।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.17 II
।। अध्याय 11.17 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.17॥
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥
‘kirīṭinaḿ gadinaḿ cakriṇaḿ ca,
tejo-rāśiḿ sarvato dīptimantam..।
paśyāmi tvāḿ durnirīkṣyaḿ samantād,
dīptānalārka-dyutim aprameyam”..।।
भावार्थ:
मैं आपको चारों ओर से मुकुट पहने हुए, गदा धारण किये हुए और चक्र सहित अपार तेज से प्रकाशित देख रहा हूँ, और आपके रूप को सभी ओर से अग्नि के समान जलता हुआ, सूर्य के समान चकाचौंध करने वाले प्रकाश को कठिनता से देख पा रहा हूँ। (१७)
Meaning:
I see you with a crown, mace and discus, glowing with an abundance of brilliance everywhere. The blazing fire of sunlight from all sides makes you incomprehensible, difficult to perceive.
Explanation:
As he saw more aspects of the cosmic form, Arjuna realized that he could also see divinity in that form, not just the material world. The mace and discuss that he saw are weapons of Lord Vishnu. They symbolize spiritual discipline and the destructive power of time, respectively. Another symbol of Lord Vishnu is the conch, which symbolizes a call to action and a rebuke against lethargy. Arjuna also sees a crown because Ishvara is the ultimate commander and does not move under the control of any selfish desires.
Physical eyes get blinded upon seeing something very bright. The cosmic form before Arjun had a brilliance that exceeded thousands of blazing suns. As the sun dazzles the eyes, the universal form was immensely stunning to the eyes. He was able to behold it only because he had received divine eyes from the Lord.
He is standing in kurukshetra, the land in which both side several kings and army commondos are standing with weapons and wearing thrown. It is weakness of human, that he always look cosmos image of GOD according to his thoughts, circumstances and attachment, else in vishwarup has no specific site to see.
Within the universal form, Arjun also perceived the four-armed Vishnu form of the Lord, with the four famous emblems—mace, conch, disc, and lotus flower.
“The blazing fire of sunlight”, “abundance of brilliance everywhere” – these poetic phrases convey the light of the eternal essence that Arjuna saw in the cosmic form. It is the same eternal essence that resides within all of us but is covered with a layer of avidya or ignorance. As we have seen earlier, the eternal essence inside us enables our mind, intellect, senses and body to function. Ishvara, the purest embodiment of the eternal essence, shines like an infinite number of suns, without anything to obstruct its brilliance.
Now, no matter how hard he tried, Arjuna was not able to accurately capture his experience in words. This is because the eternal experience is not an object that can be perceived with the senses and described by our mind and intellect. He admits this limitation of his mind by declaring that the cosmic form is “aprameyam”, it is incomprehensible.
