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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.10-11 II

।। अध्याय      11.10-11 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.10-11

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्‌ ।

अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्‌ ॥

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्‌ ।

सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्‌ ॥

“aneka- vaktra- nayanam,

anekādbhuta- darśanam..।

aneka- divyābharaṇaḿ,

divyānekodyatāyudham..।।10।।

divya- mālyāmbara- dharaḿ,

divya- gandhānulepanam..।

sarvāścarya- mayaḿ devam,

anantaḿ viśvato- mukham”..।।11।।

भावार्थ: 

इस विश्वरूप में अनेकों मुँह, अनेकों आँखे, अनेकों आश्चर्यजनक दिव्य- आभूषणों से युक्त, अनेकों दिव्य- शस्त्रों को उठाये हुए, दिव्य- मालाऎँ, वस्त्र को धारण किये हुए, दिव्य गन्ध का अनुलेपन किये हुए, सभी प्रकार के आश्चर्यपूर्ण प्रकाश से युक्त, असीम और सभी दिशाओं में मुख किए हुए सर्वव्यापी परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। (१०-११)

Meaning:

With several faces and eyes, showing several marvellous sights, wearing several divine ornaments, armed with several divine uplifted weapons. Wearing divine garlands and clothes, anointed with divine fragrances, all of these wonderful (sights) were shining and infinite, with faces on all sides.

Explanation:

A person has limits in every aspect. He has limit of face, time, space, size, holding and exercising. But when he starts working in a group all the limits are increase to the extent of group, it means all the person faces are group faces. When the entire universe is one group, what will be happened, we see in cosmic visual of God.

Shri Krishna has a unique style of communication. Like an artist, he first sketches out a broad outline of what he wants to cover, and then step by step fills in the colour to create a grand painting. We see this style in the way he reveals the Vishwa roopa, the cosmic form to Arjuna. Sanjay elaborates upon Shree Krishna’s divine universal form with the words aneka (many) and anant (unlimited). The entire creation is the body of God’s cosmic form, and therefore it contains countless faces, eyes, mouths, shapes, colours, and forms. The human intellect is habituated to grasping things within the limited kernel of time, space, and form. The cosmic form of God revealed unusual wonders, marvels, and miracles in all directions, transcending the limitations of space and time, and thus it could be aptly termed as wondrous. 

When someone is confronted with such a mighty spectacle, they want to take it all in. The Sistine chapel in the Vatican is an example of an artwork where most people are so overwhelmed with all the details and the complexity that they don’t know where to look. The cosmic form surrounded and engulfed Arjuna to such an extent, there were so many sights to see, that he did not know where he should look and where shouldn’t he look.

Now, as a hint of things to come, Shri Krishna displays both aspects of his personality. On one hand he is decked in fine jewellery and ornaments, creating a sight that is pleasing to the eye. But on the other hand his weapons show another aspect to his personality, that he has the potential to use destructive force if necessary.

Sanjaya continues the description of Ishvara’s cosmic form in this shloka. Shri Krishna, after giving a hint of Ishvara’s destructive power to Arjuna, showed his soumya roopa or his pleasing form. In other words, all the five senses and the mind enjoyed taking in this pleasant form. To that end, Arjuna saw Ishvara dressed up in fine clothes and garlands, as well as anointed with divine perfumes.

Anekavaktram means what; Arjuna learns to see all the mouths of all the people as the mouth of the Lord and suppose you say No No No, it is my mouth, that is called ahaṁkāra; that is the problem; where is the question of my mouth when I myself am not there, because there is no individual separate from totality. There is no Tamil Nadu separate from India; there is no wave separate from ocean; there is no vaṣṭi separate from samaṣṭi. When I myself do not exist, where is the question of my mouth, my eyes, my land, my dress, my weapons etc. etc.

Another aspect of this form that it did not have a “centre”. Whenever we try to worship God, we always choose either an idol or an image so that we can focus our thoughts. However, many of us tend to get fixated on one deity, image or idol and consequently shun other deities. Sanjaya, in describing the cosmic form, noted that it had “infinite faces”. In other words, whenever Arjuna tried to pinpoint one face and say “this is Ishvara”, he would fail. Shri Krishna did this to remove any prior conceptions of Ishvara that Arjuna would have harboured.

Now, we always need to keep one thing in mind when we contemplate the cosmic form – there is oneness behind all the diversity. It is all one being, ultimately. Just like the millions of cells, tissues and organs in our body serve one person, all the diversity seen in the cosmic form serves one Ishvara. Our minds are used to dividing things, cutting up things. The cosmic form is meant to reverse that process and unify everything.

As somebody said, it is better to have a prayer, a heart without words rather than words without heart behind. If you have the Bhavana and you are not able to verbalise, it does not matter. Therefore, that bhāvana is important.

