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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.S II Summary II

।। अध्याय      10.S II सारांश II

॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ अध्याय: १० सारांश॥

।। ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः॥

||ōṃ tatsaditi śrīmadbhagavadgītāsūpaniṣatsu brahmavidyāyāṃ yōgaśāstrē śrīkṛṣṇārjunasaṃvādē vibhūtiyōgō nāma daśamō’dhyāyaḥ ||

भावार्थ:

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में ‘विभूति-योग’ नाम का दसवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ॥

Meaning:

Thus, in the Upaniṣad sung by Lord, the science of Brahma, The scripture of Yoga, the dialogue between Sri Krishna snd Arjuna, ends the tenth chapter entitled “The Yoga of Divine Glories”

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

Summary of Bhagvad Gita Chapter 10:

When India received independence, the founders wanted to ensure that the newly created states with in India did not disintegrate due to infighting. To that end, they created a two-tier government system with a state government that was aligned to state interests and a central government that put the interests of India before anything else.

Furthermore, in order to ensure that residents of a state did not forget that they are part of a bigger country, our founders instituted the national flag, the national anthem, Independence Day, republic day, the national emblem and so on.

These symbols are expressions, or “vibhootis” of India. They are highly important because they remind us of the existence of the nation of India no matter where we are. They make the abstract concept of the nation of India tangible and visible.

Shri Krishna ended the previous chapter by urging Arjuna, and all devotees, to always keep their minds within Ishvara. In this chapter, Arjuna asked Shri Krishna, “how can I know Ishvara when my eyes cannot see him?” The answer to Arjuna’s question is the main teaching of this chapter, in the form of natural, historic, Puraanic and other awe-inspiring people and objects that serve as Ishvara’s expressions or manifestations.

How do these expressions benefit us? Just like we use symbols of India to constantly invoke the notion of India, we should use one or some or all of these expressions to constantly remember and think of Ishvara. This chapter is not meant to be a lesson in the Puraanas. It is meant to be practiced as a daily meditation, by employing one expression, whichever we like, as the object of our meditation.

So for example, if we have an affinity for the sun, we should bring the shloka “aadityaanaamaham vishnuhu” to attention and keep it in our minds as much as possible, whenever we see the sun. This will transform our vision to look beyond the visible aspect of the sun, connect the sun to Ishvara and see the Ishvara inside.

सारांश:

नवम अध्याय में राजगुह्य योग द्वारा भगवान श्री कृष्ण ने राजविद्या का गुप्त ज्ञान का उपदेश दिया, जिस में अर्जुन को ज्ञानयोग के साथ स्मरणपन और समर्पण के साथ भक्ति, श्रद्धा, विश्वास और प्रेम से परमात्मा का ह्रदय से चिंतन का उपदेश दिया था।

जो अव्यक्त है, निराकार है, इन्द्रियों से परे है, उस का चिंतन या ध्यान कोई किस प्रकार कर सकता है क्योंकि जीवात्मा प्रकृति से बंधा जीव है, उस के साधन प्रकृति से प्रदत्त इन्द्रिय,मन और बुद्धि ही है। अतः दशम अध्याय का सृजन परमात्मा के व्यक्त स्वरूप का चिंतन किस प्रकार करना चाहिये, के ज्ञान के लिये हुआ।

इसलिये अध्याय के आरम्भ में पुनरावर्ती करते हुए, भगवान श्री कृष्ण कहते है, तुझ प्रेमी के हित की कामना से जो कुछ में कहता हूँ, उस परम वचन को तू, फिर से श्रवण कर। मेरे प्रभाव को न देवता जानते है और न ही ऋषिगण, क्योंकि मैं सब का आदि कारण हूँ पर अपना कोई कारण नही रखता।

परमात्मा कहते है मेरी उत्पत्ति को न देवता और न ही महृषि गण जानते है क्योंकि मैं उन का भी आदि कारण हूँ। जो मुझे अजन्मा, अनादि और सम्पूर्ण लोको के महान परमात्मा को साक्षात्कार सहित जानता है वो ही ज्ञानी है।

जैसे समुन्द्र का तरंग, फेन, बुद्दुदादि के रूप में तरंगायमान होना समुन्द्र की विभूति व चमत्कार ही है और जैसे मृतिका का घट शरावादि के रूप में विकास व लय मृतिका की अदाएं ही है। इसी प्रकार सब देव, महृषि और अखिल संसार मेरी विभूति व चमत्कार ही है।

इस प्रकार भगवान ने बुद्धि, ज्ञान, क्षमा, सत्य, दम, शम, भय, अभय, सुख-दुख, भाव-अभाव, यश-अयश, अहिंसा और समता आदि नाना भावों तथा सप्तऋषि एवम चार मनुयो को जिन से अतिभौतिक सृष्टि की उत्पत्ति हुई, अपनी ही विभूति या चमत्कार बताया और कहा जो मेरी इस विभूति एवम योग को उपयुक्त रीति से तत्व रूप में जान लेता है, वह मुझ में अचल एवम अटल योग प्राप्त कर लेता है।

