।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.12 II
।। अध्याय 11.12 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.12॥
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
“divi sūrya- sahasrasya,
bhaved yugapad utthitā..।
yadi bhāḥ sadṛśī sā syād,
bhāsas tasya mahātmanaḥ”..।।
भावार्थ:
यदि आकाश में एक हजार सूर्य एक साथ उदय हो तो उनसे उत्पन्न होने वाला वह प्रकाश भी उस सर्वव्यापी परमेश्वर के प्रकाश की शायद ही समानता कर सके। (१२)
Meaning:
Should thousands of suns happen to rise in the sky simultaneously, their blaze would resemble the light of that magnificent one.
Explanation:
To better give us an idea of the level of cosmic form’s brightness, Sanjaya compares to the radiance emitted by an infinite number of suns rising at the same time. Note that “sahasra” means infinite and not the literal meaning, which is thousand. Some scientists who have witnessed nuclear explosions have also used similar language to describe something that is bright beyond comparison.
So where does this radiance come from? Let us investigate. The Brihadaranyaka Upanishad is one of the primary texts that discusses topics regarding the eternal essence. In one instance, it uses the phrase “effulgent infinite being” to describe the eternal essence. This is the source of the radiance. We never get to experience it because it is covered up by the material world. In this case, Shri Krishna enabled Arjuna to see the infinite light and radiance of the eternal essence in its pristine form.
so that will be the brilliance, that will be the comparison for the brilliance of the mahātma. Mahātma means Viśva rūpa Īśvaraḥ; So mahān anathaḥ śarīram yasya mahātma; this place ātma does not mean satcitanānda ātma; here it means śarīram; mahātma means infinite body is the Lord; So that is the brilliance, it is indescribable.
We also have to remember that the comparison made by Sanjaya is helpful but compares two things that are difficult to compare. Even the brilliance of infinite suns is still a brilliance of the material world, whereas Ishvara’s brilliance is divine, far superior that any material brilliance.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अव्यक्त परमात्मा जब व्यक्त स्वरूप में दर्शन दे रहा हो तो उस के आलोक एवम दर्शन का वर्णन करना मानो सूर्य को दीपक दिखाना है। किंतु व्यास जी यह सशक्त वर्णन संजय के माध्यम से किया। धृष्टराष्ट्र जन्म से अंधे थे इसलिये प्रकाश को वो नही जानते थे, उन की कल्पना में वस्तु चार ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण करने योग्य थी। पुत्र मोह के कारण वो संजय द्वारा भगवान कृष्ण की दिव्यता को भी नही समझ पा रहे थे।
संजय भी उस दीप्तयमान प्रकाशपुंज परमात्मा के तेज को सही प्रकार से नही देख पा रहा था, उसे परमात्मा का वह प्रकाश ऐसा महसूस हो रहा था मानो हजारों सूर्य एक साथ उदय हो गए हो। उस विश्व रूप की अंग प्रभा के तेज के समक्ष शायद सहस्र सूर्य भी अल्प ही सिद्ध हो। इस प्रकर जब हजारों सूर्यों के प्रकाश को उपमेय बनाने में भी दिव्य दृष्टि वाले सञ्जय को संकोच होता है, तब वह प्रकाश विराट् रूप भगवान् के प्रकाश का उपमान हो ही कैसे सकता है कारण कि सूर्य का प्रकाश भौतिक है, जब कि विराट् भगवान् का प्रकाश दिव्य है। भौतिक प्रकाश कितना ही बड़ा क्यों न हो, दिव्य प्रकाश के सामने वह तुच्छ ही है। भौतिक प्रकाश और दिव्य प्रकाश की जाति अलग अलग होने से उनकी आपस में तुलना नहीं की जा सकती।
संजय अब भगवान के विश्वरूपी दिव्य तेज का वर्णन करता है। इसकी चकित कर देने वाली दीप्ति का आभास कराने के लिए वह मध्याह्न में एक साथ हजारों अर्थात असीमित या असंख्य चमकते हुए सूर्यों के प्रकाश से इसकी तुलना करता है। वास्तव में भगवान की प्रभा असीमित है और इसे सूर्य के तेज के साथ परिमाणित नहीं किया जा सकता। प्रायः वक्ता अप्रकट का वर्णन प्रकट के वहिर्वेशन द्वारा करते हैं। संजय ने यहाँ हजारों सूर्यों की उपमा देकर अपने अनुभव को व्यक्त किया है कि भगवान के विश्वरूप के तेजस्व के समतुल्य कोई नहीं है।
तुलसीदास जी का कथन है, “मरुत कोटि सत विपुल बल, रवि सत कोटि प्रकास” । अर्थात परमात्मा के प्रकाश से यह जगत प्रकाशित है, तो जो स्वयं प्रकाश है, उस की तुलनात्मक उपमा नही हो सकती। वह दिव्य प्रकाश परमात्मा का कल्पनातीत है। कुछ हद्द तक यह माने की जापान में द्वितीय विश्व युद्ध के समय परमाणु बम के फटने पर जो प्रकाश का वर्णन हम पढ़ते है, यह प्रकाश उस से भी परे है। संजय भी यह देख सके, इस के लिये वह महृषि व्यास का आभार महसूस करते है।
जिस प्रकाश से विराट विश्वरूप दीप्तिमान हो रहा है, वह सच्चिदानंद आत्म स्वरूप नही हो कर अध्याय 10 ने वर्णित विभिन्न विभूतियों का स्वरूप है, जो भगवान के एक अंश में संपूर्ण ब्रह्मांड का दर्शन करवा रहा है।
उपनिषदों में भी आत्मा का वर्णन कुछ इसी प्रकार किया गया है। किन्तु मानवीय कमजोरी ही है वो भव्यता की तुलना अपने सीमित ज्ञान से हो कर सकता जिसे वो जानता है, इसलिये यह स्वीकार करना पड़ेगा कि संजय के मुख से और विशेष कर जब वह भगवान् श्रीकृष्ण के ईश्वरीय रूप का वर्णन कर रहा है, इस उपमा को विशेष ही आकर्षण और गौरव प्राप्त होता है। वह विराट स्वरूप परमात्मा के दिव्य, कांतिस्वरूप, अलौकिक और अपरिमित स्वरूप के देख रहा है और इसे अधिक विवरण देकर इस दृश्य को और अधिक सुन्दर बनाते हुए संजय आगे क्या कहता है, यह हम अगले श्लोक में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.12।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)