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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.09 II

।। अध्याय      11.09 II

॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.9

संजय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥

“sañjaya uvāca,

evam uktvā tato rājan,

mahā- yogeśvaro hariḥ..।

darśayām āsa pārthāya,

paramaḿ rūpam aiśvaram”..।।

भावार्थ:

संजय ने कहा – हे राजन्! इस प्रकार कहकर परम- शक्तिशाली योगी भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्य- युक्त अलौकिक विश्वरूप दिखलाया। (९)

Meaning:

Sanjaya said:

O King, then having spoken this, Hari, the great Yogeshwara, showed the supreme form of Ishvara to Paartha.

Explanation:

At this point in the Gita, neither Shri Krishna nor Arjuna could continue narrating since Shri Krishna was showing the cosmic form, and Arjuna was taking it all in. The great sage Veda Vyaasa, the compiler of the Mahabharata, chose to switch the narration over to Sanjaya, who was relaying the events to Dhritraashtra, the “King” that is mentioned in this shloka.

We notice a subtle shift in the language used by Sanjaya. His praise of Shri Krishna is one degree higher than that used by Arjuna. For instance, he refers to Shri Krishna as “Mahaa Yogeshwara” whereas Arjuna uses “Yogeshwara”. It is because Sanjaya knew Shri Krishna more thoroughly and deeply than Arjuna did. Moreover, he was already blessed with divine vision through Vyaasa, which enabled him to see exactly what Arjuna saw.

Sanjay also says “Hari”. The word Harihi is also a significant word.

“harir harati pāpāni duṣṭa cittaira abhi smr̥ tāḥ.

anicayāt samspr̥ṣṭa dahat ēva hi pāvakāḥ hari pāpāni harati;”

Lord Viśṇu is called Hari becomes, the root, Hru, harati means to suck, to absorb, to withdraw all the pāpams from the devotee’s mind; it is because of the impurity.

Sant Jnyaneshwara’s commentary of this shloka emphasizes Arjuna’s good fortune of being able to view this cosmic form. He lists Lakshmi, Shesha and Garuda as tireless servants of Lord Vishnu who have yet to see the cosmic form that Arjuna sees, underscoring the love Shri Krishna for his devotee Arjuna. He also enumerates others who were able to see a tiny glimpse of this cosmic form including Yashoda and Dhruva. Even when duryodhan attempted to arrrest Shrikrishana when he has tried for compromise between Pandav and Kaurav to avoid the war, the cosmic view was shown by Shri Krishna in Assembly i.e. rajayasabha of Dhrithrastra.

So what did this form look like? In the next four verses, Sanjay describes to Dhritarashtra what Arjun saw. The word aiśhwarya means “opulence.” The cosmic form of God is replete with the manifestation of his opulence’s, and it invokes fear, awe, and reverence in the beholder.

।। हिंदी समीक्षा ।।

गीता सुनानेवाले दो लोग थे, एक स्वयम परमात्मा जो अर्जुन को सुना रहे है, दूसरे संजय जो व्यास जी से प्राप्त दिव्य दृष्टि से कृष्ण द्वारा कही गीता को धृष्टराष्ट्र को सुना रहे है। अर्जुन एवम धृष्टराष्ट्र दोनों ही मोह ग्रस्त थे किंतु अर्जुन कर्मयोगी होने से इस मोह से निर्लिप्त हो रहा था किंतु धृष्टराष्ट्र मोह में अंधे ही थे इसलिये उन को गीता के ज्ञान का कोई असर नही था। संजय सुनाने वाले परमात्मा श्री कृष्ण से इतना अधिक प्रभावित हो गया था कि वो चाहता था कि धृष्टराष्ट्र इस बात को समझे की परमात्मा जिस की तरफ है उस की जीत सुनिश्चित है, इसलिये युद्ध को टाला जाए। इसी प्रभाव में वह कृष्ण को महायोगेश्वर हरि संबोधन देते हुए संजय धृतराष्ट्र को सूचना देता है कि महायोगेश्वर हरि ने अर्जुन को अपना ईश्वरीय रूप दिखाया। उन के स्वरूप को परमं रूपमैश्वरम्  कहते हुए विराट स्वरूप को संबोधित किया। हरि का अर्थ के जो सर्वस्व हरण कर ले।  संजय के मन में अभी भी कहीं क्षीण आशा है कि यह सुनकर कि विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ हैं, सम्भवत अन्धराजा अपने पुत्रों की भावी पराजय को देखें और विवेक से काम लेकर, विनाशकारी युद्ध को रोक दें।

तो उन मौन क्षणों के दौरान संजय वर्णन करते हैं; हे राजन! भगवान कृष्ण कोई और नहीं वह विष्णु है, वह हरिहि शब्द का प्रयोग करता है, जिस का अर्थ है।

ह्रीर हरति पापानि दुष्टा चित्तैरा अभि स्मृताः..।

अनिकायात् संस्पृष्टः दहत एव हि पावकः हरिः पापानि हरति;..।।

भगवान विष्णु को हरि कहा जाता है। हरति का अर्थ है चूसना, अवशोषित करना, भक्तों के मन से सभी पापों को बाहर निकालना। यह अशुद्धि के कारण है;  मैं अपने सामने दिव्यता नहीं देखता मुझे उस राग द्वेष को हटाना है, जिसे भगवान विष्णु अवशोषित करते हैं।

