।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 11.04 II
।। अध्याय 11.04 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 11.4॥
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्॥
“manyase yadi tac chakyaḿ,
mayā draṣṭum iti prabho..।
yogeśvara tato me tvaḿ,
darśayātmānam avyayam”..।।
भावार्थ:
हे प्रभु! यदि आप उचित मानते हैं कि मैं आपके उस रूप को देखने में समर्थ हूँ, तब हे योगेश्वर! आप कृपा करके मुझे अपने उस अविनाशी विश्वरूप में दर्शन दीजिये। (४)
Meaning:
O Lord, if you think that it is possible for this to be seen by me, then O Yogeshvara, you show me your undivided form.
Explanation:
We come across another aspect of Arjuna’s request in this shloka. Imagine the plight of a movie actor who is absolutely devoted to his craft. He has worked day and nights for a whole year in a movie as a supporting actor. After the shooting ends, he is filled with a burning desire to see the entire movie. Why so? It is because he has only seen the bits and pieces of the movie that he was involved with, and he is not satisfied unless he sees it as a single story, end to end.
Likewise, Arjun desired to see the cosmic form of the Supreme Divine Personality. He now seeks his approval. “O Yogeshwar, I have expressed my wish. If you consider me worthy of it, then by your grace, please reveal your cosmic form to me, and show me your Yog- aiśhwarya (mystic opulence).” Yog is the science of uniting the individual soul with the Supreme soul, and those who practice this science are called yogis. The word Yogeśhwar also means “Lord of all yogis.” Since the object of attainment for all yogis is the Supreme Lord, Shree Krishna is consequently the Lord of all yogis. The yoga in “Vibhooti yoga” is the power that creates variety in the one undivided Ishvara. Previously, in verse 10.17, Arjun had addressed the Lord as “Yogi,” implying “Master of yog.” But he has now changed it to “Yogeshwar” because of his increased respect for Shree Krishna.
Arjuna is no longer content with seeing bits and pieces of Ishvara’s expressions. He wants to see how it all comes together as one undivided entity. This is indicated by Arjuna’s use of the word “avyayam” which means undivided, without any discontinuity. And like the only person who can reveal the whole movie is the director, the only person that can reveal the undivided nature of the universe is the “prabhu”, the governor, master and controller.
Now, Arjuna knows that he has to approach Shri Krishna with humility. That’s why he politely says: “show me that form only if you think that I am qualified to see it”. Morever, Arjuna does not want to imagine it or dream it up, he wants to see it with his eyes, with his “drishti”.
So, does Shri Krishna agree to this request? We shall see next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अर्जुन ने जब परमात्मा से कहा कि वह आप का एक विश्वरूप का दर्शन करना चाहता है, तो उसे यह लगा कि कुछ गलत तो नही बोल दिया। क्योंकि जब कोई बड़ा व्यक्ति, गुरुजन और यहां तो परमात्मा है तो उस का यह आग्रह अधिकार के साथ न हो कर प्रार्थना के स्वरूप में होना चाहिए।
अध्याय 10 में जब उस मे परमात्मा को समस्त विभूति कहने को कहा था तो उस का आग्रह अधिकार पूर्ण था क्योंकि वो कृष्ण को अपना मार्ग दर्शक, सखा, गुरु एवम रिस्तेदार के रूप में जानता था, किन्तु अब विभूतियां सुनने के बाद वह समझ गया कि उस के समझ जो रथ में सारथी बन कर बैठा है वो कोई ओर नही साक्षात परमात्मा है। उस मे अपने आग्रह में से अधिकार को समाप्त करते हुए, प्रार्थना करना शुरू किया और कृष्ण को प्रभु एवम योगेश्वर संबोधित किया।
प्रभु अर्थात परमात्मा एवम योगेश्वर अर्थात जो भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग, हठयोग, राजयोग, लययोग, मन्त्रयोग आदि जितने भी योग हो सकते हैं, उन सब का स्वामी है। वस्तुतः यहाँ योगेश्वर शब्द योग अन्य अर्थ के लिये प्रयुक्त है जिस का अर्थ अव्यक्त रूप से व्यक्त सृष्टि के निमार्ण का सामर्थ्य अर्थात युक्ति जिस में हो, वही सम्पूर्ण विश्वरूप अर्थात “विभूति योग” को दिखाने का सामर्थ्य रखने की योग्यता रखता है। इसलिये वह योग्यता का ईश्वर है।