आगे हम ने उन अधिकारी देवताओ के अनन्य भाव वर्णन पढा, किस प्रकार यह देवता गण कार्य करते है एवम कैसे परमात्मा उन देवताओ के प्रति बुद्धि संयोग प्रदान करता है।

परमात्मा द्वारा उस को स्मरण करने वाले जब अनन्यभाव से बिना विचलित हुए उस को स्मरण करते हुए समर्पित होते है तो उन्हें बुद्धि ज्ञान योग जैसे जटिल तत्व भी परमात्मा प्रदान करता है। परमात्मा द्वारा भक्ति करने वाले अनन्य भक्त का योगक्षेम वहम करने की प्रतिबद्धता भी करते है जिस से भक्त निश्चित हो कर अनन्य भाव से अविचलित, निर्भय एवम एकनिष्ठ हो कर भक्ति करता रहे।

अर्जुन जिस ने अभी तक यह सब बातें ऋषि मुनि गुरु जनों एवम ज्ञानी लोगो से सुनी थी, जब परमात्मा को साक्षात यह बताते हुए सुनता है तो भाव विभोर हो नत मस्तक हो जाता है एवम प्रार्थना करने लगता है कि उस को परमात्मा अपने उन स्वरूप के बारे में बताए जिस से उस का चिंतन किया जा सकता है। क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त कोई भी इतना सक्षम नही जो परमात्मा  के स्वरूप को बता सके।

परमात्मा जो अनन्त है, कण कण में है उस के स्वरूप का वर्णन करना संभव नही किन्तु अर्जुन के आग्रह पर परमात्मा अपनी मुख्य मुख्य विभूतियो से परिचय श्लोक 20 से 40 तक करवाते है।

अपनी विभूतियो का वर्णन करते हुए परमात्मा ने ज्ञान, ऐष्वर्य, शौर्य, संगीत, गायन, पुण्य, तेज, छल, प्रणव, शब्द-अक्षर ज्ञान, स्मरण, समर्पण, सेवा, शक्ति, वीरता आदि आदि सभी गुणों को अपनी विभूति बताया एवम कहा जब भी तुम यह किसी भी वस्तु, जड़-चेतन, देवताओ,  पितरो, जीव में यह गुण देखो तो परमात्मा के गुण समझ कर परमात्मा का चिंतन करो।

परमात्मा का कथन है कि विभूति का वर्णन का यह कथन कदापि नही है कि वह अपनी इन विभूतियो के रूप में परिणामी हो कर आता है। वह अपने आप मे ज्यो का त्यों ही है और किसी भी विकार से रहित निर्विकार ही है।

जब हम किसी वस्तु, व्यक्ति या द्रव्य का दृष्टा दृष्टि से अवलोकन करते है तो हमेशा द्रष्टा दृश्य से परे जो अवलोकन कर रखा रहा है, रह जाता है। ब्रह्म या आत्मा कोई द्रव्य पदार्थ नही है,जिसे भौतिक प्रयोगशाला में किसी विधि से परखा जा सके।

जो पदार्थ इन्द्रियातीत है और जिस का चिंतन नही किया जा सकता, उस को यह मान कर भी चिंतन नही करना चाहिये कि ब्रह्म  अचिन्त्य है। उपनिषद भी कहते है कि आत्म ज्ञान केवल तर्क से नही प्राप्त हो सकता। जब तक आत्मा प्राकृतिक गुणों से युक्त है, वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है, और प्रकृतिक गुणों से मुक्त होने से वह ब्रह्म ही है। इसलिये परमात्मा का कथन है कि पृथ्वी, जल, अग्नि वायु, आकाश, मन, बुद्धि  और अहंकार इस प्रकार यह अष्टधा मेरी प्रकृति है और जिस ने सारे संसार को धारण किया है, वह जीव भी मेरी ही प्रकृति है।

प्रकृति और पुरुष से परे परमात्मा के व्यक्त और अव्यक्त दो स्वरूप बताये गए। व्यक्त स्वरूप में भगवान श्री कृष्ण कई बार घोषणा प्रथम पुरुष के स्वरूप में करते है

प्रकृति मेरा स्वरूप है (9.8)

जीव मेरा अंश है (15.7)

मुझ में मन लगा कर मेरा भक्त हो (9.34) आदि आदि।

फिर भी समस्त सृष्टि में अपनी विभूति के व्यक्त स्वरूप का वर्णन करते हुए, अपने को अव्यक्त ही बताते है। फिर कभी यह भी कहते है कि मूर्ख लोग मुझे व्यक्त समझते है।

तुम जो मेरा रूप देख रहे हो, इस से  तुम यह न समझो कि मैं सर्व भूतो के गुणों से युक्त हूँ, यह मेरी उत्पन्न की हुई माया है। मेरा सच्चा स्वरुप सर्वव्यापी अव्यक्त और नित्य है।