।। हिंदी समीक्षा ।।
विश्वरूप का और अधिक वर्णन करते हुये अर्जुन बता रहे है कि उस अचिन्त्य अग्राह्य दिव्य रूप में अद्वितीय प्रकाश युक्त वहाँ मुकुट धारण किए शंख चक्र गदाधारी भगवान् विष्णु को देख रहे है। परमात्मा का यह शुभ्रतम चतुर्भुज स्वरूप कृष्ण के रूप में विष्णु इस रूप से भिन्न सारथी बन कर घोड़े की लगाम थामे थे। हिन्दू शास्त्रों में देवताओं को कूछ विशेष शस्त्रास्त्रयुक्त या चिह्नयुक्त बताया गया है जिनका विशेष अर्थ भी है। ये विशेष पदक जगत् पर उनके शासकत्व एवं प्रभुत्व को दर्शाने वाले हैं। जो व्यक्ति बाह्य परिस्थितियों का स्वामी तथा मन की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का शासक है, वही वास्तव में, प्रभु या ईश्वर कहलाने योग्य होता है।
विश्वरूप में किरीट, गदा, चक्र धारण किये यह स्वरूप चारो ओर अनेक किरीट, गदा और चक्र धारियों के रूप में इस प्रकार फैला था, जिस का न आदि, न अंत और न ही मध्य ज्ञात हो रहा था। वहॉ का प्रकाश इतना अधिक था कि दिव्य दृष्टि होने के बावजूद भी किसी भी दृश्य पर स्थिर भाव से देख भी नही पा रहा है।
जीव प्रकृति से बंध है, अर्जुन युद्ध भूमि में खड़े है इसलिए जब निराकार स्वरूप में परब्रह्म के विश्व रूप में देखने की बात है तो उसे अनेक राजा और सैनिक जो युद्ध में अस्त्र और शस्त्र से सुसज्जित और अपने अपने मुकुट धारण किए है, वे ही विश्वरूप में उसे दिख रहे है। जीव का भाव, संस्कार, ज्ञान और अनुभव के साथ साथ भय, आशंका और कोतुहल ही उस के लिए विश्वरूप में परिणित हो कर दिखता है क्योंकि उस को अपने अनिश्चित भविष्य के प्रति हमेशा ही अनिर्णीत शंका और भय रहता ही है। इसलिए अर्जुन अपने भावों और दृश्य को देखते हुए, अपने भाव भी व्यक्त नही कर पा रहे है।
जो व्यक्ति अपने मन का और बाह्य आकर्षणों का दास बना होता है, वह दुर्बल है यदि वह राजमुकुट भी धारण किये हुये है तब भी उसका राजत्व भी उतना ही अनित्य है जितना कि रंगमंच पर बनावटी मुकुट धारण कर राजा की भूमिका कर रहे अभिनेता का होता है।
सत्तारूढ़ पुरुष को इन्द्रिय संयम और मनसंयम के बिना वास्तविक अधिकार या प्रभावशीलता प्राप्त नहीं हो सकती। निम्न स्तर की कामुक प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर अपने मन रूपी राज्य पर स्वयं ही स्वयं का राजतिलक किये बिना कोई भी व्यक्ति सुखी और शक्तिशाली जीवन नहीं जी सकता। संयमी पुरुष ही विष्णु है और वही राजमुकुट का अधिकारी है। इसलिये कृष्ण ही विष्णु है।
चतुर्भुज विष्णु अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म (कमल) धारण किये रहते हैं। यह एक सांकेतिक रूपक है। भारत में कमल पुष्प शान्ति, आनन्द, शुभ और सुख का प्रतीक है। शंखनाद मनुष्य को अपने कर्तव्य के लिये आह्वान करता है। यदि मनुष्यों की कोई पीढ़ी अपने हृदय के इस उच्च आह्वान को नहीं सुनती है, तब सर्वत्र अशान्ति, युद्ध, महामारी, अकाल, तूफान और साम्प्रादायिक विद्वेष तथा सामाजिक दुर्व्यवस्था फैल जाती है। यही उस पीढ़ी पर गदा का आघात है जो उसे सुव्यवस्थित और अनुशासित करने के लिए उस पर किया जाता है। यदि कोई ऐसी पीढ़ी हो, जो इतना दण्ड पाकर भी उससे कोई पाठ नहीं सीखती है, तो फिर उसके लिए आता है चक्र कालचक्र जो सुधार के अयोग्य उस पीढ़ी को नष्ट कर देता है। आज के युग मे यह प्रतीक सार्थक ही सिद्ध हो रहा है।