Sanjaya used the word “devam” which means shining to describe this form. He elaborates on this in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

एक व्यक्ति की सीमाएं उस की आकृति, चेहरा, संपत्ति, समय, स्थान और साधन सीमित है। किंतु जब यही कार्य किसी समूह में सामूहिक रूप में हो, वह एक नही हो कर, समूह का चेहरा, समय और स्थान की क्षमता में परिवर्तित हो जाता है, यही संपूर्ण ब्रह्मांड की बात हो तो वह परब्रह्म का दिव्य स्वरूप है।

जिस के संकल्प मात्र से ब्रह्मांड एवम सृष्टि की रचना हुई, जो जड़-चेतन के कण कण में जो समाया हुआ है, यदि वह निर्गुणाकार परमेश्वर अपने स्वरूप को प्रकट करता है और जो अर्जुन को दिख रहा है, उस का वर्णन संजय द्वारा व्यास जी अपनी अद्धभुत लेखन क्षमता से  करते है एवम जिसे संत ज्ञानेश्वर अपनी ज्ञानेश्वरी में संवारते हुए कहते है। जब परमात्मा अपने प्रकाश से सृष्टि को प्रकाशित करते है तो अर्जुन ने अनेक चेहरे देखे, जो एक से बढ़ कर सुंदर थे, दूसरी और ऐसे भयानक चेहरे थे मानो कालरात्रि की सेना ही उमड़ पड़ी हो, जो स्वयं मृत्यु के मुख से निकल कर आ रहे । चहुंओर सौम्य एवम विकराल चेहरों में विश्वरूप से अनेक रंगों की आंखे एवम सूर्य के समान तपती आंखे एवम मुख दिखाई दे रहा था। जैसे कल्पांत काल मे श्याम वर्ण के मेघ समूह में विद्युत की चमक दृष्टि गत होती है वैसे ही उन श्याम और टेढ़ी भौंहों के नीचे अग्नि की तरह पीत वर्ण की दृष्टि की किरणें सुशोभित हो रही थी। विराट् रुप से प्रकट हुए भगवान् के जितने मुख और नेत्र दीख रहे हैं, वे सब के सब दिव्य हैं। भगवान् के विराट् रुप में जितने रूप दीखते हैं, जितनी आकृतियाँ दीखती हैं, जितने रंग दीखते हैं, जितनी उन की विचित्र रूपसे बनावट दीखती है, उन  सब का दर्शन अद्भुत दिख रहा है।

लाखों की भीड़ किसी मेले में दिखे जिस की शुरुवात और अंत नहीं दिखता हो, तो श्रद्धा, प्रेम और विश्वास से समझ लीजिए, जो लाखों चेहरे दिख रहें हैं वे परब्रह्म का ही विश्व स्वरूप है।

आपादमस्तकपर्यंत उस स्वरूप ऐश्वर्य को देखते समय अर्जुन को लगता है वह विश्वरूप अनेक प्रकार के रत्नों एवम अलंकारों से सुशोभित है। यह भी बताना कठिन है कि परब्रह्मस्वरूप देव ने जो नाना प्रकार के आभूषण धारण कर रखे थे वो कैसे और किस के सदृश्य थे। जिस तेज से चंद्र और सूर्यमंडल भी प्रकाशित होता है, विश्व के जीवनरूपी महातेज का जो जीवन सर्वस्व है, वह तेज ही इस विश्व रूप का श्रृंगार है। विराट् रूप में दीखनेवाले अनेक रूपों के हाथों में, पैरों में, कानों में, नाकों में, और गलों में जितने गहने हैं, आभूषण हैं, वे सब के सब दिव्य हैं। कारण कि भगवान् स्वयं ही गहनों के रूप में प्रकट हुए हैं। यह गहने कोई ओर नहीं विश्व में प्रत्येक जीव के धारण किए हुए का ही प्रतिबिंब है।

ऐसे तेज सम्पन्न श्रृंगार करने वाले देव से जब अर्जुन ने दृष्टि उन सरल हाथों की ओर डाली तो हाथ विभिन्न अस्त्रों एवम शास्त्रों से सुशोभित थे। विराट् रुप भगवान् ने अपने हाथों में चक्र, गदा, धनुष, बाण, परिघ आदि अनेक प्रकार के जो आयुध (अस्त्रशस्त्र) उठा रखे हैं, वे सब के सब दिव्य हैं। जिस काल एवम पृष्ठ भूमि में गीता की रचना की गई, उस काल मे पुरुष का पौरुष उस के बलवान, बुद्धिमान एवम अस्त्रों एवम शस्त्रों के धारण करने से ही होता था। आज भी विश्व मे शक्तिशाली देश उनको की मानते है जिस के पास आधुनिक हथियार भरपूर हो।

