।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.05 II
।। अध्याय 11.05 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.5॥
श्री भगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥
“śrī-bhagavān uvāca,
paśya me pārtha rūpāṇi,
śataśo ‘tha sahasraśaḥ..।
nānā-vidhāni divyāni,
nānā-varṇākṛtīni ca”..।।
भावार्थ:
श्री भगवान ने कहा – हे पार्थ! अब तू मेरे सैकड़ों-हजारों अनेक प्रकार के अलौकिक रूपों को और अनेक प्रकार के रंगो वाली आकृतियों को भी देख। (५)
Meaning:
Shree Bhagavaan said:
Behold, O Paartha, my hundreds and thousands of divine forms, of myriad kinds, and of various colours and shapes.
Explanation:
After listening to Arjun’s prayers, Shree Krishna now asks him to have a vision of his viśhwarūp, or universal form. He uses the word paśhya, meaning “behold” to indicate that Arjun must pay attention. Although the form is one, it has unlimited features, and contains innumerable personalities of multitude shapes and variegated colors. The various shapes and features are shown in next shloks 6 and 7 also. Shree Krishna uses the phrase śhataśho ’tha sahasraśhaḥ to indicate they exist in innumerable fashions and multitude ways.
But ability to see God in its original form needs certain qualification, one of the most qualification is pure heart or aatmshudhhi. We shall further discuss in forthcomming shlok.
This entire chapter, written in a poetic style, elaborately describes this form and Arjuna’s reaction to it. It is said that the chanting of this chapter is one of the highest forms of meditation possible.
To get things started, Shri Krishna “turned on” the “screen” upon which this divine form could be shown to Arjuna. He began by revealing the amount of diversity in the sheer number of colours, shapes and forms that he was about to show to Arjuna. The literal words used are “hundreds” and “thousands”, but in essence they mean infinite and innumerable.
While demonstrating the features of the latest LCD TV, the salesman will try his best to show as many channels he possibly can so that the customer is convinced about the capabilities of the TV such as number of pixels, colours and so on. Or if it is a sari shop, the salesperson will try to show innumerable varieties of the very same red colour so that the customer is confident about the range and variety in that shop’s inventory.
Shri Krishna, however, was not concerned only with lining up the diversity of forms that he was ready to show. He also wanted to highlight that there was one thing common among that infinite diversity – Ishvara himself. He indicated this by saying “pashya me roopani” – behold my forms, not behold all these forms.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अर्जुन की प्रार्थना परमात्मा से उस के एक दिव्य स्वरूप के दर्शन की थी। किन्तु यहां परमात्मा उस पर अत्यंत स्नेह एवम प्रसन्न होते हुए कहते है, है पार्थ, तू मेरे रूपों को देख। रूपों में भी तीन चार नहीं, प्रत्युत सैकड़ों हजारों रूपों को देख अर्थात् अनगिनत रूपों को देख सकता है। भगवान् ने जैसे विभूतियों के विषय कहा है कि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं आ सकता, ऐसे ही यहाँ भगवान् ने ,अपने रूपों की अनन्तता बतायी है। भगवान् उन रूपों की विशेषताओं का वर्णन करते हैं कि उन की तरह तरह की बनावट है। उन के रंग भी तरह तरह के हैं अर्थात् कोई किसी रंग का तो कोई किसी रंग का, कोई पीला तो कोई लाल आदि आदि। उन में भी एक एक रूप में कई तरह के रंग हैं। उन रूपों की आकृतियाँ भी तरह तरह की हैं अर्थात् कोई छोटा तो कोई मोटा, कोई लम्बा तो कोई चौड़ा आदिआदि। जैसे पृथ्वी का एक छोटा सा कण भी पृथ्वी ही है, ऐसे ही भगवान् के अनन्त, अपार विश्वरूप का एक छोटा सा अंश होने के कारण यह संसार भी विश्वरूप ही है। परन्तु यह हरेक के सामने दिव्य विश्वरूप से प्रकट नहीं है, प्रत्युत संसार रूप से ही प्रकट है। कारण कि मनुष्य की दृष्टि भगवान् की तरफ न होकर नाशवान् संसार की तरफ ही रहती है। ऐसे ही विश्वरूप भगवान् सब के सामने संसार रूप से ही प्रकट रहते हैं अर्थात् हरेक को यह विश्वरूप संसार रूप से ही दीखता है। परन्तु यहाँ भगवान् अपने दिव्य अविनाशी विश्वरूप से साक्षात् प्रकट होकर अर्जुन को कह रहे हैं कि तू मेरे दिव्य रूपों को देख।
