।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.41 II
।। अध्याय 10.41 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.41॥
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥
“yad yad vibhūtimat sattvaḿ,
śrīmad ūrjitam eva vā..।
tat tad evāvagaccha tvaḿ,
mama tejo- ‘ḿśa- sambhavam”..।।
भावार्थ:
जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तुयें है, उन-उन को तू मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ समझ। (४१)
Meaning:
Whichever entity is endowed with majesty, prosperity and also energy, you should understand that all those as born out of a fraction of my power.
Explanation:
Since it is difficult for someone in our time to identify with Puraanic expressions of Ishvara, Shri Krishna gives us a simple suggestion. He says that anything that appeals to our mind and senses, any object or person that is endowed with grandeur, perfection, knowledge and power, anything that inspire awe and wonder is Ishvara’s expression. So we are free to choose anything that meets this criteria.
Electricity flowing through a speaker creates sound, but one who does not know the principle behind how it works may think that the sound comes from the speaker itself. Similarly, whenever we observe extraordinary splendor anywhere, whatever catches our imagination, sends us in raptures, and infuses us with bliss, we should know it to be but a spark of the glory of God. He is the infinite reservoir of beauty, glory, power, knowledge, and opulence. He is the powerhouse from where all beings and things get their splendor. Thus, we must make God, who is the source of all glory, the object of our worship.
So, if we live in India, the Taj Mahal becomes Ishvara’s expression and in USA, the Grand Canyon. If we like western classical music, the Mahler Symphony No. 9 in D Major becomes Ishvara’s vibhooti and if we like Indian classical music, a rendition by Bhimsen Joshi. An engineer can admire marvels such as the tallest building in the world or the space shuttle. And all of us can admire the thousands of nameless people who are working in NGOs to better the world as yet another expression of Ishvara.
Now, Shri Krishna makes another important point here. If we add up all the glories in the universe, that glory is but a fraction of Ishvara’s glory. Just like we always think of a country’s government whenever we see a police officer, we should always think of Ishvara whenever we see or think of any of his expressions. Arjuna had asked the question as to how he could know Ishvara. With this shloka, Shri Krishna has provided the answer. We use the visible expression to remind us of the invisible Ishvara.
What should we do? Whenever we see something wonderful and glorious, we should remember that the glory is coming from Ishvara, not from that object or person. Next, we should remember that Ishvara is infinitely more powerful and glorious than the object or person. In this manner, we will be able to maintain a constant awareness of Ishvara.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अर्जुन का प्रश्न था कि वो उन को किस प्रकार चिंतन करे, किस प्रकार परमात्मा की जाने, तो परमात्मा ने अपनी कुछ विभूतियो का उदाहरण दे कर परमात्मा की उपस्थिति का बोध करवाया। अब वो अंत मे कहते है कि व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, गुण, भाव, क्रिया आदि में जो कुछ ऐश्वर्य दिखे, शोभा या सौन्दर्य दिखे बलवत्ता दिखे तथा जो कुछ भी विशेषता, विलक्षणता, योग्यता दिखे, उन सब को मेरे तेज के किसी एक अंश से उत्पन्न हुई जानो। तात्पर्य है कि उन में वह विलक्षणता मेरे योग से, सामर्थ्य से प्रभाव से ही आयी है , ऐसा तुम समझो ।
स्पीकर द्वारा प्रवाहित हो रही बिजली ध्वनि उत्पन्न करती है किन्तु जो इसके पीछे के सिद्धान्त को नहीं जानता। वह सोचता है कि ध्वनि स्पीकर से आती है। समान रूप से जब हम किसी असाधारण ज्योति को देखते है जो हमारी कल्पना शक्ति को हर्षोन्माद कर देती है और हमें आनन्द में निमग्न कर देती है तब हमें उसे और कुछ न मानकर भगवान की महिमा का स्फुलिंग मानना चाहिए। वे सौंदर्य, महिमा, शक्ति, ज्ञान और ऐश्वर्य के अनन्त सरोवर हैं। वे विद्युत गृह (पावर हाउस) हैं जहाँ से सभी जीव और पदार्थ अपनी ऊर्जा प्राप्त करते हैं। इसलिए हमें भगवान जो सभी प्रकार के वैभवों का स्रोत हैं उन्हें अपनी पूजा का लक्ष्य मानना चाहिए।
वस्तुतः प्रकृति के सत-रज-तम गुणों में यदि हम अपने सात्विक गुण को विकसित करें, तो यह हमारे व्यक्तित्व विकास का सोपान होगा। क्योंकि बताई गई समस्त जड़-चेतन की समस्त विभूतियाँ उन के इन्ही गुणों के आधार पर है कि जिस किसी ने सात्विक गुण में महारत हासिल की, वह परमात्मा की योगक्षेम वहन करने से ही उत्पन्न हुई। यद्यपि परमात्मा ने अपनी विभूति में ब्रह्मांड के जड़-चेतन के प्रत्येक तत्व एवम घटना में अपनी उपस्थिति दर्ज की किन्तु श्रेष्ठ को अपनी विभूति कह कर स्पष्ट कर दिया कि मनुष्य को परमात्मा का चिंतन सामान्य जीवन पैदा हो कर, खाते-पीते शहीद होने की उपेक्षा उन व्यक्तित्व को स्मरण या चिंतन करते हुए करना चाहिए, जिन्होने विभिन्न परिस्थितियों का सामना करते हुए, अपने क्षेत्र में श्रेष्ठता हासिल की। जीवन मे आदर्शो के संग अपने व्यक्तित्व का विकास ही परमात्मा का वास्तविक रूप में चिंतन है।
भगवान गुण वाचक शब्द है जिसका अर्थ गुणवान होता है। यह “भग” धातु से बना है ,भग के ६ अर्थ है:- १-ऐश्वर्य २-वीर्य ३-स्मृति ४-यश ५-ज्ञान और ६ वैराग्य ये ६ गुण है वह भगवान है, अर्थात जहां भी इन गुणों से युक्त कुछ भी दिखे तो समझो परमात्मा के दर्शन हो रहे है।
गीता के समय काल को छोड़ कर आज यह चिंतन स्वामी विवेकानंद, नानकदेव या अन्य सिख गुरु, कबीर, रविदास, बुद्ध, महावीर, सत्यनारायण स्वामी, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, रामसुखदासजी, डोंगरे महाराज, लक्ष्मीबाई, शिवाजी महाराज और समाज सेवा की संस्थाएं, उद्योगपति, देश की रक्षा के सीमा पर खड़े सैनिक से ले कर देश और धर्म की रक्षा के अपने प्राणों को निछावर करने वाले सैनिक और नागरिक आदि आदि का उन के तेज, शौर्य एवम निष्ठा के साथ परमात्मा को ही देख सकते है।
मनुष्य को जिस जिस में कोई भी विशेषता मालूम दे, उस उस में भगवान् की ही विशेषता मानते हुए भगवान् का ही चिन्तन होना चाहिये। अगर भगवान् को छोड़कर दूसरे वस्तु, व्यक्ति आदि की विशेषता दीखती है, तो यह,पतन का कारण है।अगर उस वस्तु का होता तो वह सब समय रहता, केवल उस वस्तु विशेष में होता किसी अन्य में नही और सब को दिखता पर वह न तो सब समय रहता है और न सब को दिखता है। एक वेश्या बड़े सुन्दर स्वरों में गाना गा रही थी तो उसको सुनकर एक सन्त मस्त हो गये कि देखो ठाकुरजी ने कैसा कण्ठ दिया है कितनी सुन्दर आवाज दी है तो सन्त की दृष्टि वेश्या पर नहीं गयी, प्रत्युत भगवान् पर गयी कि इस के कण्ठ में जो आकर्षण है, मिठास है, वह भगवान् की है।
जीव को जब प्रकृति अर्थात योगमाया नियंत्रित कर लेती है तो वह प्रकृति के सत – रज – तम गुण में व्यवहार करता है। क्योंकि ईश्वर तत्व का अर्थ है जिस ने प्रकृति को जीत लिया है, अतः जो भी विशेषता प्रकृति के गुण से उत्पन्न हो, उस में सत्व गुण प्रधान जीव जो गुणातीत विशेषण से युक्त हो, उस में ही ईश्वर अर्थात परमात्मा तत्व झलकता है, इसलिए निकृष्ट गुण परमात्मा की विभूति नही हो सकते, वे प्रकृति के गुण होते है।
ईश्वर यह भी उपदेश दे रहे है कि किसी व्यक्ति में ऐष्वर्य, तेज, कांति आदि दिखती है तो व्यक्ति विशेष की समझ कर हम उस की पूजा करने लगते है जबकि पूजा उस गुण की होनी चाहिए, व्यक्ति विशेष की नही। क्योंकि परमात्मा नित्य है व्यक्ति विशेष नही। ऐसे ही व्यक्ति जिस में यह गुण हो परमात्मा की देन समझ कर जनहित में उपयोग करना चाहिए क्योंकि जो उस उसे मिला है वो परमात्मा है इसलिये जब तक परमात्मा चाहेगा उस के पास रहेगा। स्वयम को विशेष गुण के रहते परमात्मा समझना ही पतन का कारण है।
पूर्व में श्लोक 24 में गुरु बृहस्पति के ज्ञान स्वरूप की विभूति में एवम श्लोक 27 में राजा के शासन करने की कर्तव्यनिष्ठा में स्वयम का स्वरूप बताने से ज्यादा समझने को कहा गया इसलिये विद्धि शब्द का प्रयोग किया गया। क्योंकि कर्म एवम ज्ञान समझने के लिए है, यही बात अब अवगच्छ कह कर परमात्मा कह रहे है, कि परमात्मा अंधविश्वास के साथ तेज, ऐष्वर्य, धन, पद, ज्ञान देख कर मान लेने से ज्यादा समझने को कह रहे है जिस से परमात्मा का चिंतन सही कर सके।
चिंतन उच्च कोटि के आदर्शों का करते रहने से हमारा स्वभाव, आदत, रहन-सहन, बोलचाल और व्यवहार में भी परिवर्तन आता है, अतः यह आध्यात्मिक अध्याय होने के साथ साथ चरित्र निर्माण के लिये उच्च कोटि का सरल उपाय है।
व्यवहार में मन की अधोगति होने से स्वर्ण देख कर लोभ, स्त्री देख कर वासना, अधिकार और सुविधाएं देख कर पद या सत्ता की लालसा उत्पन्न हो जाती है। किंतु उस से सत्व गुण के अभ्यास और मेहनत की अपेक्षा तमों गुण में आलसी बने रहे तो किसी भी विशिष्ट गुण युक्त वस्तु देख कर ईर्ष्या उत्पन्न होगी, किंतु यदि वही परमात्मा का स्वरूप समझ कर देखे तो उस से आनंद की अनुभूति होगी। यह आनंद की अनुभूति ही किसी व्यक्ति के ईश्वर तत्व के निकट होने का प्रमाण है। किसी परिवार में पिता के चार पुत्र हो तो परिवार का गौरव जिस पुत्र के कारण बढ़ता है उसे ही उस परिवार की विभूति कहेंगे, जब की परिवार के सदस्य सभी पुत्र होंगे। परमात्मा का अंश सभी जड़ और चेतन में है किंतु विभूति वही है जिस में परमात्मा के सत्व गुण अधिक होंगे।
कल अंतिम श्लोक के साथ इस अध्याय को समाप्त करते हुए, भगवान श्री कृष्ण क्या कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।।10.41।।
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