अर्जुन द्वारा किये गये वर्णन से ज्ञात होता है कि एक ही परम सत्य ब्रह्मादि से पिपीलिका तक के लिए अधिष्ठान है। वह सत्य सदा सर्वत्र एक ही है केवल उसकी अभिव्यक्ति ही विविध प्रकार की है। उसकी दिव्यता की अभिव्यक्ति में तारतम्य का कारण विभिन्न स्थूल और सूक्ष्म उपाधियां हैं जिनके माध्यम से वह सत्य व्यक्त होता है। यह विश्वरूप सब ओर से अत्यंत प्रकाशमान तेज का पुञ्ज, प्रदीप्त अग्नि और सूर्य के समान ज्योतिर्मय और देखने में अति कठिन है।
इस श्लोक में किये गये वर्णन में यह पंक्ति सर्वाधिक अभिव्यंजक है जो हमें शुद्ध चैतन्यस्वरूप पुरुष का स्पष्ट बोध कराती है। इसे भौतिक प्रकाश नहीं समझना चाहिये। यद्यपि लौकिक भाषा से यह शब्द लिया गया है, तथापि उसका प्रयोग साभिप्राय है। चैतन्य ही वह प्रकाश है, जिसमें हम अपने मन की भावनाओं और बुद्धि के विचारों को स्पष्ट देखते हैं। यही चैतन्य, चक्षु और श्रोत्र के द्वारा क्रमश रूप वर्ण और शब्द को प्रकाशित करता है। इसलिए स्वाभाविक ही है कि अनन्त चैतन्यस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण के विश्वरूप का वर्णन, अर्जुन को लड़खड़ाती भाषा में इसी प्रकार करना पड़ा कि वह विश्वरूप तेजपुञ्ज है, जो इन्द्रिय, मन और बुद्धि को अन्ध बना दे रहा है अर्थात् ये उपाधियां उसका ग्रहण नहीं कर पा रहीं हैं।
अप्रमेय (अज्ञेय) यद्यपि अब तक अर्जुन ने अपनी ओर से सर्वसंभव प्रयत्न करके विराट् स्वरूप का तथा उसके दर्शन से उत्पन्न हुई मन की भावनाओं का वर्णन किया है, परन्तु इन समस्त श्लोकों में निराशा की एक क्षीण धारा प्रवाहित हो रही प्रतीत होती है। अर्जुन यह अनुभव करता है कि वह विषयवस्तु की पूर्णता को भाषा की मर्यादा में व्यक्त नहीं कर पाया है। भाषा केवल उस वस्तु का वर्णन कर सकती है, जो इन्द्रियों द्वारा देखी गयी हो या मन के द्वारा अनुभूत हो अथवा बुद्धि से समझी गयी हो। यहाँ अर्जुन के समक्ष ऐसा दृश्य उपस्थित है, जिसे वह अनुभव कर रहा है, देख रहा है और स्वयं बुद्धि से समझ पा रहा है और फिर भी कैसा विचित्र अनुभव है कि जब वह उसे भाषा की बोतल में बन्द करने का प्रयत्न करता है तो वह मानो वाष्परूप में उड़ जाता है अर्जुन, इन्द्रियगोचर वस्तुओं के अनुभव की तथा भावनाओं की भाषा में वर्णन करने का प्रयत्न करता है, किन्तु उस वर्णन से स्वयं ही सन्तुष्ट नहीं होता है। यहाँ एक बड़े आश्चर्यकी बात है कि भगवान् ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी थी पर वे दिव्य दृष्टि वाले अर्जुन भी विश्वरूप को देखने में पूरे समर्थ नहीं हो रहे हैं ऐसा देदीप्यमान भगवान् का स्वरूप है। आप सब तरफ से अप्रमेय (अपरिमित) हैं अर्थात् आप प्रमा(माप) के विषय नहीं है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि आदि कोई भी प्रमाण आपको बताने में काम नहीं करता क्योंकि प्रमाणों में शक्ति आप की ही है। आश्चर्यचकित मानव उस वैभव का गान अपनी बुद्धि की भाषा में करने का प्रयत्न कर रहा है। परन्तु यहाँ भी केवल निराश होकर यही कह सकता है कि, हे प्रभो आप सर्वदा अप्रमेय हैं अज्ञेय है। यद्यपि कवि ने विराट् स्वरूप का चित्रण दृश्यरूप में किया है तथापि वे हमें समझाना चाहते हैं कि सत्स्वरूप आत्मा, वास्तव में द्रष्टा है और वह बुद्धि का भी ज्ञेय विषय नहीं बन सकता है। आत्मा द्रष्टा और प्रमाता है, और न कि दृश्य और प्रमेय वस्तु।
अब आगे के श्लोक में अर्जुन भगवान् को निर्गुणनिराकार, सगुणनिराकार और सगुणसाकाररूप में देखते हुए भगवान् की स्तुति करते हुए क्या कहते पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.17।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)