भगवद्गीता और उपनिषदों में परमात्मा के अव्यक्त स्वरूप को कभी सगुण, कभी उभयविद यानी सगुण-निर्गुण और कभी निर्गुण कहा गया है।

अतः विभूतियों में परमात्मा के जो भी सगुण बताये गए वो चिंतन करने योग्य गुण ही है, कोई व्यक्ति विशेष, प्रकृति या भाव को परमात्मा नही कहा गया है। क्योंकि निर्गुण का चिंतन नही किया जा सकता, इसलिये अपनी ज्ञानेद्रियों से सगुण ब्रह्म की उपासना करते करते जीव सगुण ब्रह्म से सगुण-निर्गुण ब्रह्म को जान पाता है और उस के बाद ही निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त या उस मे लीन हो पाता है। इसलिये जिस श्रद्धा, विश्वास, प्रेम के साथ परमात्मा के चिंतन किया जाता है, वस्तुतः जीव भी उसी प्रकार् का फल को प्राप्त होता है। अतः विभूतियाँ परमात्मा के चिंतन का माध्यम है,पूर्ण ब्रह्म नही, और यही ज्ञान के साथ चिंतन करने की आवश्यकता है।

परब्रह्म अव्यक्त से भी परे स्वरूप में स्वीकारा गया है। उस परब्रह्म को चिंतन मनन करने के लिये जीवात्मा के पास प्रकृति के अंतर्गत इन्द्रिय-मन- बुद्धि और पंच महाभूत का शरीर ही है। जिस में देखने, समझने और ध्यान, धारणा और समाधि आदि लगाने की अपनी ही एक परिसीमा है। जीवात्मा किस प्रकार परमात्मा को ध्यान लगाएं, इसलिये प्रकृति से सत गुण से शुरुवात की जाती है। सात्विक गुणों से आत्मा, चरित्र, मन, बुद्धि और कर्म शुद्ध होने से कामनाओ और अहम पर नियंत्रण आता है। इस के बाद सगुण उपासना से ध्यान एवम स्मरण की प्रक्रिया शुरू होती है। यह सगुणात्मक ध्यान मन-बुद्धि में चेतना के द्वार को खोल देता है। जिस से सगुणाकार परमात्मा के निर्गुणाकार स्वरुप समझ के आने लगता है। अर्थात उपासना सगुणाकार- निर्गुणाकार परब्रह्म की शुरू होती है जो निर्गुणाकार परब्रह्म की उपासना में उस मे लीन हो कर जीव को अपने वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति पर पूर्ण होती है। विभूतिया उसी सगुणाकार- निर्गुणाकार स्वरूप का प्रतीक है किंतु कुछ मूर्ख लोग यही उसे ही ब्रह्म मान ले तो वह उन की भूल है। जो इन सब से परे है वही परब्रह्म है। सगुण उपासना  उस को जानने का प्रयास है।

प्रस्तुत अध्याय में जिन भी महान विभूतियों का वर्णन है, उन का चिंतन एवम अनुसरण हमारे सात्विक भाव के विकास के अनिवार्य है। व्यवहार में जिस घर मे उच्च महापुरुष के चरित्र और उपलब्धियों को बच्चों को पढ़ाया जाता है, वह बच्चे आगे चल कर चरित्रवान, कर्मठ, कठनाइयों से नही विचलित होने वाले, अच्छे संस्कारो से युक्त होते है। ब्रह्म तो प्रत्येक जीव में समान रूप से समाया हुआ है, किन्तु मुक्ति और मोक्ष का मार्ग उन्ही के लिये जो सात्विक गुणों से अपना विकास करते है।

इस अध्याय का अंत “हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता” से कराते है एवम कहते कि परमात्मा निर्गुण है, समस्त सगुण उस के एक अंश से उत्पन्न है। निर्गुणाकर का सगुणाकार वर्णन करना संभव नही, इस लिये संसार मे जो कुछ भी है उसे परमात्मा की देन समझना चाहिए किसी वस्तु विशिष्ट की नहीं। क्योंकि वस्तु विशिष्ट अनित्य है, यदि नित्य कोई है तो वो परमात्मा ही है। परमात्मा ही उस विशिष्ट गुण को प्रदान करता है और जब तक चाहे तब तक उस के साथ रखता है। व्यक्ति विशेष या किसी भी जड़ प्रदार्थ को कभी भी परमात्मा नही मानना चाहिए क्योंकि उस मे जो भी विशिष्ट गुण है, वो परमात्मा की विभूति है परमात्मा नहीं। सगुणाकार परमात्मा के चिंतन  का माध्यम है जिस से हम अपने ज्ञान योग को प्राप्त हो एवम निर्गुणाकार परमात्मा को प्राप्त हो कर मुक्त हो।

।। हरि ॐ तत सत।। 10 II

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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