हम युद्ध भूमि में गीता के ज्ञान को सुन रहे है तो निश्चय ही 18 कोटि सेना के हाथ में अस्त्र –  शस्त्र होंगे, वही हम भी देख पा रहे है।

अर्जुन देव के हाथों में विभिन्न अस्त्र एवम शस्त्र देख रहा है जिन की क्षमता का आकलन वो उन हथियारों की चमक से महसूस करता है, मानो इन हथियारों से किरणों की भांति प्रबल अग्नि में नक्षत्र भुने चनों की भांति फुट रहे हो। मानो काल कूट विष की लहरों में बुझाए हुए शस्त्र को देव अपने  असंख्य हाथों में प्रचंड विद्युत को पकड़े हुए है।

अर्जुन का ध्यान परमात्मा के अस्त्र- शस्त्रों से सज्जित हाथों से हटा तो उसे परमात्मा महाशक्ति पीठ के मूल कंठ एवम मस्तक पर अलौकिक पुष्प मालाएं शोभित नजर आने लगी। पीतांबर से ढका परमात्मा का तन ऐसे शोभा दे रहा था मानो स्वर्ग ने सूर्य के तेज का परिधान धारण कर लिया हो या मेरुगिरि स्वर्ण से आच्छादित कर दिया हो। जैसे चांदनी का तह लगा कर आकाश पर उस की खोली चढ़ा दी हो या क्षीर समुन्द्र को दुग्ध के सदृश्य धवल वस्त्र पहनाया हो वैसा चंदन का लेप भगवान के पूरे शरीर पर लगा था।

चारो ओर सुगन्ध के वातावरण आत्मस्वरुप परमात्मा का तेज और अधिक द्युतिमान हो रहा था। इस प्रकार विराट रूप  भगवान् ने  गले में फूलों की, सोनेकी, चाँदीकी, मोतियोंकी, रत्नोंकी, गुञ्जाओं,आदिकी अनेक प्रकार की मालाएँ धारण कर रखी हैं। उन्होंने अपने शरीरों पर लाल, पीले, हरे, सफेद, कपिश आदि अनेक रंगों के वस्त्र पहन रखे हैं । इसी प्रकार भगवान् ने  ललाटपर कस्तूरी, चन्दन, कुंकुम आदि गन्धके जितने तिलक एवम लेप कर रखा है।

इस प्रकार देखते ही चकित कर देनेवाले, अनन्तरूपवाले तथा चारों तरफ मुख- ही- मुखवाले अपने परम ऐश्वर्यमय रूप को भगवान् ने अर्जुन को दिखाया। जैसे, कोई व्यक्ति दूर बैठे ही अपने मन से चिन्तन करता है कि मैं हरिद्वार में हूँ तथा गङ्गाजी में स्नान कर रहा हूँ, तो उस समय उस को गङ्गाजी, पुल, घाट पर खड़े स्त्री-पुरुष आदि दीखने लगते हैं तथा मैं गङ्गाजी में स्नान कर रहा हूँ – ऐसा भी दीखने लगता है। वास्तव में वहाँ न हरिद्वार है और न गङ्गाजी हैं; परन्तु उसका मन ही उन सब रूपों में बना हुआ उस को दीखता है। ऐसे ही एक भगवान् ही अनेक रूपों में, उन रूपों में पहने हुए गहनों के रूप में, अनेक प्रकार के आयुधों के रूप में, अनेक प्रकार की मालाओं के रूप में, अनेक प्रकार के वस्त्रों के रूप में प्रकट हुए हैं। इसलिये भगवान् के विराट्रूप में सब कुछ दिव्य है।श्रीमद्भागवतमें आता है कि जब ब्रह्माजी बछड़ों और ग्वालबालोंको चुराकर ले गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये। बछड़े और ग्वालबाल ही नहीं, प्रत्युत उनके बेंत, सींग, बाँसुरी, वस्त्र, आभूषण आदि भी भगवान् स्वयं ही बन गये।

