Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.13 II

।। अध्याय      11.13 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.13

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।

अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा॥

“tatraika-sthaḿ jagat kṛtsnaḿ,

pravibhaktam anekadhā..।

apaśyad deva- devasya,

śarīre pāṇḍavas tadā”..।।

भावार्थ: 

पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से अलग-अलग सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को सभी देवताओं के भगवान श्रीकृष्ण के उस शरीर में एक स्थान में स्थित देखा। (१३)

Meaning:

Then, the Paandava saw the entire universe with many divisions located in one place in the body of that lord of lords.

Explanation:

Previously, Arjuna was overwhelmed by the sheer vastness of Ishvara’s cosmic form. There was so much going on, so many shapes and forms, that he did not know where to look. He took some time to get accustomed to the radiance emitted from that form. Now that his vision became a little clearer, he saw the entire universe with the earth, the sky, the oceans, animals, plants, trees and humans in one tiny corner of that vast cosmic form.

Sant Jnyanadeva provides some illustrations to convey the how small the universe looked. It was like a few atoms on Mount Meru, a few bubbles in the vast ocean and an anthill on planet earth. Such was the vastness of the cosmic form that even our universe looked puny. In the Srimad Bhagavatam, we see a similar description.

Yashoda saw herself and her village in a tiny corner of the universe that was situated in the yawning toddler Shri Krishna’s mouth.

In this shloka, Arjuna quite literally saw “the big picture”. Like us, he was concerned and preoccupied with his problems, his challenges, and his worries. He now came face to face with “ananta koti brahmanda naayaka”, the lord of an infinite number of universes. When Arjuna saw Ishvara’s cosmic form, he realized that the universe is nothing but a small fraction of Ishvara’s creation. The tiny wave realized how huge the ocean really is.

At that time, means what; at which time, at the time when divya cakṣu was given. Before that he saw the same world; but it was a persecuting world; problematic world; unfaceable world; burdensome world. Now the very same world has become totally different and therefore divya cakṣu pradhāna anantharam; after being blessed with Divya cakṣu Arjuna saw the Viśva rūpa.

Sañjaya was given a special ESP; special power by Vyasācārya by the special power Sañjaya could remain in the palace with Dritarāṣtra and he could like closed circuit TV or satellite channel, he could have the total vision of the battlefield and not only he could see the people, but it was also a special satellite TV that Sañjaya could read even the mind of the people. And therefore, Arjuna’s feelings and emotions also Sañjaya is able to recognise and therefore Sañjaya gives the description here, which we are seeing now in the 13th verse:

।। हिंदी समीक्षा ।।

संसार मे परमात्मा के प्रति मोक्ष के द्वैत एवम अद्वैत दो भाव है। भक्ति भाव मे भक्त और भगवान दो अलग अलग होते है। किंतु इन का सम्बंध सर्मपण एवम प्रेम का जुड़ा है, इस दूसरे के प्रति इतना अधिक समर्पण होता है, की दो होते हुए भी एक भाव के होता है, इस को विशिष्टाभाव अद्वैत कहते है। अर्जुन कृष्ण के भक्त है, भक्त को प्रेम वश परमात्मा अपना स्वरूप दिखा रहे है, किन्तु उस के भाव को प्रकट न करते हुए, महृषि व्यास जी ने संजय के माध्यम से अर्जुन क्या देख रहे है, इस का वर्णन पहले किया है। यही उन की विशिष्टता है कि विराट विश्वरूप के दर्शन का वर्णन अन्य व्यक्ति (संजय) के माध्यम से किया। इस के विशिष्टाभाव का वर्णन अर्जुन के माध्यम से आगे पढ़ेंगे। जब तक हम विराट स्वरूप को नही पहचान लेते, तब तक अर्जुन के व्यक्त भाव को भी नही पहचान सकते।

