रॉनिक सोशल मीडिया ने यु ट्यूब आदि से इस कि उपलब्धि को सरल भी बना दिया है, किन्तु पहले हम जो पुस्तके का अध्ययन करते थे, उस की बजाए छोटे छोटे टुकड़ों में यह ज्ञान अधिक अपभ्रंश स्वरूप में सामने आ गया। आत्मज्ञानी एवम अहम के कारण हम ज्ञान को ग्रहण करने की अपेक्षा उस के प्रसार पर अधिक ध्यान देते है। चिंतन एवम मनन में शून्यता के अभाव ने विचारो का प्रवाह इतना अधिक होता है कि जो बात संस्कार को छू जाए, वही श्रेष्ठ लगती है। अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण अनुसुवये कह कर ज्ञान देते है किंतु वही ज्ञान हम अहम और राग- द्वेष से ग्रहण करते है।

हिन्दू होने के नाते यदि शास्त्रो के अध्ययन की बात की जाए तो शायद ही आज के समाज मे कोई व्यक्ति हो जिस ने किसी भी शास्त्र का गहन अध्ययन किया हो। उस सार तत्व को आत्मसात किया हो। अक्सर उस को रटने या धाराप्रवाह बोलने या मंत्र जाप  मात्र को अध्ययन का नाम दिया गया है। इसलिये लाखो में कोई एक परमात्मा के दिव्यदर्शन का अधिकारी होता है।

अनुचित न लगे, फिर भी सोशल मीडिया में जिस प्रकार्  धर्म या शास्त्र के क्लिप या लेख आते है, उन्हें अक्सर लोग बिना पढ़े, आगे भेज देते है। गलत होने से अपना पल्ला यह कह कर झाड़ लेते है कि मैंने सिर्फ फारवर्ड किया है, जांच नही की। जब तक दायित्व की भावना अपने अंदर न आये तो श्रद्धा, प्रेम, विश्वास भी नही आ सकता। मन एवम बुद्धि अध्याय 11 को फारवर्ड करने के अंदाज में पढ़ता जाएगा। दर्शन हो जाये, यह हम सोचेंगे ही नही, तो दर्शन होंगे भी नही। गीता जैसा शास्त्र पढ़ने के बाद भी चरित्र में, उस की भावनाओ में, उस के आचरण में परिवर्तन यदि कुछ आता भी है, यही मात्र की मैंने भी गीता का अध्ययन किया है, किन्तु मैं जो कर रहा हूँ वह व्यवहारिक है, जो गीता में लिखा है, वह आज के युग मे रह कर, समाज मे व्यवहारिक नही है। अविश्वास की यह रेखा शुरू से खिंचने से हम दर्शन की अपेक्षा भी कैसे रख सकते है।

हमारे गहन अध्ययन के लिये एकाग्रता की कमी के रहते अध्ययन भी समस्या दिखती है। प्रतिदिन की व्यवसायिक व्यस्तता में चरित्र निर्माण सांसारिक एवम व्यवसायिक होना चाहिये। सत्यवादी, दानी, धार्मिक या ज्ञानी होने की अपेक्षा उस का वैसा दिखना ज्यादा आवश्यक है। इसलिये  हम ज्ञान लेते कम और बांटते ज्यादा है। कुछ भी बात जो मन को उचित लगे, तुरन्त बांटना शुरू कर देते है, चाहे वह शक्कर लगा झूठ की क्यों न हो। हमारा दायित्व उस के बांटने तक सीमित है। इसलिये भी विश्वरूप दर्शन हमे न हो कर सभी को हो जाये, हम गीता के ज्ञान को भी बांट रहे है।

मन्दिर, आश्रम एवम नियोजित यज्ञशाला एवम प्रवचन आज भी धर्म के संस्कार एवम रीतियों को जीवित किये हुए। इस मे चितंन एवम मनन की आहुति देनी भर है, यही गीता का अध्ययन है। यही विश्वरूप दर्शन है। यही कर्मयोग, सांख्य योग, ध्यान योग और भक्ति योग। हम सब का कर्तव्य यही है कि हम सही दिशा में गीता का अध्ययन करें, इस का प्रसार करे।

Dr. सर्वपल्ली राधाकिशन मेनन जी ने अपनी पुस्तक गीता की मीमांसा में लिखा है कि हिन्दू धर्म मे ब्रह्मचर्य आदि धार्मिक मान्यताओं की इतनी अधिक अनिवार्यता कर दी है कि उस का पालन सदाहरण मनुष्य के लिये संभव नही। इसी प्रकार वर्ण व्यवस्था को कुरीतियों के रूप में उपयोग होने से हिन्दू धर्म रीति- रिवाजो, कर्म कांड एवम दिखावे के ज्यादा धर्म हो गया जिस से इसी में स्वार्थ में अंधे इसी धर्म के लोगो ने इसी धर्म को अधिक नुकसान पहुचाया है। सनातन धर्म हिन्दू धर्म मे परिवर्तित हो जाति, वर्ण व्यवस्था, ऊंच-नीच, छुआ छूत और सामाजिक कुरीतियों का शिकार होता चला गया। व्यवहार में गीता ही एक मात्र ग्रन्थ है जिस का वास्तविक अध्ययन स्पष्ट रूप से चिंतन की वास्तविकता को बताता भी है और गलत मान्यताओं का खंडन भी करता है। इस के इस का अध्ययन गहन चिंतन और मनन से होना चाहिए, किन्तु कितने लोग इसे उस रूप में अध्ययन करते है। उन के लिये गीता भी मंत्र पाठ का ही ग्रन्थ है।

