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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  11.03 II

।। अध्याय      11.03 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 11.3

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥

“evam etad yathāttha tvam,

ātmānaḿ parameśvara..।

draṣṭum icchāmi te rūpam,

aiśvaraḿ puruṣottama”..।।

भावार्थ: 

हे परमेश्वर! इस प्रकार यह जैसा आप के द्वारा वर्णित आपका वास्तविक रूप है मैं वैसा ही देख रहा हूँ, किन्तु हे पुरुषोत्तम! मै आपके ऐश्वर्य-युक्त रूप को मैं प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूँ। (३)

Meaning:

As you have spoken about yourself, so is it, O supreme Ishvara. I wish to see your divine form, O supreme person.

Explanation:

Arjun addresses Shree Krishna as the best person because no other personality is equal to him. Often scholars, basing their opinion upon dry intellectual analysis, have difficulty in accepting the concept of God as a person. They wish to perceive God as only an impersonal light, without attributes, virtues, qualities and pastimes. However, when we tiny souls possess a personality, then why should we deny a personality to the Supreme Lord? Not only can he have a personality, but he also has the best personality, and Supreme Divine Personality. The difference between our personality and God’s personality is that he is not only a perfect person; he also has his impersonal all- pervading aspect, which is devoid of attributes and form.

Parameśvara means the supreme Lord, the controller; not only the one who has created the world; but the one who sustains the world by maintaining the physical laws of the creation. Therefore, parama Īśvaraḥ; stiti kāraṇabhuthā; you are. Not only that; you are puruṣōttama also; puruṣōttama means the Supreme Lord; the greatest Lord; the word puruṣōttama has got a philosophical significance also; which Krishna himself will teach in the 15th chapter. In fact, the entire chapter is titled puruṣōttama yoga; there Krishna will point out puruṣōttama is nirguṇa brahmna.

When someone describes the plot and special effects of the latest Hollywood summer blockbuster to us, and our curiosity and interest for that movie increases, we reach a point when we say “I want to see that movie right now, and I want to see it on a large IMAX screen”. Why does that happen? Of the five sense organs, the organ of sight is the dearest to us. As they say, “a picture is worth a thousand words”.

Similarly, Arjuna’s curiosity towards Shri Krishna had reached its peak at this point. That is why he asked Shri Krishna, who was the “avatar” or incarnation of Ishvara, to reveal his divine form that was described in the last shloka of the previous chapter. How magnificent would that form be, if this entire universe was sustained by only a fraction of Ishvara, and if all of the divine expressions were contained in Ishvara. In addition to the might and grandeur of this form, Arjuna also wanted to see how everything originated, existed and dissolved within Ishvara, and finally, how everything was Ishvara in essence.

Now, seening GOD by eyes or listing about the the GOD has created thrill, excitement for the person who is thoroughly devoted to the GOD and pure from the heart. He must have sufficient knowledge which became cause of thrill for the same. Ahilya waits standstill for years together for Rama for his darshan, Sabri spends entire life for darshan of Rama for a few time. But whereas Darshan of Lord Rama to Rawan and Lord Krishana to Kans did not impact of both as both Ravan and Kans were full of impurity of Raag – dwesh, hate and greediness, even though both are knowledgeable personality as compared to Ahilya and Sabri. Listing of music give much more pleasure to a person who is ready to listen and knowing the music. Therefore, when Arjuna has listened the GOD is cause of everything and everything is GOD, his excitement increases for seeing GOD from bottom of his heart.

We call something divine when it is endowed with the attributes of knowledge, lordship, power, prowess and brilliance. Arjuna put in a request to Shri Krishna to see that that form, where it is possible to have this vision of many in one. However, the sincere Arjuna did not order to command Shri Krishna to show that form. He qualified his request with a great deal of humility.

In many other cultures, sacred means obtaining in one part of the creation; and outside the temple, everything is secular; but for a Hindu or for a vaidhika, there is nothing called secular, everything is sacred; eating is pūja; remember we are doing pooja daily; eating is pūja, brushing the teeth is pūja; snānam is pūja, everything that I do is pooja and that will come only if I remember that I am always in association with, in the presence of the Lord. How can I have that aiśvaraṃ rūpam? the darśanam, what you call, samparka or contact with that viśvarūpa Īśvara; you should help me. This is Arjuna’s request.

Therefore, there is a discrepancy, a gap between what I know and what I am. My intellectual personality and emotional personality is not well harmonised and therefore you should help me in harmonisation.