श्रीकृष्ण ने ‘शतशोऽथ सहस्रशः’ वाक्यांश का प्रयोग यह विदित कराने के लिए किया है कि वे असंख्य स्वरूपों, आकारों और बहुरंगी रूपों में विद्यमान रहते हैं। अर्जुन को यह कहने के पश्चात कि मेरे विश्वरूप को अनंत आकारों और रंगों में देखो। अब श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि स्वर्ग के देवताओं और दूसरे अन्य आश्चर्यों को अब मेरे विराट शरीर में देखो।
परब्रह्म अव्यक्त एवम निर्गुणाकार होने के बावजूद, भक्त के आग्रह पर अपनी विभूतियो का वर्णन करता है, अपने स्वरूप को दिखाने के तैयार है, तो वह निश्चय ही आत्म दर्शन ही होगा। हमारे जीवन मे अनेक व्यक्ति आते-जाते है किंतु जिन से हमारा परिचय हो जाये, उस को हम भरी भीड़ में भी पहचान लेते है। जब ज्ञान द्वारा परमात्मा की असीमित विभूतियो को जान लेंगे तो निश्चय ही उन के अनगिनत विभिन्न स्वरूप में उन को भी देख लेंगे। वह तो अपने एक अंश से सभी जगह है, उस से परिचय हो तो वह भी हम पहचान सकते है।
अर्जुन को अब तक ज्ञान तो प्राप्त हो गया था किंतु अभी भी वह मानवीय कमजोरी से ओत प्रोत था। उस के पास विभेद दृष्टि नही थी अतः वो संसार मे परमात्मा की उपस्थिति को नही देख पा रहा था। जब पूरे संसार के कण कण में परमात्मा है, हर जीव जंतु परमात्मा है, प्रकृति के हर रंग में परमात्मा है तो हम उसे परमात्मा की दृष्टि से कहाँ देखते है, हमे पेड़, पौधे, मनुष्य जीव, कंकर पत्थर ही नजर आते है परमात्मा नही। जीव जब जड़ प्रकृति से जुड़ जाता है, तो वो परमतत्व से भी अलग हो जाता है। परमतत्व को देख सके, इस प्रकार की दृष्टि स्वामी राम कृष्ण परमहंस या संत ज्ञानेश्वर की थी। कहते है, स्वामी रामकृष्ण परमहंस माँ काली से घंटो बात करते थे।
अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते हैं कि अज्ञानी पुरुष पदार्थ- दृश्य को ही देखता है , उसके अन्दर छिपी आत्मा को नहीं देख पाता । इससे उसको आत्मा का दर्शन नहीं हो पाता। धीर ज्ञानी पुरुष दृश्य को नहीं , अपितु अविनाशी आत्मा को देखते हैं। उसी आत्मा से सारा संसार दृश्यमान होता है।।
यह भी मानवीय कमजोरी है कि मिट्टी के ढेर सारे बर्तनों में हम मिट्टी तत्व को देख भी सकते है स्वीकार भी करते है किंतु सिर्फ मिट्टी देख कर पूरे मिट्टी के पदार्थो को देख पाना संभव नही होता। स्वर्ण आभूषण में स्वर्ण तत्व को पहचान पाना आसान है किंतु स्वर्ण से आभूषणों की कल्पना करना कठिन। क्योंकि वह बुद्धि द्वारा दिया जाने वाला दर्शन है अर्थात बुद्धिगम्य दर्शन है।
भगवान् श्रीकृष्ण को अपना विराट् स्वरूप धारण करने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि अर्जुन को केवल इतना ही करना था कि अपने समक्ष स्थित रूप को वह देखे। परन्तु दुर्भाग्य से, द्रष्टव्य रूप को देखने के लिए उपयुक्त दर्शन का उपकरण उसके पास नहीं था और इसलिए अर्जुन उन सबको नहीं देख सका, जो भगवान् श्रीकृष्ण के सारथी रूप में पहले से ही विद्यमान था। वक्ता एवम श्रोता या लेखक एवम पाठक में यही अंतर होता है। वक्ता या लेखक जिस ज्ञान, भावना, बुद्धि एवम दर्शन से श्रोता या पाठक को अपनी बात कहता है यदि दोनों एक सामान भाव से कह सुन रहे हो या लिख- पढ़ रहे हो तो ही ज्ञान या संवाद पूर्ण माना जाता है जो प्रायः नही होता। हम भी परमात्मा की विभूति पढ़ने के बाद परमात्मा के दिव्य स्वरूप को नही देख पाते क्योंकि हम भी अर्जुन की भांति इस संसार के नियम से चलते है। अतः यह दर्शन हमे भी नही हो पा रहे।
विश्वरूप दर्शन जिस ताल और लय के साथ परमात्मा के स्वरूप को प्रकट करता है, वह ज्ञान के साथ साथ नित्य पठन का भी अध्याय है। अर्जुन को आगामी दो श्लोक में विभिन्न स्वरूप को प्रकट करते हुए दर्शन देते हुए परमात्मा को हम पढ़ेंगे किंतु क्या अर्जुन दर्शन कर पाएगा? हम ने परमात्मा को उस के स्वरूप में दर्शन करने के लिए कुछ योग्यताओं का वर्णन किया था जिसमे आत्मशुद्धि अर्थात राग और द्वेष से रहित चित्त परम आवश्यक है किंतु अर्जुन का युद्ध भूमि के राग – द्वेष अभी छूटा ही कहां है। इसलिए आगे आठवें श्लोक में हम इस तथ्य को समझेंगे। कुछ अहंकारी लोग जब कहते है कि वे नास्तिक है, परमात्मा को नहीं मानते, यदि कहीं भगवान है तो उसे उन्हे दिखाओ तो वे मानेंगे। उनके लिए यह 5 से 8 श्लोक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह बताता है कि उन्हें ईश्वर क्यों नहीं दिखाई देता।
भगवान अपने विभिन्न रूपो के दर्शन करवाने की बात कहते हुए आगे क्या कहते है, यह हम आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 11.05।।
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