इस विषय को अधिक आगे बढ़ाना, गीता के अध्ययन से बाहर ले जाना है। किन्तु यह अवश्य कहना चाहूंगा कि अत्यंत सहज भाव से अधिकतम लोग कह देते है कि मुझे यह पढ़ने में समझ मे नही आता। हमारी संस्कृति तो कमजोर हो रही है किंतु हमारी भाषा भी उतनी कमजोर हो रही है। सही शब्दो का चयन, उस का अर्थ एवम व्याख्या तक हम न तो पढ़ सकते है और न ही समझने के लिये तैयार है। हमारी संस्कृत भाषा को कितने लोग जानते है, जो विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है। फिर हिंदी तक का भी पूर्ण ज्ञान नही। जब पठन नही होगा तो चिंतन भी नही होगा। जब चिंतन नही होगा तो मनन भी नही होगा। जब चिंतन-मनन नही होगा तो विश्वरुप दर्शन भी मात्र पुस्तक में लिखी लकीरो सा रह जायेगा। अतः जो सहज में अज्ञान भाषा का है, वह सहज नही, हमारी सभ्यता और संस्कृति के विनाश की ओर ले जाने वाला मार्ग है। जिसे हम सब खीच कर ले जा रहे है, फिर भी ज्ञान की बाते पर बाते किये जाते है। विश्वरूप दर्शन की अभिलाषा का अर्थ ही यही है कि हमे आत्मज्ञानी होना। आचरण में, व्यवहार में,  संस्कृति में, सभ्यता में और पठन के ज्ञान में। इसलिये सर्व प्रथम अपना विकास करे। अपने को विश्वरूप के दर्शन के योग्य बनाये। फिर समाजक दिशा निर्देश करे।

ईश्वर ने हमे अवसर दिया है, हमारे सामने साक्षात परब्रह्म निर्गुणाकार परमात्मा सगुण स्वरूप में हमे अपना वास्तविक स्वरूप से परिचित करवा रहा है। यही समय है हम एकाग्र चित्त हो कर उस परमात्मा का चिंतन करे। इस अध्याय में उसे ही देखे, उसे ही सुने और उस से ही प्रार्थना करे।

इस के लिये हमें सारथी स्वरूप परमात्मा की आवश्यकता है, जो हमे विजय दिला सकता है, जो हमारी आत्मा को शुद्ध-बुद्ध कर सकता है। आवश्यकता आत्मावलोकन की है। अध्याय प्रथम का विषाद में पड़ा अर्जुन अब तक परमात्मा के दर्शन कर के अपने विषाद से मुक्त हो कर परमात्मा की स्तुति कर रहा है।  अध्याय 11 का पठन ही वह सारथी है। उस के अध्ययन से ही वह स्वरूप का दर्शन हो पायेगा। शर्त यही है कि अध्ययन को उसी भाव से पढ़ा जाए, जिस की अभिव्यक्ति महृषि व्यास जी ने अर्जुन के माध्यम से की है।

अतः हमें अपनी क्षमताओं का आकलन अष्टवक्र जी गीता में निम्न शब्दो मे करना है।

अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते हैं कि

1. शंकारहित और मुक्त मनवाला पुरुष, मुक्ति की साधनारूप क्रियाओं- यम, नियम आदि को आग्रह के साथ ग्रहण नहीं करता है; वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ और खाता हुआ सुखपूर्वक रहता है। यम, नियम आदि उससे स्वभावतः होते रहते हैं।।

2. यथार्थ ज्ञान के श्रवण मात्र से अंतःकरण से पूर्ण शुद्ध पुरुष; न सत्य आचरण को, अनाचार को और न उदासीनता को देखता है। उसके लिए किसी जप, तप, योग, ध्यान, समाधि, कर्मकाण्ड, हठयोग आदि की कोई आवश्यकता नहीं है।।

3. धीर ज्ञानी पुरुष, जबकुछ शुभ-अशुभ कार्य करने को आ पडता है, तो वह सरलता, सहजता के साथ करता है, क्योंकि उसका स्वभाव बालकों की तरह होता है।।

4. आत्मज्ञानी सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। सभी बन्धनों से मुक्त होकर परमानन्द में स्थित हो जाना ही स्वतंत्रता है, यही मुक्त मुक्ति है। स्वतंत्रता से नित्य परमसुख परमपद को प्राप्त होता है।।

5. जब कोई व्यक्ति अपने को शरीर, मन व अहंकार से अलग केवल आत्मरूप निश्चित कर लेता है, उसी पल वह न करनेवाला रहता है और न भोगनेवाला ही। उसका अहंकार नष्ट हो जाता है, अहंभाव समाप्त हो जाता है, उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियों का नाश हो जाता है।।

6. ज्ञान स्पृहामुक्त हो जाने से वास्तविक शान्ति को प्राप्त होता है; उसकी शान्ति बनावटी नहीं, स्वाभाविक होती है। यदि ऐसा ज्ञानी कभी उच्छृखलता भी दिखाता है, तो भी वह शोभा पाता है; क्योंकि उसमें कोई दोष नहीं होता, उसके पीछे स्पृहा, वासना नहीं होती ।।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

।। हरि ॐ तत सत।। विशेष 11.18 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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