I would like to have the Visvarūpa darśanam when I am interacting with the world; as Dayananda swami beautifully say; we do not have the sacred- secular division at all in our culture.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अर्जुन अब आगे अपनी बात कहते है । आप ने जैसा कहा कि यह संसार मेरे से ही उत्पन्न होता है और मेरे में ही लीन हो जाता है , मेरे सिवाय इसका और कोई कारण नहीं है , सब कुछ वासुदेव ही है , ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञरूप में मैं ही हूँ , अनन्य भक्ति से प्रापणीय परम तत्त्व मैं ही हूँ , मेरे से ही यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, पर मैं संसार में और संसार मेरे में नहीं है, सत् और असत्रूप से सब कुछ मैं ही हूँ, मैं ही संसारका मूल कारण हूँ और मेरे से ही सारा संसार सत्ता-स्फूर्ति पाता है, यह सारा संसार मेरे ही किसी एक अंश में स्थित है आदि-आदि। अपने- आपको आपने जो कुछ कहा है, वह सब-का-सब यथार्थ ही है।  यह सब बातें मुझे समझ मे भी आ रही है।

यहां परमेश्वर का अर्थ है सर्वोच्च भगवान, नियंत्रक;  सिर्फ वही नहीं जिसने दुनिया बनाई है; लेकिन वह जो सृष्टि के भौतिक नियमों को बनाए रखते हुए दुनिया को बनाए रखता है।  इसलिए परम ईश्वर;  स्थिति कारणभूत; तुम हो। इतना ही नहीं, आप भी पुरूषोत्तम हैं; पुरूषोत्तम का अर्थ है सर्वोच्च भगवान;  सबसे महान भगवान;  पुरूषोत्तम शब्द का दार्शनिक महत्व भी है;  जिसे कृष्ण स्वयं 15वें अध्याय में पढ़ाएंगे। 

यहाँ दिलचस्प बात यह है कि परंपरागत रूप से परमेश्वर का प्रयोग आम तौर पर भगवान शिव के लिए किया जाता हैI यहाँ विष्णु को भी परमेश्वर कहा गया हैं और पुरूषोत्तम भी। यद्यपि शिव भी पुरूषोत्तम हैं; इन दोनों शब्दों का प्रयोग करके, व्यासाचार्य इसे स्पष्ट करना चाहते हैं,  शिव और विष्णु एक ही हैं।

संस्कृत से वाक्प्रचार एवमेतत् (यह ठीक ऐसा ही है) के द्वारा अर्जुन तत्त्वज्ञान के सैद्धान्तिक पक्ष को स्वीकार करता है। समस्त नाम और रूपों में ईश्वर की व्यापकता की सिद्धि बौद्धिक दृष्टि से संतोषजनक थी। फिर भी बुद्धि को अभी भी प्रत्यक्षीकरण की प्रतीक्षा थी।

यदि भगवान कारण है और प्रभाव संसार है;  तार्किक रूप में प्रभाव से अलग कारण नहीं हो सकता। इसलिए संसार ईश्वर से अलग नहीं हो सकता और यदि संसार ईश्वर से पृथक नहीं है तो सभी गैर-महिमाएँ संसार स्वाभाविक रूप से भगवान का होना चाहिए।अर्जुन कृष्ण को ऐसे प्रमाणपत्र दे रहा है मानो कृष्ण को अर्जुन के प्रमाण पत्र की जरूरत है। वैसे भी कृष्णा जरूर मुस्कुरा रहे होंगे।

अब बौद्धिक रूप से मैं यह समझ पा रहा हूं कि सारा संसार अवश्य ही दिव्य होगा। क्योंकि सारा संसार ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है; इसलिए ऐसा कुछ भी नहीं है जो अपवित्र हो। जब सब कुछ पवित्र है तो सब कुछ होना ही पूजा है। इसलिए दुनिया को स्वीकार्य और अस्वीकार्य में विभाजित करने का कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि कब

सारी सृष्टि ईश्वर है। मैं किसी भी चीज़ को नीची दृष्टि से कैसे देख सकता हूँ। तो मुझे इसे देखने में सक्षम होना चाहिए संसार दिव्य है और अगर मैं संसार को परमात्मा की तरह देख सकूं। मुझे कभी किसी के प्रति द्वेष नही विकसित करना। लेकिन मेरी समस्या क्या है? एक तरफ मैं सब कुछ कहता हूं ईश्वर है, लेकिन जब मैं बातचीत पर आता हूँ तो मन में भारी राग-द्वेष है। यह समस्या अर्जुन के हम सब की भी है कि स्वीकार्य हो कर भी आत्मसात नही है। इसलिए हम मानते है कि ईश्वर सब को देख रहा है और हर जगह विद्यमान है। किंतु अनुचित करते हुए हम इस तथ्य को झुठलाते भी है। तभी तो योगमाया से वशीभूत हम परमात्मा को जानते हुए भी नहीं जानते।