अर्जुन प्रार्थना करते है आपका वह स्वरूप तो अविनाशी ही है, जिस से अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं, उसमें स्थित रहती हैं और उसी में लीन हो जाती हैं। आप अपने ऐसे अविनाशी स्वरूप के दर्शन के योग्यता मुझ में है या नही ? यदि आप मुझे इस योग्य समझते है तो मुझे दर्शन करवाये। जैसे रोगी डॉक्टर के पास जा कर अपनी तकलीफ का वर्णन तो कर सकता है, किन्तु रोग और उस का उपचार उसे नही मालूम, इसलिये इस सम्बोधन का भाव यह मालूम देता है कि यदि आप मेरे में विराट रुप देखने की सामर्थ्य मानते हैं, तब तो ठीक है नहीं तो आप मेरे को ऐसी सामर्थ्य दीजिये, जिससे मैं आपका वह ऐश्वर् (ईश्वरसम्बन्धी) रूप देख सकूँ।
पूर्व में योग्यता तो हम ने पढ़ा कि मात्र शिक्षा ही ज्ञान नही होता। ज्ञान के शिक्षा, अभ्यास, जिज्ञासा और चित्तवृति निरोध अर्थात राग और द्वेष में नहीं भटकने वाला मन चाहिए। इसलिए भगवान के दर्शन शबरी और अहिल्या को मिले किंतु रावण और कंस को नही। किंतु योग्यता का अधिकारी होने के लिए आवश्यक धैर्य चाहिए क्योंकि यह तुरंत दान – महा कल्याण का विषय नहीं है। अर्जुन इस बात को समझते थे कि वे अधिकारी है या नहीं, इस का निर्णय वे नहीं कर सकते क्योंकि विभूति का वर्णन सुनने से उस के स्वरूप को एक स्थान पर देख पाना, उस के संभव हो भी सकता है, यह बिना परमात्मा की कृपा के असंभव है।
अर्जुन के प्रार्थना में परमात्मा के विश्वरूप को देखने की अभिलाषा के साथ, सामर्थ्य भी प्रदान करने की प्रार्थना है। अर्जुन ने अव्यक्त निर्गुणाकार ब्रह्मांड के प्रत्येक कण में समाहित परमात्मा को देखने की इच्छा की, जो असंम्भव सी प्रतीत होती है, क्योंकि जिस का स्वरूप ही नही है, वह नेत्रों से किस प्रकार दिख सकता है। यहां अव्यक्त को फिर भी चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों एवम बुद्धि से जाना जा सकता है, किन्तु जो अव्यक्त के अतिरिक्त निर्गुणाकार भी है, उस के स्वरूप को अर्जुन जानता था, इस जीवात्मा रूपी देह की इन्द्रियों से सम्भवतः देख पाना संम्भव न हो, इसलिये उस ने उस का सामर्थ्य भी देने की प्रार्थना की। यहां यद्यपि यह कहना जल्द होगा कि निर्गुणाकार के सगुणाकार स्वरूप के दर्शन जो भी परमात्मा ने अर्जुन को दिखाए, वह मात्र उस का मायविक स्वरूप ही है, जो परमात्मा की योगमाया से उत्पन्न कर के परमात्मा ने अर्जुन को दिखाया।
अर्जुन का अनुरोध कहता है, हे योगेश्वर! क्या आप मुझे विश्व रूप दिखा सकते हैं? यहाँ भी हमें बहुत सावधान रहना चाहिए। वह कहते हैं क्या आप विश्व रूपम दिखा सकते हैं, वास्तव में विश्व रूपम दिखाने का कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि विश्व रूपम ठीक सामने उपलब्ध है। इसलिए विश्वरूप दिखाना और कुछ नहीं है, क्या आप अस्थायी रूप से मेरे मन की बाधाओं को दूर कर सकते हैं। जिस से मैं स्वयं दर्शन को आत्म रूप में देख सकूं। योगेश्वर का अर्थ है चमत्कारी शक्तियों का भगवान। तो आप अपनी चमत्कारी शक्तियों का उपयोग करें और अस्थायी रूप से अशुद्धता के तराजू को हटा दें। आप मेरी आंखों या मन से अशुद्धता का आवरण हटा दें और मुझे विश्व रूप दर्शन का आनंद लेने दें।
गीता विश्व रूप दर्शन का यह अध्याय या भागवत में कृष्ण की लीलाएं हम भाव विभोर हो कर सुन भी ले, किंतु दर्शन के अधिकारी तो भगवान की कृपा से तभी हो सकते है, जब आत्मशुद्धि के साथ परमात्मा के प्रति श्रद्धा, विश्वास और प्रेम का समर्पण हो। हम राग – द्वेष में समर्पण भी दिनचर्या का भाग समझ कर निश्चित समय के लिए ही करते है।
किसी वैज्ञानिक के खोज या अनुसंधान, किसी बड़े वकील द्वारा जटिल केस की तैयारी या CA की परीक्षा में पास होने के टाइम टेबल की उपयोगिता अधिक है या उस के प्रति तन मन से समर्पण अधिक उपयोगी है। अतः अधिकारी वही है वो अपने लक्ष्य के प्रति संपूर्ण रूप से समर्पित है।
व्यवहार में अनुरोध की शैली, संवाद में उत्तम कह सकते है कि हम जो देखना चाहते है, वह अनुरोध, प्रार्थना, हठ, उत्कंठा, उत्साह एवम मित्रवत आग्रह सभी का प्रतीक है, जिस के कारण स्वयम परमात्मा भी इसे स्वीकार करे बिना पीछे नही जा सकते। क्योंकि इस मे यदि देखने का सामर्थ्य की कमी भी हो, तो भी उसे भी प्रदान करने की प्रार्थना है।
यदि कोई उत्तम अधिकारी शिष्य एक सच्चे गुरु से कोई नम्र अनुरोध करता है, तो वह कभी भी गुरु के द्वारा अनसुना नहीं किया जाता है अत अगले श्लोक में भगवान कृष्ण उसे क्या कहते है, हम पढ़ते है।
।।हरि ॐ तत सत।। 11.04।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)