संजय अर्जुन को भगवान के विराट स्वरूप के दर्शन करते हुए का वर्णन करते हुए आगे कहते कि पांडु पुत्र अर्जुन ने अनेक प्रकार के विभागों में विभक्त अर्थात् ये देवता हैं, ये मनुष्य हैं, ये पशु-पक्षी हैं, यह पृथ्वी है, ये समुद्र हैं, यह आकाश है, ये नक्षत्र हैं, आदि-आदि विभागों के सहित (संकुचित नहीं, प्रत्युत विस्तार सहित) सम्पूर्ण चराचर जगत् को भगवान् के शरीर के भी एक देश में अर्जुन ने भगवान् के दिये हुए दिव्यचक्षुओं से प्रत्यक्ष देखा। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान् श्रीकृष्ण के छोटे- से शरीर के भी एक अंश में चर- अचर, स्थावर- जङ्गमसहित सम्पूर्ण संसार है। वह संसार भी अनेक ब्रह्माण्डों के रूप में, अनेक देवताओं के लोकों के रूप में, अनेक व्यक्तियों और पदार्थों के रूप में विभक्त और विस्तृत है। इस प्रकार अर्जुन ने स्पष्ट रूप से देखा परमात्मा के एक ही स्थान में समस्त सृष्टि को देखा। समस्त सृष्टि जो काल से परे थी, अतः जहां पूर्व जन्म, भूतकाल, वर्तमान, भविष्य एवम पुर्नजन्म एक स्थान पर हो  एवम देवता- मनुष्य, पशु पक्षी,  वृक्ष-पौधे आदि भोक्तवर्ग, समुन्द्र, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, पाताल, पितृ लोक, चंद्रलोक आदि आदि भोग्यस्थान आदि समस्त ब्रह्मांड को विभिन्न भाव से पृथक पृथक अनेक प्रकार विभक्त हुए समस्त जगत् को उस विश्वरूप देवाधिदेव हरि के शरीर में ही एकत्र स्थित देखा। पूरे ब्रह्मांड को अपने एक अंश में समेटे सारथी कृष्ण के विराट स्वरूप में दिव्य नेत्रों के कारण वो सब देख पा रहा था जो उस को एक मृत्यु लोक में जीव को देख पाना या समझ पाना असंभव सा है। अर्जुन को मानवीय कमजोरी एवम चिंताओं के समस्त उत्तर दिख रहे थे। यह कुछ वैसा ही था जो यशोदा ने बालक कृष्ण के मुख में संपूर्ण ब्रह्मांड देखा था।

संजय द्वारा अर्जुन को पांडु पुत्र कहना उस भारतीय संस्कृति को संबोधित करता है जिस में पुत्र यदि उच्च स्थान प्राप्त करे तो पिता का नाम ही ऊंचा होता है। समस्त ब्रह्मांड को एक स्थान पर देखना बुद्धि ग्राह्य होना चाहिए।  अनेक में एक तत्व को पहचानना सरल है, किन्तु एक तत्व से अनेक वस्तु की कल्पना करना सभी के लिये संभव नही। स्वामी चिन्मयानंद जी अनुसार यह विज्ञान में परमाणु से विस्तृत 103 तत्व में बनी सम्पूर्ण पृथ्वी एवम संसार है। विज्ञान का विद्यार्थी है वस्तु को उस के तत्व या वैज्ञानिक नाम से पहचानता है। वह ही एक से अनेक की कल्पना एक तत्व देख कर सकता है।

आधुनिक विज्ञान से भी इसके समान दृष्टांत उद्धृत किया जा सकता है। रसायनशास्त्र में द्रव्यों का वर्गीकरण कर के उन का अध्ययन किया जाता है। जगत् की रसायन वस्तुओं का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि जगत् में लगभग एक सौ तीन तत्व है। और अधिक सूक्ष्म अध्ययन से वैज्ञानिक लोग परमाणु तक पहुंचे, अब उसका भी विभाजन करके पाया गया कि परमाणु भी इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन से बना है। परमाणु के इस स्वरूप से सुपरिचित वैज्ञानिक जब बहुविध जगत् की ओर देखता है, तब उसे यह जानना सरल होता है कि ये सभी पदार्थ परमाणुओं से बने हैं। इसी प्रकार, यहाँ जब अर्जुन को श्रीकृष्ण की अहैतु की कृपाप्रसाद से यह विशेष ज्ञान् प्राप्त हुआ, तब वह भगवान् के शरीर में ही सम्पूर्ण विश्व को देखने में समर्थ हो गया।

परमात्मा सूक्ष्म से सूक्ष्म अत्यंत सूक्ष्म है जिस के एक अंश से समस्त सृष्टि की रचना हुई, यही तत्व को जानना या देखना ब्रह्मत्त्वविद होना है।

व्यवहार में अर्जुन जो देख रहा है, वह संजय के मुख से इसलिए सुन रहे है, क्योंकि संजय को भी दिव्य दृष्टि व्यास जी ने प्रदान की। किंतु जब आप हवाई यात्रा में हो तो नीचे धरती छोटी छोटी दिखती है, पर्वत की चोटी से घाटी छोटी से दिखती है और यात्रा में प्रकृति, मानव, घर, खेत, पशु पक्षी आदि सभी दिखते है किंतु उस में परमात्मा के विश्व रूप को हम नहीं देख पाते, कारण की हम सब राग – द्वेष से बंधे है। यदि आत्मशुद्धि प्राप्त हो तो यह दिव्य दृष्टि भी दिखेगी कि संसार में परब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नही। अतः परमात्मा के दर्शन के दृष्टिकोण में परिवर्तन आवश्यक है। जब तक दृष्टिकोण में संसार और प्रकृति  के बंधन की स्वीकृति रहेगी, परमात्मा का दर्शन हो नही सकता।

इस विराट दृश्य को देखकर अर्जुन के शरीर और मन पर होने वाली प्रतिक्रियाओं को संजय ने ध्यानपूर्वक देखा, उसे  दिव्य दृष्टि में किसी के मन की बात भी जान सकने की शक्ति प्राप्त थी, इसलिए अर्जुन कैसा महसूस कर रहे है, उनका विवरण सुनाते हुए वह क्या कहता है, हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 11.13।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply