।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.B II Preamble II
।। अध्याय 10.B II प्रस्तावना II
PREAMBLE – CHAPTER 10
“The Opulence of the absolute “ “Vibhuti Yog”
The previous chapter revealed the science of bhakti or loving devotion of God. In this chapter, Shree Krishna desires to increase Arjun’s bhakti by describing His infinite glories and opulence. The verses are not only pleasing to read but also enchanting to hear. He helps Arjun to meditate on God by reflecting upon His magnificence.
Lord Krishna reveals that He is the source of all that exists. It is from His mind, the seven great sages, the four great saints, and the fourteen Manus were born. All the people of this world then descended from them. The various exceptional qualities in humans also arise from Him. Those devotees who know this engage in His devotion with great faith. They derive immense satisfaction by conversing about His glories and also help enlightening others about them. God dwells in the hearts of such devotees whose mind is always united in Him. He then bestows upon them His divine knowledge, through which they can attain God-realization.
Arjun is now fully convinced that Shree Krishna is the Supreme Divine Personality and requests Him to describe further His divine glories, which are like divine nectar. Shree Krishna then discloses that everything that exists is a manifestation of His energies. He is the beginning, middle, and end of all. All beings and things get their splendour from Him. He is the powerhouse of magnificence and the infinite reservoir of knowledge, power, beauty, and glory. Whatever catches our imagination and infuses us with bliss is nothing but a tiny spark of His opulence.
The rest of the chapter describes the personalities, objects, and activities that best display His magnificence. Shree Krishna finally says that the magnitude of His glory cannot be described in words, as within a fraction of His being, He upholds infinite universes. Since God is the source of all the splendour and glory, we must make Him the object of our devotion.
(Preamble –Courtesy “The song of GOD – Swami Mukundananda”)
प्रस्तावना – श्रीमद्भगवद गीता: दशमोS ध्याय – “विभूतियोग”
श्रीमद्भगवद् गीता का अध्ययन करने से पूर्व यह ख्याल रहता था कि एक व्यवसायिक और अपनी ही सांसारिक दुनियां में आसक्त व्यक्ति को गीता जैसे पुराणिक ग्रंथ का अध्ययन क्यों करना चाहिए। दुनिया में बाबा लोगो को देखता था तो लगता था कि इन से भले वह मजदूर है जो किसी पर निर्भर भी नही है और अपने आप पर घमंड भी नहीं करता। दिनचर्या में व्यवसाय किसी भी धर्म ग्रंथ को पढ़ने से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता था। किंतु किसी अनहोनी पर अपनी विवशता भी नजर आती थी, जिसे नियति की मार मान कर स्वीकार करते थे। किंतु अध्ययन से पता चला जितना बौना हम अपने को समझ रहे थे, वह हम नहीं है। हम उस परब्रह्म के अंश के जिस ने ब्रह्मांड की रचना की। अपनी नियति भी हम ही तय करते है। अतः जिस विशिष्ट कार्य हेतु हम ने मानव जन्म लिया है, उस के जो मेहनत, सात्विक आवरण और कर्म हमे लोकसंग्रह हेतु करना है, उसे पूर्ण कर के पुनः हमे उसी परब्रह्म में विलीन होना है जो हमेशा चारो ओर विभिन्न स्वरूपों में विद्यमान है। बालक को सांसारिक ज्ञान अक्षर, स्वर और अभ्यास से करवाया जाता है, जिस से वह उस वस्तु के स्वरूप, स्वभाव, रंग और आभा को पहचान सके। यही प्रबोध ज्ञान गीता द्वारा हमे मिलता है जो हमे अपने स्वरूप से परिचय कराता है और दशम अध्याय में परमात्मा अब अपने उन स्वरूप को वर्णित करेंगे जिन्होंने प्रकृति के निमित्त हो कर निष्काम और लोकसंग्रह हेतु कर्म किए। यह परब्रह्म का स्वरूप है और यही जीव का स्वरूप है जरूरत उस के श्रवण, मनन और निदिध्यासन की है। प्रबोध ज्ञान के बाद ही आत्मज्ञान होता है। आत्मज्ञान से ही स्वयं से परिचय होता है। स्वयं से परिचय होने से आत्मशुद्धि होती है और प्रकृति के बंधन का बोध होता है। यही गीता के अध्ययन का महत्व है कि हम अपने वास्तविक स्वरूप को पहचाने कैसे भौतिक, राजनैतिक, व्यापार और व्यवसाय और विज्ञान के उच्चतम शिखर को छूने वाला प्रकृति से निमित्त ब्रह्म का अंश लोकसंग्रह के लिए निष्काम और निर्लिप्त भाव से कार्य करता है और अमृत सा बन संसार में चमकता रहता है और कैसे स्वार्थ, लोभ, दर्प, क्रूर और आतातायी जीव क्षण भर के संसार में छा जाता है और फिर लुप्त हो जाता है। सनातन संस्कृति में अपने उत्थान के साथ मुगल और अंग्रेजो के संकट को झेला, किंतु सत्य मिटता नही, इसलिए सनातन संस्कृति का पुनरुत्थान भगवान राम के मंदिर के रूप में होने जा रहा है।
नवम अध्याय का दृष्टिकोण, विचार या व्याख्या दसवें अध्याय में भी पाई जाती है। इस का नाम विभूतियोग है। इस का सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान, की विभूतियाँ हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। बुद्धि से इन छुटभैए देवताओं की व्याख्या चाहे ने हो सके किंतु लोक में तो वह हैं ही। कोई पीपल को पूज रहा है। कोई पहाड़ को कोई नदी या समुद्र को, कोई उनमें रहनेवाले मछली, कछुओं को। यों कितने देवता हैं, इसका कोई अंत नहीं। विश्व के इतिहास में देवताओं की यह भरमार सर्वत्र पाई जाती है। भागवतों ने इनकी सत्ता को स्वीकारते हुए सब को विष्णु का रूप मानकर समन्वय की एक नई दृष्टि प्रदान की। इसी का नाम विभूतियोग है। जो सत्व जीव बलयुक्त अथवा चमत्कारयुक्त है, वह सब भगवान का रूप है। इतना मान लेने से चित्त निर्विरोध स्थिति में पहुँच जाता है। यह संसार में विभेद दृष्टि जीव की है, विभेद प्रकृति का भाग है, इसलिए विभेद से हम प्रकृति के जीवन को जीते है और आत्मा से हम अपने ब्रह्म स्वरूप को पहचानते है। इसलिए जो जीव आत्मशुद्धि से चित्त में कोई भी प्रकृति का विकार नहीं रखते हुए, प्रकृति के निमित्त हो कर सात्त्विक कर्म करता है, वही निष्काम कर्मयोगी है। इसलिए गीता सुनने के बाद अर्जुन ने युद्ध किया और युद्ध भी विजय की प्राप्ति हेतु पूर्ण दक्षता के साथ शत्रु को बिना किसी द्वेष और घृणा के भाव से किया। राम ने रावण का वध किया किंतु उस से कोई द्वेष नहीं किया। गीता से हमारे कर्म नही बदलते, उस का स्वरूप, उस से उत्पन्न कामना, स्वार्थ, लोभ और आसक्ति का भाव बदल जाता है और फिर वही कर्म हमारी पूजा हो जाता है। यह संसार में भगवान को समझने और देखने का तरीका बदल जाता है, संसार वही रहता है और अपनी ही गति में बहता चला जाता है।
प्रारम्भ में भगवान श्री कृष्ण योग शब्दवाच्य अपने प्रभाव का वर्णन कर के अपनी कुछ विभूतियों को बताते है, तद्पश्चात अपने बुद्धिमान अनन्य प्रेमी भक्तो के बारे में बता के पुनः विभूतियों एवम योगशक्तियो का विस्तार से वर्णन करते है। इसी प्रकार अपनी विभिन्न प्रधान प्रधान विभूतियों का वर्णन अंत तक करते हुए, अंतिम श्लोक में योग शब्दवाच्य अपने प्रभाव के वर्णन के साथ अध्याय का समापन 42वे श्लोक में करते है।
नवम श्लोक में राजगुह्य ज्ञान को अर्जुन को बतलाने के लिये श्रद्धा, विश्वास और प्रेम की बात कही गई थी। इसलिये परमात्मा का समस्त स्वरूपो में विद्यमान होना एवम संसार का रचियता एवम कर्ता होते हुए कार्य करने की बात सुन कर अर्जुन के मन मे भगवान के स्वरूप को जानने की इच्छा हुई। विभूतियों को जानने का अर्थ वही समझ सकता है जो इन्द्रिय-मन-बुद्धि में एकत्व को प्राप्त कर चुका हो। अध्यात्म प्रयोगशाला में प्रयोग कर के सिद्ध करने का विषय नही है। “जो पदार्थ इन्द्रियातीत है और इसलिये जिन का चिंतन नही किया जा सकता, उन का निर्णय केवल तर्क या अनुमान से नही कर लेना चाहिये। सारी सृष्टि की मूल प्रकृति से भी परे जो पदार्थ है, वह इस प्रकार अचिन्त्य है” यह एक पुराना श्लोक भी है। अतः विभूतियों में अतिभोतिक दृष्टिकोण से जो दिखता है, उस से परे जो है, उस को समझना चाहिए। भगवद गीता का सिंद्धांत यही है कि प्रकृति और पुरुष से भी परे एक सर्वव्यापक, अव्यक्त और अमृत तत्व है, वही चर और अचर प्रकृति का मूल है। इसलिये भगवान ने कहा भी है कि यद्यपि मै अव्यक्त अर्थात इन्द्रियों को अगोचर हूँ, तो भी मूर्ख लोग मुझे व्यक्त समझते है, और व्यक्त में भी परे के मेरे श्रेष्ठ तथा अव्यक्त रूप को नही पहचानते। तुम जो मेरा रूप देख रहे हो, वह मेरी की हुई माया है, इससे तुम यह न समझो कि मै सर्वभूतों के गुणों से युक्त हूँ। इसलिये विभूतियों में परमात्मा का वर्णन सांकेतिक ही है, वह उस से भी परे है। जिसे जानने के लिये ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान तीनो का भेद मिटना आवश्यक है, यही ध्यान की तुरीयातीत अवस्था है।
सच्चा ज्ञान वही है, जिससे आमनित्व, क्षान्ति, आत्मनिग्रह, समबुद्धि इत्यादि उदात्त मनोवृतियां जागृत हो जावे। जिस की व्यवसायिक बुद्धि, वासनात्मक बुद्धि और निश्चयात्मक बुद्धि आदि शुद्ध हो कर शुद्ध आचरण में परिवतित हो जाये। जो सच्चा अंतर्बाह्य शुद्ध अर्थात साम्य शील हो गया हो, वही आत्मनिष्ठ है और मुक्ति उसी को मिलती है। मोक्ष बाजार में बिकने वाली रेवड़ी नही है, जो चाहे खरीद ले, इसलिये प्रत्येक जीव को समबुद्धि आत्मनिष्ठ होना ही होगा।
गीता अध्ययन में यदि हमारे ज्ञान शाब्दिक रह जाये और हम यदि सुविचारों के प्रचारक ही रह जाये तो कोई अर्थ नही। कंप्यूटर और पुस्तको में गीता पूरी लिखी है। टेप रिकॉर्डर भी पूरी गीता बोल कर सुना सकता है। व्याख्यानों, आश्रमो एवम चर्चा के शिक्षण केंद्रों से गीता के ज्ञान को प्राप्त नही किया जा सकता, इस के लिये शुद्ध आचरण के चरित्र का गठन होना चाहिए। यह सामूहिक विचार न हो कर गीता के अध्ययन करने वाले का व्यक्तिगत लक्ष्य होना चाहिये, तभी वह भगवान की विभिन्न विभूतियों को समझ पायेगा।