इसलिए मैं जो जानता हूं और जो मैं हूं, उसमें एक विसंगति है, एक अंतर है।  मेरे बौद्धिक व्यक्तित्व और भावनात्मक व्यक्तित्व में अच्छा सामंजस्य नहीं है और इसलिए आपको सामंजस्य बिठाने में मेरी मदद करनी चाहिए और यहां हमें यह समझना चाहिए, कि किसी भी अनुभव में दो चीजें शामिल होती हैं। यह है या ईश्वर दर्शनम है, भगवान का अनुभव या उस मामले के लिए, कोई अन्य अनुभव। इस में दो चीजें शामिल हैं। एक तो अनुभव की वस्तु है जिसके लिए उपलब्ध होना चाहिए मुझे और यह पर्याप्त नहीं है कि अनुभव की वस्तु उपलब्ध है, बल्कि हमें अनुभव का विषय भी की आवश्यकता है, एक अनुभवकर्ता जो अनुभव की सराहना करने के लिए पर्याप्त रूप से तैयार है। उस के विषय की तैयारी का महत्व बहुत अधिक महत्वपूर्ण है।मान लीजिए मैं एक महान संगीतकार के कर्नाटक संगीत के बारे में बात करता हूँ । लेकिन श्रोता को कुछ पता हो कर्नाटक संगीत क्या है, राग क्या हैं? तो ही क्या हैं किसी राग की सुंदरता होती है? जब उस व्यक्ति के पास एक सुरीला, तैयार दिमाग न हो, अनुभव की वस्तु उपलब्ध है, लेकिन फिर भी वह अनुभव का आनंद नहीं उठा पाता हैI प्रभाव नहीं पड़ता और वह वस्तु के अभाव के कारण नहीं, बल्कि प्रभाव के कारण होता है। संवेदनशीलता की कमी, श्रोता की ओर से तैयारी का अभाव होने से संगीत की सुंदरता का प्रभाव भी श्रोता पर नही पड़ता।

इससे एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात याद रखनी चाहिए: ईश्वर दर्शनम के लिए ईश्वर दर्शनम् होना;  मुझे जबरदस्त तैयारी से गुजरना चाहिए। बिना मेरे तैयारी, भले ही ईश्वर मेरे ठीक सामने आ जाए, कुछ नहीं होगा और वह तैयारी और कुछ नहीं बल्कि मन की पवित्रता है; जो कि तम गुणों काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य का शमन है। वे पहले से ही दृष्टि में बाधा डालने वाले मोतियाबिंद हैं। काम क्रोधादि अशुद्धि की बाधा का मोतियाबिंद होने पर, अहंकार- ममकराधि अशुद्धता, वह तराजू जो दृष्टि को ढकती है और जब हटा दी जाती है तो भगवान आने की जरूरत नहीं;  मैं पहले से उपलब्ध विश्वरूपम की सराहना करना शुरू करता हूं।

शबरी और अहिल्या में कुछ समय के दर्शन के लिए भगवान राम का इंतजार वर्षो तक किया और दर्शन होने के बाद मोक्ष को भी प्राप्त किया किंतु रावण और कंस के समक्ष भगवान आने के बाद भी उन्हें उन के दर्शन का महत्व अपने तामसी प्रवृति अहंकार से नहीं हुआ। अर्जुन भी गीता सुन रहा है और धृतराष्ट्र भी किंतु धृतराष्ट्र को गीता का प्रभाव नहीं हुआ, क्योंकि वह तैयार नहीं था।

जब भी किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान या अवसर की खूब तारीफ या विशेषता सुन लेते है उस को देखने की इच्छा बलवती हों ही जाती है। यह भी ऑडियो में किसी भी पिक्चर की कहानी प्रभावशाली नही हो सकती जितनी वीडियो में होगी क्योंकि आँखे सब से सशक्त संवेदनशील इंद्री होती है।