ब्रह्मस्वरूप परमात्मा का न आदि है न अंत। वो काल से भी नही बंधा। इस विराट स्वरूप परमात्मा का अर्जुन स्वयम समझ नही पा रहा कि यह कहाँ से शुरू होता है और कहां समाप्त होता है, इस का मध्य कहाँ है। वह चारो दिशाओं में विस्तृत अनेक मुखों वाले ब्रह्म स्वरूप परमात्मा को पूर्ण स्वरूप में देख नही पा रहा क्योंकि परमात्मा का यह भव्य स्वरूप उस के चारो ओर एक समान फैला हुआ है।  साहित्य के कुशल चित्रकार व्यासजी के द्वारा चित्रित इस शब्दचित्र का यह श्लोक संजय के शब्दों में भगवान् के विश्वरूप की रूपरेखा खींचता है।संजय के समक्ष जो दृश्य प्रस्तुत हुआ है, वह सामान्य बुद्धि के पुरुष के द्वारा सरलता से ग्रहण करने योग्य कदापि नहीं कहा जा सकता। इस वैभवपूर्ण एवं शक्तिशाली दृश्य को देखकर सामान्य पुरुष तो भय और विस्मय से भौचक्का ही रह जायेगा। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कोई मन के द्वारा कल्पना किया जाने योग्य विषय नहीं है और न ही बुद्धि उसको ग्रहण कर सकती है। इसलिए, जब गीतोपदेश के मध्य यह दृश्य उपस्थित हो जाता है, तब संजय भी वर्णन करते हुए कुछ हकलाने लगता है।

विश्वरूप का यह दर्शन अद्वैतवाद का दर्शन है, जिस के जीव का राग-द्वैष मिट जाने से कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव खत्म हो गया है, उसे सृष्टि की हर रचना, जड़-चेतन में परमात्मा ही दिखना शुरू हो जाता है। विभेद दृष्टि न रहने से चारो और जो भी दिख रहा है, वह परमात्मा का ही स्वरूप है, फिर अनन्त मुख, आंखे, हाथ, सौम्य एवम रौद्र स्वरूप जो भी है, वह परमात्मा ही दिखता है।

जैसा कि किसी ने कहा, प्रार्थना करना बेहतर है, शब्दों के बिना हृदय से या हृदय से  बिना शब्दों के।  यदि आपके पास भावना है और आप बोल नहीं सकते, तो कोई बात नहीं;  लेकिन अगर आपके पास दिल के बिना शब्द हैं तो वह भी “तन मन धन सब कुछ तेरा” गा कर भी, कड़ा कड़ा ही है, फिर चाहे आप कितना भी नैवेद्यम भोग लगाए। यह महत्वपूर्ण है, सभी मुख भगवान के मुख हैं। सभी आँखें भगवान की आँखें हैं, तो प्रार्थना भी भगवान की भावना से ही होनी चाहिए।

अनेकवक्त्रम् का अर्थ क्या है;  अर्जुन सभी लोगों के मुखों को भगवान के मुख के रूप में देखना सीखता है और मान लीजिए आप कहते हैं नहीं, नहीं, यह मेरा मुंह है, जिसे अहंकार कहा जाता है;  यही दिक्कत है;  जब मैं ही नहीं हूं तो मेरे मुंह की बात कहां है;  क्योंकि समग्रता से पृथक कोई व्यक्ति नहीं है।  भारत से अलग कोई तमिलनाडु नहीं है;  सागर से अलग कोई लहर नहीं है;  समष्टि से अलग कोई वस्तु नहीं है।  जब मैं ही नहीं हूं तो मेरे मुंह, मेरी आंखों का सवाल ही कहां है।

प्रसाद और सेब की तरह, दुकान से सेब सेब है। एक बार यह मंदिर में जाकर आ गया, यह प्रसाद बन जाता है। इसलिए कोई धर्मनिरपेक्ष चीज़ तभी पवित्र होती है जब वह ईश्वर से जुड़ी हो।  यदि मैं देखूं कि सब कुछ प्रभु का है,  मेरे पास धर्मनिरपेक्ष कुछ भी नहीं है। एक विश्व रूप भक्त के लिए। कोई धर्मनिरपेक्ष चीज़ नहीं है; सर्वम् पवित्र मयम्;  तो यह एक कारण है।

परमात्मा का अनेक नेत्रों, चेहरों, मस्तक, रूपो से अलंकृत चेहरे से लेकर हाथों तक के रूप के बाद अर्जुन देव के सौम्य एवम काल स्वरूप को देख रहा है। युद्ध भूमि में अर्जुन को अपने भव्य स्वरूप का दर्शन जो सम्पूर्ण सृष्टि, भूत, भविष्य और वर्तमान काल को ले कर गीता में व्यास जी प्रकट किया है, यह उन के अद्वितीय साहस और ज्ञान का प्रतीक है, क्योंकि अभी तक जगत के पालनहार विष्णु का सौम्य स्वरूप ही लोगो मे जाना। सृष्टि से संहार तक, ब्रह्मा- विष्णु- महेश के निर्गुणाकार स्वरूप में अर्जुन ने देव स्वरूप के श्रृंगार एवम वस्त्रों भव्यता को देखा एवम इतने विशाल स्वरूप को देख कर संजय अपना वर्णन जारी रखते हुए आगे क्या देखते हुए कहते है, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 11.10 – 11।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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