आत्मशुद्धि या चित्तशुद्धी का अर्थ के मन पर विजय प्राप्त करना। इंद्रियजीत या जिन भी वही कहलाते है जो इंद्रियों को जीत लेते है। किंतु योगमाया के प्रभाव से जीव में समय के अनुसार प्रकृति के क्षणिक सुखों के लिए कामनाएं, आसक्ति, लोभ, मोह, ममता, स्वार्थ, ईर्ष्या, राग – द्वेष, क्रोध, घृणा जैसे दुर्गुण ज्ञानेद्रियो इंद्रियों द्वारा देख कर, सुनकर, स्वाद चख कर, सूंघ कर और स्पर्श द्वारा पैदा होते है। इन पर कोई रोक है तो वह संस्कार, आत्मसंयम, सामाजिक प्रतिष्ठा, व्यक्तित्व और योग के द्वारा होती है। जब तक योग से जीव अपने को पूर्णतः नियंत्रित नही करता संस्कार, आत्मसंयम, सामाजिक प्रतिष्ठा और व्यक्तित्व विभिन्न प्रकार से इन प्रकृति के गुणों को नियंत्रित रखता है, जिन्हे हम विभिन्न प्रकार के वैराग्य भी कह सकते है। जीव योगमाया में ग्रसित अपने को संत या सत्पुरुष समझता है क्योंकि उसे अनुचित करने का अवसर नही नहीं मिला। इस में सब से अलग और मुख्य किरदार यदि किसी का है, तो वह है अहम। क्योंकि कितना भी ऊंचे पद पर आप हो, पद का अहम आप को अपने आप से परिचय ही नही करने देता। जिस ने अवसर पा कर भी मन को नियंत्रित किया, वही सच्चा योगी होता है।
आज के युग मे वैराग्य जो अर्जुन को हुआ था, गीता पढ़ने वालों को भी होता है। किंतु वैराग्य में प्रथम आपात वैराग्य जो तीव्र इच्छा या आपात स्थिति से पैदा होता है और इच्छा की पूर्ति या समाप्ति या संकट की समाप्ति के साथ खत्म हो जाता है। दूसरा वैराग्य श्मशान वैराग्य है जो जगह के हिसाब से होता है और वह स्थान छोड़ने के साथ ही समाप्त हो जाता है। तीसरा वैराग्य मर्कट वैराग्य जो आज है और कल नही, चौथा वैराग्य पुराण वैराग्य है जो ज्ञानियो को ज्ञान की पुस्तक पढ़ने से या ध्यान, तप और श्रवण और श्रूति से मिलता है, यह ज्ञान बांटने और मन मे भरी कामनाओ के साथ होता है। जो ग्रुप बना कर, शिष्य बना कर आश्रम बनाने या पद, सत्ता या धन की लालसा या प्रसिद्धि की लालसा को ले कर होता है। किन्तु जिन्हें परमात्मा को प्राप्त करना होता है, उन का वैराग्य नैमित्तिक वैराग्य होता है। गीता को सभी अपने अपने वैराग्य के अनुसार पढ़ते है, उसी प्रकार विभूतियों को परमात्मा के स्वरूप में समझते है। परंतु जो भी जीव मुक्ति के लिए प्रयास करता है जैसा हम पूर्व अध्याय के अंतिम श्लोक में पढ़ा, उस के लिए मुक्ति का मार्ग स्वयं परमात्मा खोलता जाता है। वह ही उसे ज्ञान देता है और योगक्षेम वहन करता है।
जब सब कुछ ही परमात्मा है तो यहां दोहराने की आवश्यकता क्या है। मनुष्य प्रकृति के रहस्यों को खोजता रहता है, जैसे जैसे इस मे आगे बढ़ता है तो प्रकृति और भी गहरी और रहस्यमयी होती है। इस के आवरण में नए नए स्वरूप आते है और यह सूक्ष्म से सूक्ष्म होती जाती है।
विभूतियों के बाद ही अर्जुन को परमात्मा के विश्वरूप को देखने की उत्कंठा उत्पन्न हुई थी, वही उत्कंठा हम में भी हो, ऐसी आशा के साथ प्रस्तावना विषय से हट कर लिखी है। इसलिये इस के प्रत्येक आवरण को सूक्ष्म रूप से जानना आवश्यक है, यही नवम अध्याय के जुड़ा हुआ दशम अध्याय हम पढ़ना शुरू करते है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता 10- प्रस्तावना ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)