इसलिए अर्जुन कहता है कि अब जिस के संकल्प से यह लोक परंपरा उत्पन्न और विलीन होती है, जिसे आप स्वयं मैं कहते है, आप का मूल स्वरूप है, जिस से आप देवताओ के कष्टों को दूर करने के लिये दो भुजावाले और चार भुजावाले रूप धारण करते है, पर जलशयन के निमित्त से अथवा मत्स्य, कच्छप इत्यादि के रूप में किये जानेवाले नाटकों के समाप्त होने पर आप की सगुणता जिस जगह में विलीन होती है, उपनिषद जिस का गान करते है, योगी हृदयस्थ हो कर जिसे देखते है, सनक इत्यादि जिसे अपने हृदय से लगाये रहते है, और आप के जिस अनन्त विश्व रूप का वर्णन मैं सदा अपने श्रवेनेद्रियों से श्रवण करता आया हूँ,  मैं आपके वही ईश्वरीय रूप को अपने नेत्रों से देखना चाहता हूँ। हमारे शास्त्रों में ईश्वर का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि वह ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज इन छ गुणों से सम्पन्न है। इस अवसर पर भगवान् ने अर्जुन को यह दर्शाने का निश्चय किया कि वे न केवल समस्त व्यष्टि रूपों में व्याप्त हैं वरन् वे वह समष्टिरूपी पात्र हैं, जिस में ही समस्त नाम और रूपों का अस्तित्व है। भगवान् सर्वव्यापक होने के साथ ही साथ सर्वातीत भी हैं।

किसी अन्य संस्कृतियों में, पवित्र का अर्थ सृष्टि के एक हिस्से में प्राप्त करना है और मंदिर के बाहर, सब कुछ धर्मनिरपेक्ष हैलेकिन एक हिंदू या एक वैदिक के लिए, धर्मनिरपेक्ष नाम की कोई चीज़ नहीं है, सब कुछ पवित्र है। उस के खाना भी पूजा है। याद रखें हम रोज पूजा कर रहे हैं, खाना पूजा है, दाँत साफ़ करना पूजा हैस्नानम पूजा है, मैं जो कुछ भी करता हूं वह पूजा है और वह तभी होगा जब मैं याद रखूंगा कि मैं हमेशा भगवान के साथ, उनकी उपस्थिति में हूं।  मुझे वह ऐश्वरं रूपम कैसे मिल सकता हैदर्शनम, जिसे आप कहते हैं, संपर्क या उस विश्वरूप ईश्वर से संपर्कतुम्हें मेरी मदद करनी चाहिए.  यह अर्जुन का अनुरोध है।

जब मैं दुनिया के साथ बातचीत कर रहा होता हूं तो मैं विश्वरूप दर्शनम चाहता हूं;  जैसा कि दयानंद स्वामी खूबसूरती से कहते हैं;  हमारी संस्कृति में पवित्र-धर्मनिरपेक्ष विभाजन बिल्कुल नहीं है।

पूर्व अध्याय में भी अर्जुन का आग्रह परमेश्वर की बातों को सुन कर उन की समस्त विभूतियो को सुनने का था। किंतु जब कुछ ही विभूतियाँ संक्षेप में सुनने के बाद परमात्मा द्वारा यह कहा गया कि मैं अपने एक अंश से पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त हूँ, तो समस्त विभूतियो को जानने की इच्छा सम्पूर्ण दर्शन में परिवर्तित हो गई। सत्य यही है आशा और कामनाये आप कितना भी करे, कभी कम नही होती, जितना हम जानना चाहते है, उतना जान कर, जितना हम पाना  चाहते है, उतना यदि मिल भी जाये तो यह और अधिक के लिये बलवती हो जाती है।

अर्जुन का यह आग्रह परब्रह्म के विश्वरूप के दर्शन का था, न कि भगवान विष्णु के चतुर्भुज मनमोहक दर्शन का। क्योंकि ब्रह्म  निर्गुणाकार एवम अव्यक्त है, जिसे अर्जुन ने पूर्व अध्याय में सर्वव्यापी विभूतियो में सुना इसलिये उस की परब्रह्म के दर्शन की उत्कंठा उचित है किंतु कट्टर बुद्धिवाद के अत्युत्साह में आकर अर्जुन ने विश्वरूप दर्शन की अपनी मांग भगवान् के समक्ष रखी, किन्तु उसे तत्काल यह भान हुआ कि उसकी यह धृष्टता है और उसने सद्व्यवहार की मर्यादा का उल्लंघन किया है। उस का यह आग्रह अत्यंत संकोच के कारण ईश्वर के एक ही छह गुण वाले रूप के दर्शन तक सीमित था क्योंकि उसे यह ज्ञान था कि परमात्मा की सम्पूर्ण विभूतियो का वर्णन संभव नही वैसे परमात्मा के सम्पूर्ण रूप का दर्शन की मांग करना भी सही नही। इसलिये अगले श्लोक में वह अधिक नम्रता से क्या कहता है, पढ़ते है।

।।हरि ॐ तत सत।। 11.03।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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