हम सभी गीता पढ़ते है, हरि के दर्शन भी करते है किंतु सांसारिक राग – द्वेष में उस के वास्तविक स्वरूप को नहीं देख पाते, इसलिए पूजा पाठ के बाद भी धृतराष्ट्र की भांति ज्यों के त्यों रह जाते है।

ज्ञानेश्वरी में विश्वरूप दर्शन के लिये अर्जुन के भाग्य की प्रशंसा लक्ष्मी,, गरुड़, नारद एवम शेष नाग से अधिक की गई है क्योंकि ईश्वरीय रूप तो प्रह्लाद, बाली, ध्रुव, लक्ष्मी एवम नारद आदि कई लोगो ने देखा किन्तु विश्वरूप की झलक यशोदा ने देखी और पूर्ण दर्शन अर्जुन एवम संजय कर पा रहे है। दुर्योधन को भी यह दर्शन परमात्मा ने उस समय दिए जब कृष्ण भगवान समझौते के अंतिम प्रयास के लिए उस के पास गए और वह उन्हें बंदी बनाने का प्रयास कर रहा था।

महृषि व्यास जी की गीता की लेखन कला अद्वितीय है क्योंकि यह सब परमात्मा द्वारा सत्यापित करके लिखा है, इसी प्रकार जब परमात्मा के रूप का वर्णन का समय आया तो संजय संवाद से बताया गया क्योंकि अर्जुन जो देख रहा है वो बोलने की स्थिति में ही नही रह जाता, अतः परमेश्वर के स्वरूप को संजय के अतिरिक्त और कौन बता सकता था? धृष्टराष्ट्र जो आँख का अंधा नही, मन का भी पुत्र मोह में अंधा था, यह उन श्रोताओं के प्रतिनिधित्व करता है जो गीता अध्ययन के बाद या गीता सुनने के बाद भी कोरे के कोरे रह जाते है क्योंकि वो मोह के वश में सत्य को स्वीकार नही करते।

जीव का कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव का प्रभाव अत्याधिक होने से, परमात्मा का ज्ञान भी रज या तम गुण से प्रभावित होता है। वह अज्ञानी प्राकृतिक लाभ एवम सुखों के लिये परमात्मा की पूजा या आराधना करता है। धृतराष्ट्र भी कृष्ण से दुर्योधन के पक्ष में युद्ध टालने की अपेक्षा रखता है, इसलिये उस के विश्वरूप का दर्शन का कोई औचित्य नही दिखाई देता। जबकि संजय अपने स्वामी का भला चाहता है, इसलिये वह यह वर्णन करते हुए अपेक्षा रखता है कि उस के स्वामी समझ जाएं कि सारथी कृष्ण स्वयं भगवान विष्णु है, इसलिये युद्ध रोक कर समझौता कर ले। बताने वाले के उद्देश्य की पूर्ति तभी सम्भव है, जब सुनने वाले की इच्छा या विचार में कोई समानता हो और उस के मन मे सुनने वाले के प्रति समर्पण भाव हो।

गीता अध्ययन करने वाले सैंकड़ो लोगो मे लोग जब तक भगवान के  प्रति समर्पित भाव न हो तो अध्ययन करने वाला अहम भाव मे विश्वरूप के दर्शन से वंचित हो कर, वाचाल अर्थात इन श्लोक को रट कर बोलने वाला रह जाता है।

अलौकिक और ऐश्वर्य पूर्ण स्वरूप में और सामान्य स्वरूप में अंतर सीमित या एकरूप और अनंत आदि और अंतहीन रूप का है। इसलिए संध्या वंदना में भी कहा जाता है।

प्राच्यै दिषे नमः। दक्षिणायै दिषे नमः। प्रतिच्यै दिशे नमः। उदीच्यै दिषे नमः। ऊर्ध्वाय नमः। आधाराय नमः। अन्तरिक्षाय नमः। भूमियै नमः। विष्णुवे नमः। मृत्यवे नम:।।

जो सभी दिशाओं और सभी जगह विद्यमान है, वह विष्णु का ऐश्वर्य स्वरूप ही है।

यहाँ संजय भगवान को सब से बड़े योगेश्वर ‘महायोगेश्वर’ एवम सब के पापो एवम दुखो की हरण करने वाले ‘हरि’ शब्द से संबोधित करते है। उन के स्वरूप को ‘परम्’ अर्थात शुद्ध, श्रेष्ठ एवम अलौकिक, ईश्वरीय गुणों  के प्रभाव और तेज से युक्त एवम योगशक्ति से सम्पन्न ‘ऐश्वर’ कहते हुए, रूपम एवम विराट स्वरूप बोलते है। अगले चार श्लोकों में संजय, अर्जुन ने जो देखा था उसका वर्णन करता है। ऐश्वर्य शब्द का अर्थ ‘वैभव’ है। भगवान का विराट विश्वरूप उनके ऐश्वर्यों की अभिव्यक्तियों से परिपूर्ण है और इसे देखने से भय, विस्मय और श्रद्धा उत्पन्न होती है।संजय उस अद्भुत विराट स्वरूप अनेक मुख, नेत्र, हाथ, पैर, अनेक गन्धो , आभूषणों, फूलों, रत्नों एवम मोतियों को धारण किये एवम अनेक शस्त्र से सज्जित परमात्मा के प्रकट स्वरूप का वर्णन करते हुये और क्या कहते है, हम पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।।11.09।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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